लोग मार्गदर्शकों और सिद्ध पुरुषों की तलाश करते रहते हैं ताकि उनके अनुग्रह एवं सहयोग से अध्यात्म मार्ग पर चलना और सफलतापूर्वक लक्ष्य तक पहुँच सकना सम्भव हो सके। इसी खोज में लोग एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे की खोज में फिरते हैं, फिर भी उन्हें सफलता मिल नहीं पाती। जो दूसरों के लिए सहायक हुए वे भी अपनी ओर से मुँह फेर लेते हैं।
हमारा अनुभव इन लोगों से सर्वथा भिन्न रहा है। जितनी उत्सुकता साधकों को सिद्ध पुरुष खोजने की होती है उससे असंख्यों गुनी उत्कंठा सिद्ध पुरुषों को सुपात्र साधकों की तलाश करने के निमित्त होती है। साधक सत्पात्र चाहिए। जिसने अपना चिन्तन, चरित्र और व्यवहार परिष्कृत कर लिया हो वही सच्चा साधक है। उसे मार्गदर्शक खोजने नहीं पड़ते वरन् वे दौड़कर स्वयं उनके पास आते और उंगली पकड़कर आगे चलने का रास्ता बताते हैं। जहाँ वे लड़खड़ाते हैं वहाँ गोदी में उठाकर कन्धे पर बिठाकर पार लगाते हैं। हमारे सम्बन्ध में यही हुआ है। घर बैठे पधारकर अधिक सामर्थ्यवान बनाने के लिए 24 वर्ष का गायत्री पुरश्चरण उन्होंने कराया एवं उसकी पूर्णाहुति में सहस्र कुण्डी गायत्री यज्ञ सम्पन्न कराया है। धर्म तन्त्र से लोक शिक्षण के लिए एक लाख अपरिचित व्यक्तियों को परिचित ही नहीं, घनिष्ठ बनाकर कंधे से कन्धा- कदम से कदम मिलाकर चलने योग्य बना दिया।
अपने प्रथम दर्शन में ही चौबीस महापुरश्चरण पूरे होने एवं चार बार एक-एक वर्ष के लिए हिमालय बुलाने की बात गुरुदेव ने कही।
हमें हिमालय पर बार-बार बुलाये जाने के कई कारण थे। एक यह कि सुनसान प्रकृति के सान्निध्य में- प्राणियों एवं सुविधाओं के अभाव में आत्मा को एकाकीपन अखरता तो नहीं। दूसरे यह कि इस क्षेत्र में रहने वाले हिंसक पशुओं के साथ मित्रता बना सकने लायक आत्मीयता विकसित हुई या नहीं। तीसरे, वह समूचा क्षेत्र देवात्मा है। उसमें ऋषियों ने मानवी काया में रहते हुए देवत्व उभारा और देव मानव के रूप में ऐसी भूमिकाऐं निभाईं जो साधन और सहयोग के अभाव में साधारण जनों के लिए कर सकना सम्भव नहीं थी।
उनका मूल निर्देश था कि अगले दिनों उपलब्ध आत्मबल का उपयोग हमें ऐसे ही प्रयोजन के लिए एक साथ करना है, जो ऋषियों ने समय-समय पर तात्कालिक समस्याओं के समाधान के निमित्त अपने प्रबल पुरुषार्थ से सम्पन्न किया था। यह समय ऐसा है जिसमें अगणित अभावों की एक साथ पूर्ति करनी है। साथ ही एक साथ चढ़ दौड़ी अनेकानेक विपत्तियों से जूझना है। यह दोनों ही कार्य इसी उत्तराखण्ड कुरुक्षेत्र में पिछले दिनों सम्पन्न हुए हैं। पुरातन देवताओं ऋषियों में से कुछ आँशिक रूप से सफल हुए हैं, कुछ असफल भी रहे हैं। इस बार एकाकी वे सब प्रयत्न करने और समय की माँग को पूरा करना है। इसके लिए जो मोर्चे बन्दी करनी है उसकी झलक झाँकी समय रहते कर ली जाय ताकि कन्धों पर आने वाले उत्तरदायित्वों की पूर्व जानकारी रहे और पूर्वज किस प्रकार दाँव-पेंच अपना कर विजय श्री को वरण करते रहे हैं, इस अनुभव से कुछ न कुछ सरलता मिले। यह तीनों ही प्रयोजन समझने, अपनाने और परीक्षा में उत्तीर्ण होने के निमित्त ही हमारी भावी हिमालय यात्राऐं होनी हैं, ऐसा उनका निर्देश था। आगे उन्होंने बताया कि “हम लोगों की तरह तुम्हें भी सूक्ष्म शरीर के माध्यम से अति महत्वपूर्ण काम करने होंगे। इसका पूर्वाभ्यास करने के लिए यह सीखना होगा कि स्थूल शरीर से हिमालय के किस भाग में-कितने समय तक किस प्रकार ठहरा जा सकता है और निर्धारित उद्देश्य की पूर्ति में संलग्न रहा जा सकता है।”
“सहज शीत ताप के मौसम में, जीवनोपयोगी सभी वस्तुऐं मिल जाती हैं, शरीर पर भी ऋतुओं का असह्य दबाव नहीं पड़ता। किन्तु हिमालय क्षेत्र के असुविधाओं वाले प्रदेश में स्वल्प साधनों के सहारे कैसे रहा जा सकता है, यह भी एक कला है साधना है। जिस प्रकार नट शरीर को साधकर अनेक प्रकार के कौतूहलों का अभ्यास कर लेते हैं, लगभग उसी प्रकार का वह अभ्यास है जिसमें नितान्त एकाकी रहना पड़ता है। पत्तियों और कन्दों के सहारे निर्वाह करना पड़ता है और हिंसक जीव-जन्तुओं के बीच रहते हुए अपने प्राण बचाना पड़ता है।
जब तक स्थूल शरीर है तभी तक यह झंझट है। सूक्ष्म शरीर में चले जाने पर वे आवश्यकताऐं समाप्त हो जाती हैं जो स्थूल शरीर के साथ जुड़ी हुई हैं। सर्दी-गर्मी से बचाव, क्षुधा पिपासा का निवारण, निद्रा और थकान का दबाव यह सब झंझट उस स्थिति में नहीं रहते हैं। पैरों से चलकर मनुष्य थोड़ी दूर जा पाता है किन्तु सूक्ष्म शरीर के लिए एक दिन में सैकड़ों योजनों की यात्रा सम्भव है। एक साथ, एक मुख से सहस्रों व्यक्तियों के अन्तःकरणों तक अपना सन्देश पहुँचाया जा सकता है। दूसरों की इतनी सहायता सूक्ष्म शरीरधारी कर सकते हैं, जो स्थूल शरीर रहते सम्भव नहीं। इसलिए सिद्ध पुरुष सूक्ष्म शरीर द्वारा काम करते हैं। उनकी साधनाएं भी स्थूल शरीर वालों की अपेक्षा भिन्न हैं।”
“स्थूल शरीरधारियों की एक छोटी सीमा है। उनकी बहुत सारी शक्ति तो शरीर की आवश्यकताऐं जुटाने में दुर्बलता, रुग्णता, जीर्णता आदि के व्यवधानों से निपटने में खर्च हो जाती है। किन्तु लाभ यह है कि प्रत्यक्ष दृश्य मान कार्य स्थूल शरीर से ही हो पाते हैं। इस स्तर के व्यक्तियों के साथ घुलना-मिलना- आदान-प्रदान इसी के सहारे सम्भव है। इसलिए जन साधारण के साथ संपर्क साधे रहने के लिए प्रत्यक्ष शरीर से ही काम लेना पड़ता है। फिर वह जरा जीर्ण हो जाने पर अशक्त हो जाता है और त्यागना पड़ता है। ऐसी स्थिति में उसके द्वारा आरम्भ किये गये काम अधूरे रह जाते हैं। इसलिए जिन्हें लम्बे समय तक ठहराना है और महत्वपूर्ण व्यक्तियों के अन्तराल में प्रेरणाऐं एवं क्षमताऐं देकर बड़े काम कराते रहना है, उन्हें सूक्ष्म शरीर में ही प्रवेश करना पड़ता है।”
“जब तक तुम्हारे स्थूल शरीर की उपयोगिता रहेगी, तभी तक वह काम करेगा। इसके उपरान्त इसे छोड़कर सूक्ष्म शरीर में चला जाना होगा। तब साधनाऐं भिन्न होंगी, क्षमताऐं बढ़ी-बढ़ी होंगी। विशिष्ट व्यक्तियों से संपर्क रहेगा। बड़े काम इसी प्रकार हो सकेंगे।”
गुरुदेव ने कहा- “उचित समय आने पर तुम्हारा परिचय देवात्मा हिमालय क्षेत्र से कराना है। गोमुख से पहले सन्त महापुरुष स्थूल शरीर समेत निवास करते हैं। इस क्षेत्र में भी कई प्रकार की कठिनाइयाँ हैं। इनके बीच निर्वाह करने का अभ्यास करने के लिए, एक-एक साल वहाँ निवास करने का क्रम बना देने की योजना बनाई है। इसके अतिरिक्त हिमालय का हृदय जिसे अध्यात्म का ध्रुव केन्द्र कहते हैं। उसमें चार-चार दिन ठहरना होगा, हम साथ रहेंगे। स्थूल शरीर जैसी स्थिति सूक्ष्म शरीर की बनाते रहेंगे। वहाँ कौन रहता है, किस स्थिति में रहता है, तुम्हें कैसे रहना होगा, यह भी तुम्हें विदित हो जाएगा। दोनों शरीरों का दोनों क्षेत्रों का अनुभव क्रमशः बढ़ते रहने में तुम उस स्थिति में पहुँच जाओगे, जिसमें ऋषि अपने निर्धारित संकल्पों की पूर्ति में संलग्न रहते हैं। संक्षेप में यही है तुम्हें चार बार हिमालय बुलाने का उद्देश्य। इसके लिए जो अभ्यास करना पड़ेगा, जो परीक्षा उत्तीर्ण करनी पड़ेगी, यह उद्देश्य भी इस बुलाये का है। तुम्हारी यहाँ पुरश्चरण साधना में, स्वतन्त्रता आन्दोलन में स्वयं सेवक रूपी सेवा में इस विशिष्ट प्रयोग से कोई विघ्न न पड़ेगा।
सूक्ष्म शरीरधारी उसी क्षेत्र में इन दिनों निवास करते हैं। पिछले हिम युग के बाद परिस्थितियाँ बदल गई हैं। जहाँ धरती का स्वर्ग था, वहाँ का वातावरण अब देवताओं के उपयुक्त नहीं रहा, इसलिए वे अन्तरिक्ष में रहते हैं।
पूर्व काल में ऋषिगण गोमुख से ऋषिकेश तक अपनी-अपनी रुचि और सुविधा के अनुसार रहते थे। वह क्षेत्र अब पर्यटकों, तीर्थयात्रियों और व्यवसाइयों से भर गया है। इसलिए उसे उन्हीं लोगों के लिए छोड़ दिया गया है। अनेकों देव मन्दिर बन गये हैं ताकि यात्रियों का कौतूहल पुरातन काल का इतिहास और निवासियों का निर्वाह चलता रहे।”
हमें बताया गया कि थियोसोफी की संस्थापिका ब्लैवेट्स्की सिद्ध पुरुष थीं। ऐसी मान्यता है कि वे स्थूल शरीर में रहते हुए सूक्ष्म शरीरधारियों के संपर्क में थीं। उनने अपनी पुस्तकों में लिखा है कि दुर्गम हिमालय में “अदृश्य सिद्ध पुरुषों की पार्लियामेंट” है। इसी प्रकार उस क्षेत्र के दिव्य निवासियों को “अदृश्य सहायक” भी कहा गया है। गुरुदेव ने कहा कि वह सब सत्य है, तुम अपने दिव्य चक्षुओं से यह सब उसी हिमालय क्षेत्र में देखोगे, जहाँ हमारा निवास है।” तिब्बत क्षेत्र उन दिनों हिमालय की परिधि में आता था। अब वह परिधि घट गई है। तो भी व्लैक्ट्स्की का कथन सत्य है। स्थूल शरीरधारी उसे देख नहीं पाते पर हमें अपने मार्गदर्शक गुरुदेव की सहायता से उसे देख सकने का आश्वासन मिल गया।
गुरुदेव ने कहा- “हमारे बुलावे की प्रतीक्षा करते रहना। जब परीक्षा की स्थिति के लिए उपयुक्तता एवं आवश्यकता समझी जायेगी, तभी बुलाया जायेगा। अपनी ओर से उसकी इच्छा या प्रतीक्षा भी मत करना। अपनी ओर से जिज्ञासा वश उधर प्रयाण भी मत करना। वह सब निरर्थक रहेगा। तुम्हारे समर्पण के उपरान्त वह जिम्मेदारी हमारी हो जाती है।”
कथन समाप्त हुआ और वे उत्तर या समाधान की प्रतीक्षा किये बिना अन्तर्ध्यान हो गये।