मथुरा का विचार क्राँति अभियान एवं प्रयाण की तैयारी

April 1985

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मथुरा से ही उस विचार क्रान्ति अभियान ने जन्म लिया जिसके माध्यम से आज करोड़ों व्यक्तियों के मन मस्तिष्कों को उलटने का संकल्प पूरा कर दिखाने का हमारा दावा आज सत्य होता दिखाई देता है। सहस्र कुण्डीय यज्ञ तो पूर्व जन्म से जुड़े उन परिजनों के समागम का एक माध्यम था, जिन्हें भावी जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी थी। इस यज्ञ में एक लाख से भी अधिक लोगों ने समाज से, परिवार से एवं अपने अन्दर से बुराइयों को निकाल फेंकने की प्रतिज्ञाएं लीं। यह यज्ञ नरमेध यज्ञ था। इसमें हमने समाज के लिये समर्पित लोकसेवियों की माँग कीं एवं समयानुसार हमें ये सभी सहायक उपलब्ध होते चले गये। यह सारा खेल उस अदृश्य बाजीगर द्वारा सम्पन्न होता ही हम मानते आये हैं, जिसने हमें माध्यम बनाकर समय परिवर्तन का ढाँचा खड़ा कर दिखाया।

मथुरा में ही नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक क्रान्ति के लिए गाँव-गाँव आलोक वितरण करने एवं घर-घर अलख जगाने लिये सर्वत्र गायत्री यज्ञ समेत युग निर्माण सम्मेलन के आयोजनों की एक व्यापक योजना बनाई गई। मथुरा के सहस्र कुण्डी यज्ञ के अवसर पर जो प्राणवान व्यक्ति आए थे उन्होंने अपने यहाँ एक शाखा संगठन खड़ा करने और एक ऐसा ही यज्ञ आयोजन करने का दायित्व अपने कन्धों पर लिया या ये कहें कि उस दिव्य वातावरण में अन्तःप्रेरणा ने उन्हें वह दायित्व सौंपा ताकि हर व्यक्ति न्यूनतम एह हजार विचारशील व्यक्तियों को अपने समीपवर्ती क्षेत्रों में से ढूंढ़कर अपना सहयोगी बनाए। आयोजन चार-चार दिन के रखे गए। इनमें तीन दिन तीन क्रान्तियों की विस्तृत रूप रेखा और कार्य-पद्धति समझाने वाले संगीत और प्रवचन रखे गए। अन्तिम चौथे दिन यज्ञाग्नि के सम्मुख उन लोगों से व्रत धारण करने को कहा गया जो अवाँछनीयताओं को छोड़ने और उचित परम्पराओं को अपनाने के लिए तैयार थे।

ऐसे आयोजन जहाँ तहाँ भी हुए, बहुत ही सफल रहे इनके माध्यम से प्रायः एक करोड़ व्यक्तियों में मिशन की विचारधारा को सुना एवं लाखों व्यक्ति ऐसे थे जिनने अनैतिकताओं अन्धविश्वासों एवं कुरीतियों के परित्याग की प्रतिज्ञाएँ लीं। इन आयोजनों में से अधिकाँश के बिना दहेज और धूमधाम के साथ विवाह हुए। मथुरा में एक और सौ कुंडी यज्ञ में 100 आदर्श विवाह सम्पन्न कराए गये। तब से ये प्रचलन बराबर चलते आ रहे हैं और हर वर्ष इस प्रचार आन्दोलन से अनेकों व्यक्ति लाभ उठाते रहे हैं।

सहस्र कुण्डीय यज्ञ से सम्बन्धित महत्वपूर्ण प्रसंगों की चर्चा हम अखण्ड-ज्योति के फरवरी अंक में कर चुके हैं। उससे जुड़े अनेकानेक रहस्यमय घटनाक्रमों का विवरण बताना अभी जनहित में उपयुक्त न होगा। इस काया को छोड़ने के बाद ही वह रहस्योद्घाटन हो, ऐसा प्रतिबन्ध हमारे मार्गदर्शक का है, सो हमने उसे दबी कलम से ही लिखा है। इस महान यज्ञ से हमें प्रत्यक्ष रूप से काफी कुछ मिला। एक बहुत बड़ा संगठन रातों रात गायत्री परिवार के रूप में खड़ा हो गया। युग निर्माण योजना के विचार क्रान्ति अभियान एवं धर्मतन्त्र से लोक शिक्षण के रूप में उसकी भावी भूमिका भी बन गयी। उन दिनों जिन-जिन स्थानों से आए व्यक्तियों ने अपने यहाँ शाखा स्थापित करने के संकल्प लिए, लगभग वहीं दो दशक बाद हमारे प्रज्ञा संस्थान एवं स्वाध्याय मण्डल विनिर्मित हुए। जिन स्थायी कार्य कर्ताओं ने हमारे मथुरा से आने के बाद प्रेस प्रकाशन, संगठन-प्रचार का दायित्व अपने कन्धों पर लिया, वे इसी महायज्ञ से उभर कर आये थे। सम्प्रति शाँतिकुँज में स्थायी रूप से कार्यरत बहुसंख्य स्वयं सेवकों की पृष्ठ भूमि में इस महायज्ञ अथवा इसके बाद देश भर में हुए आयोजनों की प्रमुख भूमिका रही है।

इससे हमारी स्वयं की संगठन सामर्थ्य विकसित हुई। हमने गायत्री तपोभूमि के सीमित परिकर में ही एक सप्ताह, नौ दिन एवं एक-एक महा के कई शिविर आयोजित किए। आत्मोन्नति के लिये पंचकोशी साधना शिविर, स्वास्थ्य संवर्धन हेतु कायाकल्प सत्र एवं संगठन विस्तार हेतु परामर्श एवं जीवन साधना सत्र उन कुछ प्रमुख आयोजनों में से हैं, जो हमने सहस्र एवं शतकुण्डी यज्ञ के बाद मथुरा में मार्गदर्शक के निर्देशानुसार सम्पन्न किए। गायत्री तपोभूमि में आने वाले परिजनों से जो हमें प्यार मिला, परस्पर आत्मीयता की भावना जो विकसित हुईं, उसी ने एक विशाल गायत्री परिवार को जन्म दिया। यह वही गायत्री परिवार है जिसका हर सदस्य हमें पिता के रूप में- उँगली पकड़ कर चलाने वाले मार्गदर्शक के रूप में, घर-परिवार-मन की समस्याओं को सुलझाने वाले चिकित्सक के रूप में देखता आया है।

इसी स्नेह, सद्भाव के नाते हमें भी उनके यहाँ जाना पड़ा, जो हमारे यहाँ आये थे। कई स्थानों पर छोटे-छोटे यज्ञायोजन थे, कहीं सम्मेलन तो कहीं प्रबुद्ध समुदाय के बीच तर्क, तथ्य, प्रतिपादनों के आधार पर गोष्ठी आयोजन। हमने जब मथुरा छोड़कर हरिद्वार आने का निश्चय किया तो लगभग दो वर्ष तक लगातार पूरे भारत का दौरा करना पड़ा। पाँच स्थानों पर तो उतने ही बड़े सहस्र कुण्डी यज्ञों का आयोजन था, जितना बड़ा मथुरा का सहस्र कुण्डी यज्ञ था। ये थे टाटानगर, महासमुन्द, बहराइच, भीलवाडा एवं पोरबन्दर। एक दिन में तीन-तीन स्थान पर रुकते हुए हमने हजारों मील का दौरा अपने अज्ञातवास पर जाने के पूर्व कर डाला। इस दौरे से हमारे हाथ लगे समर्पित समयदानी कार्यकर्ता। ऐसे अगणित व्यक्ति हमारे संपर्क में आये, जो पूर्व जन्म में ऋषि जीवन जी चुके थे। उनकी प्रसुप्त सामर्थ्य को पहचान कर हमने उन्हें परिवार से जोड़ा और इस प्रकार पारिवारिक सूत्रों से बँधा एक विशाल संगठन बनकर खड़ा हो गया।

मार्गदर्शक का आदेश वर्षों पूर्व मिल चुका था कि हमें 6 माह के प्रवास के लिए पुनः हिमालय जाना होगा पर पुनः मथुरा न लौटकर हमेशा के लिए वहाँ से मोह तोड़ते हुए हरिद्वार सप्त सरोवर में विश्वविद्यालय की तप स्थली में ऋषि परम्परा की स्थापना करनी होगी। अपना सारा दायित्व हमने क्रमशः धर्मपत्नी के कन्धों पर सौंपना काफी पूर्व से आरम्भ कर दिया था। वे पिछले तीन में से दो जन्मों में हमारी जीवन संगिनी बनकर रही ही थीं। इस जन्म में भी उन्होंने अभिन्न साथी- सहयोगी की भूमिका निभाई थी। वस्तुतः हमारी सफलता के मूल में उनके समर्पण- एक निष्ठ सेवा भाव को देखा जाना चाहिए। जो कुछ भी हमने चाहा, जिन प्रतिकूलताओं में जीवन जीने हेतु कहा, उन्होंने सहर्ष अपने को उस क्रम में ढाल लिया। हमारी पारिवारिक पृष्ठभूमि ग्रामीण जमींदार के घराने की थी तो उनकी एक धनी शहरी खानदान की। परन्तु जब घुलने का प्रश्न आया तो दोनों मिलकर एक हो गए। हमने अपने गाँव की भूमि विद्यालय हेतु दे दी एवं जमींदारी के बॉण्ड से मिली राशि गायत्री तपोभूमि के लिए जमीन खरीदने हेतु। तो उन्होंने अपने सभी जेवर तपोभूमि का भवन विनिर्मित होने के लिए दे दिए। वह त्याग-समर्पण उनका है, जिसने हमें इतनी बड़ी ऊंचाइयों तक पहुँचाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाईं।

अपनी दूसरी हिमालय यात्रा में उन्होंने हमारी अनुपस्थिति में सम्पादन-संगठन की जिम्मेदारी सँभाली ही थी। अब हम 10 वर्ष बाद 1971 में एक बहुत बड़ा परिवार अपने पीछे छोड़कर हिमालय जा रहे थे। गायत्री परिवार को दृश्य रूप में एक संरक्षक चाहिए था, जो उन्हें स्नेह-ममत्व दे सके। उनकी दुःख भरी वेदना में आँसू पोंछने का कार्य माता ही कर सकती थीं। माताजी ने यह जिम्मेदारी भली−भांति सम्भाली। प्रवास पर जाने के 3 वर्ष पूर्व से ही हम लम्बे दौरे पर रहा करते थे। ऐसे में मथुरा जाने वाले परिजनों से मिलकर उन्हें मार्गदर्शक देने, पत्रों द्वारा उन्हें दिलासा देने का कार्य वे अपने कन्धों पर ले चुकी थीं। हमारे सामाजिक जीवन जीने में हमें उनका सतत् सहयोग ही मिला। 200 रुपये में पाँच व्यक्तियों का गुजारा चलाने वाली माताजी स्वयं ही बता सकती हैं कि ऐसी कौन-सी विधा उनके पास थी, जिससे न केवल उन्होंने परिवार का भरण-पोषण किया, आने वालों का समुचित आतिथ्य सत्कार भी वे करती रहीं। किसी को निराश नहीं लौटने दिया।

मथुरा में जिया हमारा जीवन एक अमूल्य धरोहर के रूप में है। इससे न केवल हमारे भावी क्रान्तिकारी जीवन की नींव ढली अपितु क्रमशः प्रत्यक्ष पीछे हटने की स्थिति में दायित्व सँभाल सकने वाले मजबूत कंधों वाले नर तत्व भी हमारे हाथ लगे।


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