मनुष्य शरीर, इस निखिल ब्रह्माण्ड का छोटा स्वरूप है। इस काया को व्यापक प्रकृति की अनुकृति कहा गया है। विराट् का वैभव इस पिण्ड के अंतर्गत बीज रूप से प्रसुप्त स्थिति में विद्यमान है। कषाय-कल्मषों का आवरण चढ़ जाने से उसे नर-पशु की तरह जीवन यापन करना पड़ता है। यदि संयम और निग्रह के आधार पर इसे पवित्र और प्रखर बनाया जा सके तो इसी को ऋद्धि-सिद्धियों से ओत-प्रोत बनाया जा सकता है। कोयला ही हीरा होता है। पारे से मकरध्वज बनता है। यह अपने आप को तपाने का-तपश्चर्या का-चमत्कार है।
जीवात्मा परमात्मा का अंशधर ज्येष्ठ पुत्र, युवराज है। संकीर्णता के भव-बन्धनों से छूटकर वह “आत्मवत् सर्व भूतेषु” की मान्यता परिपुष्ट कर सके, वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना परिपक्व कर सके तो इसी जीवन में स्वर्ग और मुक्ति का रसास्वादन कर सकता है। जीव को ब्रह्म की समस्त विभूतियाँ हस्तगत करने का सुयोग मिल सकता है।
हम काया को तपश्चर्या से तपायें और चेतना को परम सत्ता में योग द्वारा समर्पित करें तो नर को नारायण, पुरुष को पुरुषोत्तम, क्षुद्र को महान बनने का सुयोग निश्चित रूप से मिल सकता है।