दीप के स्वर (kahani)

April 1985

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इतना हलका बनूं, मृत्यु को ले जाना भारी हो जाये। ऐसा फूल खिले डाली पर माली देखे तोड़ न पाये॥

इतनी गंध उड़े जीवन से गंध मिले चंदन के वन को। अपना मन इतना मथने दो ईर्ष्या हो सागर मंथन को॥

मेरी तृप्ति प्यास बन बैठी मेरा जीवन हुआ पराया। इतना दर्द दिया दुखियों ने अपने जैसा दुखी न पाया॥

इतनी भक्ति मुझे दो शंकर दुनियां तुमको भजना भूले। इतनी शक्ति मिले पीड़ा का आंसू आसमान को छू ले॥

जो जीवन से ऊब चुके हैं उन हारों को हार चाहिए। तलवारें धड़कन बन जायें मुझको इतना प्यार चाहिए॥

मुझको उनके पग छूने दो जो अंगारों पर चलते हैं। मिले धूलि में फूल बने कुछ, कुछ दीपक बनकर जलते हैं॥

मुझसे मेरे दुख न छीनो जीवन भारी हो जायेगा। मिट्टी में यदि मिला न मैं तो फूल कहां से खिल पायेगा॥

दीपों को यदि स्वर मिल जाता, सबके गीत व्यर्थ हो जाते। ऐसा दाता बने न कोई जिससे में याचक बन जाऊं॥

इतना मेरा बने न कोई अपने आंसू रोक न पाऊं। इतनी दया न करना कोई भिक्षा में सीता को हर लूं॥

उनको जगा रहा गीतों से जो मिट्टी में मिले पड़े हैं। फूलों के दुश्मन हम तुम हैं कांटे पथ में व्यर्थ खड़े हैं॥

आंसू तू भी छोड़ चला क्यों मेरा तू है और कौन है। जाग न पाये सुख से सोये इसीलिए मेदिनी मौन है॥

जो मिट्टी मे सुख से सोये मुझको उनसे बहुत प्यार है। मुझको उनसे उनको मुझसे बहुत प्यार है किंतु हार है॥

वे अपने कैसे पहचानूं जो अब रूप बदल मिलते हैं। उन फूलों से बात करा दो जो मिट्टी में मिल खिलते हैं॥ -अज्ञात

*समाप्त*


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