अध्यात्म का ध्रुव केन्द्र-देवात्मा हिमालय

April 1985

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देवात्मा हिमालय, विशेषकर उत्तराखण्ड जिसे हिमालय का हृदय कहा जाता है, अध्यात्म विज्ञानियों की दृष्टि में दैवी चेतन सत्ता की निवास स्थली है। मोटी दृष्टि से वह बर्फ से आच्छादित एक पर्वत श्रृंखला है जो तिब्बत के पठार को भारतीय उप महाद्वीप से अलग करती है। आल्पस पर्वत की तरह ही स्थूल दृष्टि रखने वालों ने उसे एक हिम पर्वत माना है। जबकि भारतीय संस्कृति के विकास की दृष्टि से हिमालय का महत्वपूर्ण स्थान है।

पाठकों को यह जानकारी यहाँ दे देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि हिमालय का आर्य संस्कृति के उत्थान में कितना महत्वपूर्ण योगदान रहा है। यह देवताओं, ऋषियों, तपस्वियों की पुण्य स्थली रही है। इसी कारण इसे स्वर्ग कहा जाता हो तो यह गलत नहीं माना जाना चाहिए। ऐसे अनेकों भौगोलिक एवं नृतत्व विज्ञान सम्बन्धी तथ्य मिलते हैं जो इस मत का समर्थन करते हैं कि हिमालय का महत्व बृहत्तर भारत के साँस्कृतिक विकास के परिप्रेक्ष्य में अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए। इतिहासकारों ने लिखा है कि आर्य मध्य एशिया से हिमालय की तराइयों में होते हुए नीचे उतरे और आर्यावर्त में बस गये। आर्यावर्त गंगा यमुना का दोआबा कहलाता था। आरम्भ में उसकी सीमा त्रिवेणी संगम तक थी। पीछे वह गया क्षेत्र तक बढ़ गई।

इतिहासकारों के अनुसार आर्यों का राजा इन्द्र कहलाता था और उनका पुरोहित बृहस्पति। हिमालय का उत्तराखण्ड क्षेत्र इन देवजनों की राजधानी थी। इन्द्र के तत्वावधान में कार्य करने वाले अन्य देवता भी हिमालय के इसी उच्च शिखर भाग में रहते थे। तब हिमालय ऊँचा तो था पर इतना ऊँचा नहीं कि उसकी ठंडक असह्य हो और वृक्ष वनस्पति न होते हों। इन दिनों जो स्थिति गंगोत्री क्षेत्र की है लगभग वही उस क्षेत्र की थी जिसे देवलोक कहते थे। शासकों, विद्वानों और वैज्ञानिकों के समुदाय उसी क्षेत्र में रहते थे। मौसम इतना ठंडा न था जितना वहाँ इन दिनों है।

अब से 17 हजार वर्ष पूर्व पिछला हिमयुग आया था। पृथ्वी के बड़े भाग में बर्फ जम गई थी। समुद्रों में भी उथल-पुथल हुई थी कितने ही भूखण्डों में पानी भर गया था और महाद्वीप कट कर एक-दूसरे से अलग हो गये थे। भू-भागों के कुछ नीचे हो गये- कुछ नीचे-ऊँचे। इस उलट-पुलट का हिमालय पर भी असर पड़ा और मौसम पर भी। गंगोत्री और बद्रीनाथ शिखर ऊँचे उठ गये और वहाँ ठंडक की अधिकता से वृक्ष वनस्पतियों का भी अभाव हो गया। देव युग में ऐसा न था। मध्य एशिया से आर्यावर्त तक आवागमन की, रहन-सहन की सुविधा थी। इसी से आर्य मध्य एशिया छोड़कर आर्यावर्त के उपजाऊ क्षेत्र में आ बसे।

मध्य एशिया का वातावरण उन दिनों अच्छा न था। असुर स्तर के लोग बहु संख्या में उधर रहते थे। उनकी रीति-नीति का आर्यों से तालमेल न बैठता था। आयेदिन देवासुर संग्राम ठने रहते थे। अन्त में यह क्षेत्र उनने खाली कर दिया। अधिक अच्छी भूमि जो उनने तलाश कर ली थी। उत्तराखण्ड का अपेक्षाकृत ऊँचा क्षेत्र इस दृष्टि से भी उत्तम था कि वह सुरक्षा के मध्यवर्ती किले का काम करता था। असुरों में लड़ना होता तो उन्हें ऊपर बसे हुए लोग आसानी से रोक सकते थे और नीचे धकेल देते थे।

यह इतिहासकारों का प्रतिपादन है। इसकी पौराणिक गाथा में भी संगति मिल जाती है। देवताओं का स्वर्ग कहाँ था? इसके लिए अलंकारिक भाषा में उसे ऊपर आसमान में कोई लोक विशेष कहा गया है। ऊपर आसमान- अन्तरिक्ष में बसा हुआ। पर उस कथन की तथ्यात्मक श्रृंखला नहीं मिलती। मनुष्यों का स्वर्ग लोक से आवागमन किस प्रकार सम्भव हो सकता है? मरने के बाद स्वर्ग जाने की बात यदि ठीक है तो आये दिन वहाँ आवागमन कैसे बन पड़ेगा? तथ्य यही था कि गंगा का उद्गम जिस क्षेत्र में है और वहीं से कुछ आगे-पीछे सरयू, यमुना आदि निकलती हैं, पंजाब के पंचनद जहाँ से निकलते हैं, उसी को तत्कालीन स्वर्ग कहा जा सकता है। अभी भी लेह, तिब्बत, आदि का मौसम ऐसा है, जहाँ मनुष्यों का आसानी से निर्वाह हो जाता है। पूर्व काल का देवताओं का स्वर्ग बद्रीनाथ से तिब्बत तक फैला हुआ था। इस क्षेत्र के निवासी मूर्धन्य स्तर के थे। वह विज्ञान की प्रत्येक धारा में पारंगत थे। तत्व दर्शन भी उनका प्रिय विषय था। उपयुक्त सभी विशेषताओं के रहने से उस क्षेत्र का नाम स्वर्ग और निवासियों के नाम उनकी विशिष्टताओं के अनुरूप देवता कहा गया हो तो इसमें कुछ भी अत्युक्ति नहीं है। यदि ब्रह्माण्ड में कहीं अन्यत्र बुद्धिमान प्राणी रहते होंगे तो उनके साथ भी उनकी घनिष्ठता रही हो तो आश्चर्य नहीं। इस पृथ्वी पर यह चरम उत्कर्ष का क्षेत्र तो था ही। ज्ञान और विज्ञान का भण्डार होने के कारण इस प्रकार की उपमा दिया जाना कोई असंगत नहीं है। उनका लोक-लोकान्तरों की प्रतिभाओं के साथ आदान-प्रदान चलना भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है। उन दिनों महान विद्याओं, कलाओं, विभूतियों का भण्डार उस क्षेत्र में रहने की बात समझ में भी आती है।

नारद जी स्वर्ग लोक में विष्णुजी से महत्वपूर्ण समस्याओं के सम्बन्ध में विचार विमर्श हेतु बहुधा आते जाते रहते थे। इस आवागमन में उन्हें प्रवीणता प्राप्त थी। पुराणों में और भी ऐसी कथाएँ हैं, जिनसे उपरोक्त तथ्य की पुष्टि होती है। असुरों के आक्रमण मध्य एशिया से देव समुदाय पर जब-जब हुए हैं तब-तब उनने आर्यावर्त के राजाओं को सहायता करने के लिए बुलाया है और वे प्रसन्नता पूर्वक पहुँचे भी हैं। राजा दशरथ एक बार इन्द्र के आमन्त्रण पर वहाँ गये थे। रथ की धुरी में गड़बड़ी पर जाने से उनकी पत्नी ने अपनी उँगली लगा कर यान का यथावत् चालू रहने योग्य बनाया था। इस साहसिकता के बदले दशरथ ने कैकेयी को दो वरदान देने का वचन दिया था। एक बार अर्जुन को इन्द्र ने बुलाया था। वे भी सहायता करने पहुँचे थे सहायता सफल हुई तो इन्द्र ने वहाँ की सर्वोत्तम सुन्दरी उर्वशी का उपहार में देना चाहा। अर्जुन के मनाकर देने पर इन्द्र ने दूसरा उपहार गाण्डीव धनुष के रूप में उन्हें दिया था। उस धनुष के बाण शब्द बेधी होते थे।

असुरों ने मध्य एशिया को छोड़कर देवताओं की सम्पदा पर कब्जा करने के लिए लंका को अपना अड्डा बनाया था और देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर को लूटकर लंका में सोने के मकान बना लिये थे। इस प्रकार देवताओं का स्वर्ग इस धरती पर होना ही सिद्ध होता है और भी कितनी ही कथाएँ इस प्रकार की हैं जिनमें स्वर्ग का वर्णन इसी रूप में आता है मानों वह पृथ्वी का ही कोई उत्कृष्ट भाग रहा हो। यह भी कहा जा सकता है कि अधिक विकसित सभ्यता के किन्हीं अन्तरिक्ष वासियों के साथ उन लोगों का आदान-प्रदान रहा हो। ऐसे अनेकों प्रमाण अभी भी उपलब्ध होते हैं।

हिमालय को कार्य क्षेत्र देवताओं ने बनाया हो इसके कई कारण थे। एक यह कि अधिक ऊँचाई होने से असुरों का वहाँ तक पहुँचना और आक्रमण करना सरल नहीं था। इसलिए देवासुर संग्राम आये दिन न होने की सुविधा देवताओं को मिलती थी। दूसरी यह कि उस क्षेत्र में अनेकों गुफाएँ हैं, जिनमें ताप मान सह्य रहता है। उनमें निवास करते हुए तत्वज्ञान और विज्ञान की शोधें एकान्त में - एकाग्रतापूर्वक करना सम्भव होता था। तीसरे यह कि उस क्षेत्र में संजीवनी बूटी जैसे मृतक को जीवित कर कर देने वाली जड़ी-बूटियाँ मिलती थीं। सोमरस यहीं उगता था। च्यवन जैसे को, वृद्ध को, युवा बना देने वाला अष्ट वर्ग यहीं था। संसार को अलभ्य जड़ी-बूटियों की दृष्टि से यह क्षेत्र अनुपम था व अभी भी है। उस समय स्वर्ण की खदानें भी इधर ही थीं। वातावरण में ऐसे तत्व थे जिन्हें अलौकिक कहा जा सके। इन कारणों से ऋषि गण इस क्षेत्र की गुफाओं में रहकर अनेकों सिद्धियों का उपार्जन करते थे। मानव शरीर ब्रह्माण्ड शरीर का संक्षिप्त संस्करण हैं। इसमें प्रकृति की- ब्रह्माण्ड की- महती शक्तियाँ बीज रूप में विद्यमान हैं। उन्हें उठाने और परिपक्व करने के लिए यह क्षेत्र सर्व सुविधा सम्पन्न है। ऋद्धियों और सिद्धियों का भाण्डागार इस क्षेत्र में रहकर सरलता पूर्वक अर्जित किया जा सकता है। इसलिए देवता ही नहीं, देव मानवों, सिद्ध पुरुषों का समुदाय भी इसी क्षेत्र में आकर निवास करता था। इतिहास पुराण इस बात के साक्षी हैं कि ऋषियों में से अधिकाँश ने अपनी योग साधना तपश्चर्या करके दुर्लभ विभूतियां यहीं अर्जित की थीं। उस उपार्जन का लाभ मनुष्य जाति को, विशेषतया आर्यावर्त क्षेत्र को निरन्तर मिलता रहा है। प्रसिद्ध है कि उधर के ऊबड़-खाबड़ नदी नालों को सुव्यवस्थित करके देवताओं ने भागीरथ के तत्वावधान में गंगा को स्वर्ग से नीचे उतारा था और जल के अभाव में पिछड़ा हुआ क्षेत्र हरीतिमा से भरपूर स्वर्ण सम्पदाओं का स्वामी आर्यावर्त बन गया था।

हिमालय के स्वर्ग केन्द्र की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि यहाँ स्थूल शरीर को सूक्ष्म शरीर में विकसित कर लेना और उसे इच्छानुसार लम्बी अवधि तक जीवित बनाये रखना सम्भव था। सूक्ष्म और कारण शरीर को समर्थ बनाने के उपरान्त स्थूल शरीर के न रहने पर भी मनुष्य का अस्तित्व बना रहता है। तब उसे भूख, प्यास, निद्रा आदि की उन आवश्यकताओं को पूरा नहीं करना पड़ता, जो स्थूल शरीर के रहते अनिवार्य रूप से आवश्यक मानी जाती हैं। सूक्ष्म शरीर दृश्यमान न होते हुए भी स्थूल शरीर की तुलना में कहीं अधिक समर्थ एवं स्थिर रहता है। उसे शरीरगत आवश्यकताओं में ही लगाना पड़ता है। जो महान् उद्देश्य सामने है, उसे पूरा करने में बिना किसी विघ्न बाधा के लगे रहने में कोई विघ्न आड़े नहीं आता। स्थूल शरीर को स्वेच्छा पूर्वक परित्याग करके सूक्ष्म शरीर के रूप में अपनी सत्ता को बनाये रहना और जो काम करने हैं, उन्हें अनवरत रूप से चालू रख पाना सम्भव होता है। यह एक बहुत बड़ी सुविधा है। इसे उपलब्ध करने से लम्बे समय तक किसी प्रयोग को जारी रखा जा सकता है। स्थूल शरीर के न रहने पर साधारण मनुष्यों की गतिविधियाँ समाप्त हो जाती हैं किंतु सूक्ष्म शरीरधारी अपनी गतिविधियाँ हजारों वर्षों तक जारी रखे रह सकता है।

जैसा कि पूर्व में बताया गया, अब से 17 हजार वर्ष पूर्व पिछला हिमयुग आया था। उस समय के ऋषि अपने सूक्ष्म शरीर से किन्हीं कन्दराओं, शिखरों एवं दिव्य भूमियों पर विद्यमान हैं। सर्वसाधारण को वे नहीं दिखते। किंतु जिन्हें अपना परिचय देना होता है या कुछ सहायता करनी होती है तब उस शरीर को प्रकट भी कर देते हैं। यह बहुत बड़ी बात है। इस सिद्धि के बल पर ही हिमालय के सिद्ध पुरुष हिमयुग से भी पूर्व की संचित अपनी ज्ञान सम्पदा को यथावत् बनाये हुए हैं। इसके बाद भी वे अपने तप प्रयोगों में संलग्न रहने के कारण अपेक्षाकृत और भी अधिक समर्थ हो गये हैं। हमारा साक्षात्कार इन्हीं ऋषिगणों से गुरुदेव ने कराया था।

पिछड़ों को बढ़ाना और गिरों को उठाना इन सिद्ध पुरुषों का प्रधान कार्य है। जो अध्यात्म मार्ग में बढ़ना चाहते हैं, उन्हें अध्यापकों की तरह पढ़ाना, अभिभावकों की तरह संरक्षण एवं सुविधा प्रदान करना इनका प्रमुख कार्य है। जब उन्हें संसार की सामयिक समस्याओं का समाधान करने के लिए स्वयं कोई बड़ा उत्तरदायित्व ओढ़ना होता है तो किसी शरीर में मनुष्य जन्म भी ले लेते हैं और अपना प्रयोजन पूरा होने पर उस शरीर को त्यागकर पुनः अपने सिद्ध स्वरूप में लौट जाते हैं।

भगवान निराकार हैं। ये शरीर धारण नहीं कर सकते। एक जगह जन्म लेने वाले को अन्यत्र ये अपनी सत्ता समेटनी पड़ेगी। इसलिए वे अपने किसी अंशधर को वह काम सौंप देते हैं, जो उन्हें कराना है। यह अंशधर ही देवात्मा, ऋषि, अवतार महापुरुष आदि कहलाते हैं और वे उन कामों को सम्पन्न करते हैं जो उन्हें सौंपे गये हैं। समय-समय पर ऐसे अंशधर ही प्रकट होते और वे कार्य पूरे कर दिखाते हैं, जो सामान्य मनुष्यों की सामर्थ्य से बाहर है।

इस पृथ्वी का आध्यात्मिक ध्रुव केन्द्र हिमालय है। इसे एक प्रकार से भगवान की विशेष शक्तिशाली सेना की छावनी समझा जाना चाहिए। सूक्ष्म शरीरधारी- अंशधर देवात्मा सिद्ध पुरुष प्रायः इसी क्षेत्र में रहते हैं। महाप्रभु ईसा कुछ समय के लिए इसी क्षेत्र में आये थे। यह ईसवी सदी के प्रारम्भ की बात है। यह उच्च स्तरीय आत्माओं का प्रशिक्षण विद्यालय रहा है। उन्हें आवश्यक अस्त्र-शस्त्र भी यहीं से मिल जाते हैं। जो सिद्धियाँ उनकी निज की उपार्जित नहीं होतीं, उन्हें यह सिद्ध पुरुष अपने विभूति भण्डार में से अभीष्ट उद्देश्य पूर्ति के लिए प्रदान करते हैं और वे भी चमत्कारी महापुरुषों की तरह लोकहित के- सामयिक समाधान इस प्रकार करते हैं कि दर्शकों को आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। यही है हिमालय का वास्तविक स्वरूप जिसे स्पष्टतः अध्यात्म का ध्रुव केन्द्र मानना चाहिए।


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