आमन्त्रण का प्रयोजन एवं भावी रूप रेखा का स्पष्टीकरण

April 1985

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नन्दन वन प्रवास का अगला दिन और भी विस्मयकारी था। पूर्व रात्रि में गुरुदेव के साथ ऋषिगणों के साक्षात्कार के दृश्य फिल्म की तरह आँखों के समझ घूम रहे थे। पुनः गुरुदेव की प्रतीक्षा थी- भावी निर्देशों के लिए। धूप जैसे ही नन्दन वन के मखमली कालीन पर फैलने लगी, ऐसा लगा स्वर्ग धरती पर उतर आया हो। भाँति-भाँति के रंगीन फूल ठसाठस थे और चौरस पठार पर बिखरे हुए थे। दूर से देखने पर लगता था मानों एक गलीचा बिछा हो।

सहसा गुरुदेव का स्थूल शरीर रूप में आगमन हुआ। उन्होंने आवश्यकतानुसार पूर्व रात्रि के प्रतिकूल अब वैसा ही स्थूल शरीर बना लिया था जैसा कि प्रथम बार प्रकाश पुंज के रूप में पूजा घर में अवतरित होकर हमें दर्शन दिया था।

वार्तालाप क्रम आरम्भ करते हुए उन्होंने कहा- ‘‘हमें तुम्हारे पिछले सभी जन्मों की श्रद्धा और साहसिकता का पता था। अबकी बार यहाँ बुलाकर तीन परीक्षाएँ लीं और जाँचा कि बड़े कामों का वजन उठाने लायक मनोभूमि तुम्हारी बनी या नहीं। इस पूरी यात्रा में तुम्हारे साथ रहे हैं और घटनाक्रम तथा उसके साथ उठती तुम्हारी प्रतिक्रिया को देखते रहे हैं और भी अधिक निश्चिन्तता हो गई। यदि स्थिति सुदृढ़ और विश्वस्त न रही होती तो इस क्षेत्र के निवासी सूक्ष्म शरीरधारी ऋषिगण तुम्हारे समझ प्रकट न हुए होते और मन की व्यथा न कहते। उनके कथन का प्रयोजन यही था कि जो काम छूटा हुआ है उसे पूरा किया जाय। समर्थ देखकर ही उनने अपने मनोभाव प्रकट किये। अन्यथा दीन, दुर्बल, असमर्थों के सामने इतने बड़े लोग अपना मन बोलते कहाँ हैं?”

“तुम्हारा समर्पण यदि सच्चा है तो शेष सारे जीवन की कार्य पद्धति बनाये देते हैं। इसे परिपूर्ण निष्ठा के साथ पूरी करना। प्रथम कार्यक्रम तो यही है कि 24 लक्ष्य गायत्री महामन्त्र के 24 पुरश्चरण चौबीस वर्ष में पूरे करो। इससे मजबूती में जो कमी रही होगी सो पूरी हो जायेगी। बड़े और भारी काम करने के लिए बड़ी समर्थता चाहिए। उसी के निमित्त यह प्रथम कार्यक्रम सौंपा गया है। इसी के साथ-साथ दो कार्य और भी चलते रहेंगे। एक यह कि अपना अध्ययन जारी रखो। तुम्हें कलम उठानी है। आर्ष ग्रन्थों को अनुवाद प्रकाशन की व्यवस्था करके उसे सर्वसाधारण तक पहुँचना है। इससे देव संस्कृति की लुप्त प्राय कड़ियां जुड़ेंगी और भविष्य में विश्व संस्कृति का ढाँचा खड़ा करने में सहायता मिलेगी। इसके साथ ही जब तक स्थूल शरीर विद्यमान है तब तक कुछ मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण करने वाला- सर्वसुलभ साहित्य विश्व वसुधा की सभी सम्भव भाषाओं में लिखा जाना है। यह कार्य तुम्हारी प्रथम साधना की शक्ति से सम्बन्ध है। इसमें समय आने पर तुम्हारी सहायता के लिए सुपात्र मनीषी जुटेंगे जो तुम्हारा छोड़ा काम पूरा करेंगे।

तीसरा कार्य स्वतन्त्रता संग्राम में एक सिपाही की तरह प्रत्यक्ष एवं पृष्ठभूमि में रहकर लड़ते रहने का है। यह सन 1947 तक चलेगा। तब तक तुम्हारा पुरश्चरण भी बहुत कुछ पूरा हो लेगा। यह प्रथम चरण है। इसकी सिद्धियाँ जन साधारण के सम्मुख प्रकट होंगी। इस समय के लक्षण ऐसे नहीं हैं, जिनसे यह प्रतीत हो कि अंग्रेज भारत को स्वतन्त्रता देकर सहज ही चले जायेंगे। किन्तु यह सफलता तुम्हारा अनुष्ठान पूरा होने के पूर्व ही मिलकर रहेगी। तब तक तुम्हारा ज्ञान इतना हो जायेगा जितना कि युग परिवर्तन और नव निर्माण के लिए किसी तत्त्ववेत्ता के पास होना चाहिए।

पुरश्चरणों की समग्र सम्पन्नता तब होती है, जब उसका पूर्णाहुति यज्ञ भी किया जाय। चौबीस लाख पुरश्चरण का गायत्री महायज्ञ इतना बड़ा होना चाहिए, जिसमें 24 लाख मंत्रों की आहुतियाँ हो सकें एवं तुम्हारा संगठन इस माध्यम से खड़ा हो जाय। यह भी तुम्हें ही करना है। इसमें लाखों रुपयों की राशि और लाखों की सहायक जन संख्या चाहिए। तुम यह मत सोचना कि हम अकेले हैं। पास में धन नहीं है। हम तुम्हारे साथ हैं। साथ ही तुम्हारी उपासना का प्रतिफल भी। इसलिए संदेह करने की गुंजाइश नहीं है। समय आने पर सब हो जायेगा। साथ ही सर्वसाधारण को यह भी विदित हो जायेगा कि सच्चे साधक की सच्ची साधना का कितना चमत्कारी प्रतिफल होता है। यह तुम्हारे कार्यक्रम का प्रथम चरण है। अपना कर्त्तव्य पालन करते रहना। यह मत सोचना कि हमारी शक्ति नगण्य है। तुम्हारी कम सही। पर जब हम दो मिल जाते हैं तब एक और एक मिल कर ग्यारह होते हैं। और फिर यह तो दैवी सत्ता द्वारा संचालित कार्यक्रम है। इसमें संदेह कैसा? समय आने पर सारी विधि व्यवस्था सामने आती जायेगी। अभी से योजना बनाने और चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। अध्ययन जारी रखो। पुरश्चरण भी करते रहो। स्वतन्त्रता सैनिक का काम करो। अधिक आगे की बात सोचने में, व्यर्थ में मन में उद्विग्नता बढ़ेगी। अभी अपनी मातृभूमि में रहो और वहीं से प्रथम चरण के यह तीनों काम करो।

आगे की बात संकेत रूप में कहे देते हैं। साहित्य प्रकाशन द्वारा स्वाध्याय का और विशाल धर्म संगठन द्वारा सत्संग का- यह दो कार्य मथुरा रहकर करना पड़ेगा। पुरश्चरण की पूर्णाहुति भी वहीं होगी। प्रेस प्रकाशन भी वहीं से चलेगा। मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण की प्रक्रिया सुनियोजित ढंग से वहीं से चलेगी। वह प्रयास एक ऐतिहासिक आन्दोलन होगा जैसा कि अब तक कहीं भी नहीं हुआ।

तीसरा चरण इन सूक्ष्म शरीरधारी ऋषियों की इच्छा पूरी करने का है। ऋषि परम्परा का बीजारोपण तुम्हें करना है। इसका विश्वव्यापी विस्तार अपने ढंग से होता रहेगा। यह कार्य सप्त ऋषियों की तपोभूमि सप्त सरोवर हरिद्वार में रहते हुए करना पड़ेगा। तीनों कार्य तीनों जगह उपयुक्त ढंग से चलते रहेंगे।

अभी संकेत किया है। आगे चलकर समयानुसार इन कार्यों की विस्तृत रूप रेखा हम यहाँ बुलाकर बताते रहेंगे। तीन बार बुलाने के यह तीन प्रयोजन होंगे।

चौथी बार तुम्हें भी चौथी भूमिका में जाना है और हमारे प्रयोजन का बोझ इस सदी के अंतिम दशकों में अपने कंधों पर लेना है। तब सारे विश्व में उलझी हुई विषम समस्याओं के अत्यन्त कठिन और अत्यन्त व्यापक कार्य अपने कंधे पर लेने होंगे। पूर्व घोषणा करने से कुछ लाभ नहीं। समयानुसार जो आवश्यक होगा, सो विदित भी होता चलेगा और सम्पन्न भी।

इस बार की हमारी हिमालय यात्रा में मन में वह असमंजस बना हुआ था कि ‘हिमालय की गुफाओं में सिद्ध पुरुष रहने और उनके दर्शन मात्र से विभूतियाँ मिलने की जन श्रुतियाँ प्रचलित हैं। हमें उनका कोई आधार नहीं मिला। वह बात ऐसे ही किंवदंती मालूम पड़ती है।” था तो मन का भीतरी असमंजस। पर गुरुदेव ने उसे बिना कहे ही ताड़ लिया और कंधे पर हाथ रख कर पूछा? “तुझे क्या जरूरत पड़ गई सिद्ध पुरुषों की? ऋषियों के सूक्ष्म शरीरों के दर्शन एवं हमसे मन नहीं भरा?”

अपने मन में अविश्वास जैसी बात! कोई दूसरा खोजने जैसी बात स्वप्न में भी नहीं उठी थी। मात्र बाल कौतूहल मन में था। गुरुदेव ने इसे अविश्वास मान लिया होगा तो श्रद्धा क्षेत्र में हमारी कुपात्रता मानेंगे। यह विचार मन में आते ही स्तब्ध रह गया।

मन को पढ़ लेने वाले देवात्मा ने हँसते हुए कहा वे हैं तो सही। पर दो बातें नई हो गई हैं। एक तो सड़कों की- वाहनों की सुविधा होने से यात्री अधिक आने लगे हैं। इससे उनकी साधना में विघ्न पड़ता है। दूसरे यह कि अन्यत्र जाने पर शरीर निर्वाह में असुविधा होती है। इसलिए उनने स्थूल शरीरों का परित्याग कर दिया है और सूक्ष्म शरीर धारण करके रहते हैं। जो किसी को दृष्टिगोचर भी न हो और उसके लिए निर्वाह साधनों की आवश्यकता भी न पड़े। इस कारण उन सभी ने शरीर ही नहीं स्थान भी बदल लिये हैं। स्थान ही नहीं साधना के साथ जुड़े हुए कार्यक्रम भी बदल लिये हैं। अब सब कुछ परिवर्तन हो गया तो दृष्टिगोचर कैसे हो? फिर सत्पात्र साधकों का अभाव हो जाने के कारण वे कुपात्रों को दर्शन देने या उन पर की हुई अनुकम्पा में अपनी शक्ति गँवाना भी नहीं चाहते। ऐसी दशा में अन्य लोग जो तलाश करते हैं वह मिलना सम्भव नहीं। किसी के लिए भी सम्भव नहीं। तुम्हें अगली बार पुनः हिमालय के सिद्ध पुरुषों की दर्शन झाँकी करा देंगे।”

परब्रह्म के अंशधर देवात्मा सूक्ष्म शरीर में किस प्रकार रहते हैं, इसका प्रथम परिचय हमने अपने मार्गदर्शक के रूप में घर पर ही प्राप्त कर लिया था। उनके हाथों मैं विधिवत् मेरी नाव सुपुर्द हो गयी थी। फिर भी बालबुद्धि अपना काम कर रही थी। हिमालय में अनेकों सिद्ध पुरुषों के निवास की जो बात सुन रखी थी, उस कौतूहल को देखने का जो मन था वह ऋषियों के दर्शन एवं मार्गदर्शक की साँत्वना से पूरा हो गया था। इस लालसा को पहले अपने अंदर ही मन के किसी कोने में छिपाए फिरते थे। आज उसके पूरे होने व आगे भी दर्शन होते रहने का आश्वासन मिल गया था। सन्तोष तो पहली भी कम न था, पर अब वह प्रसन्नता और प्रफुल्लता के रूप में और भी अधिक बढ़ गया।

गुरुदेव ने आगे कहा कि आगे हम जब भी बुलावें तब समझना कि हमने 6 माह या एक वर्ष के लिए बुलाया है। तुम्हारा शरीर इस लायक बन गया है कि इधर की परिस्थितियों में निर्वाह कर सको। इस नये अभ्यास को परिपक्व करने के लिए इस निर्धारित अवधि में एक-एक करके तीन बार और इधर हिमालय में ही रहना चाहिए। तुम्हारे स्थूल शरीर के लिए जिन वस्तुओं की आवश्यकता समझेंगे, हम प्रबन्ध करवा दिया करेंगे। फिर इसकी आवश्यकता इसलिए भी है कि स्थूल से सूक्ष्म में और सूक्ष्म के कारण शरीर में प्रवेश करने के लिए जो तितीक्षा करनी पड़ती है, सो होती चलेगी। शरीर को क्षुधा, पिपासा, शीत, ग्रीष्म, निद्रा, थकान व्यथित करती हैं। इन छह को घर पर रहकर जीतना कठिन है क्योंकि सारी सुविधाएँ वहाँ उपलब्ध रहने से यह प्रयोजन आसानी से पूरे होते रहते हैं और तप-तितिक्षाओं के लिए अवसर ही नहीं मिलता। इसी प्रकार मन पर छाये रहने वाले छः कषाय-कल्मष भी किसी न किसी घटना क्रम के साथ घटित होते रहते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर इन छः रिपुओं से जूझने के लिए आरण्यकों में रहकर इनसे निपटने का अभ्यास करना पड़ता है। तुम्हें घर रहकर यह अवसर भी न मिल सकेगा। इसलिए अभ्यास के लिए जन संकुल स्थान से अलग रहने से उस आन्तरिक मल्लयुद्ध में भी सरलता होती है। हिमालय में रहकर तुम शारीरिक तितीक्षा और मानसिक तपस्या करना। इस प्रकार तीन बार तीन वर्ष वहाँ आते रहने और शेष वर्षों में जन संपर्क में रहने से परीक्षा भी होती चलेगी कि जो अभ्यास हिमालय में रहकर किया था, वह परिपक्व हुआ या नहीं?

यह कार्यक्रम देवात्मा गुरुदेव ने ही बनाया, पर था मेरा इच्छित। इसे मनोकामना की पूर्ति कहना चाहिए। स्वाध्याय, सत्संग और मनन-चिन्तन से यह तथ्य भली प्रकार हृदयंगम हो गया था कि दसों इन्द्रिय प्रत्यक्ष और ग्यारहवीं अदृश्य मन इन सबका निग्रह कर लेने पर बिखराव से छुटकारा मिल जाता है और आत्म संयम का पराक्रम बन पड़ने पर मनुष्य की दुर्बलताएँ समाप्त हो जाती हैं और विभूतियाँ जग पड़ती हैं। सशरीर सिद्ध पुरुष होने का यही राजमार्ग है। इन्द्रिय निग्रह, अर्थ निग्रह, समय निग्रह और विचार निग्रह यह चार संयम हैं। इन्हें साधने वाले महामानव बन जाते हैं और काम क्रोध, लोभ, मोह इन चारों में मन को उबार लेने पर लौकिक सिद्धियाँ हस्तगत हो जाती हैं।

मैं तपश्चर्या करना चाहता था। पर करता कैसे? समर्पित को स्वेच्छा आचरण की सुविधा कहाँ? जो मैं चाहता था, वह गुरुदेव के मुख से आदेश रूप में कहे जाने पर मैं फूला न समाया और उस क्रिया-कृत्य के लिए समय निर्धारित होने की प्रतीक्षा करने लगा।

गुरुदेव बोले- “अब वार्ता समाप्त हुई। तुम अब गंगोत्री चले जाओ। वहाँ तुम्हारे निवास, आहार आदि की व्यवस्था हमने कर दी है। भागीरथ शिला- गौरी कुण्ड पर बैठकर अपना साधना क्रम आरम्भ कर दो। एक साल पूरा हो जाय तब अपने घर लौट जाना। हम तुम्हारी देखभाल नियमित रूप से करते रहेंगे।”

गुरुदेव अदृश्य हो गये। हमें उनका दूत गोमुख तक पहुँचा गया। इसके बाद उनके बतायें हुए स्थान पर वर्ष के शेष दिन पूरे किये।

समय पूरा होने पर हम वापस लौट पड़े। अब की बार इधर से लौटते हुए उन कठिनाइयों में से एक भी सामने नहीं आई, जो जाते समय पग-पग पर हैरान कर रही थी। वे परीक्षाएँ थी, सो पूरी हो जाने पर लौटते समय कठिनाइयों का सामना करना भी क्यों पड़ता।

हम एक वर्ष बाद घर लौट आए। वजन 18 पौण्ड बढ़ गया। चेहरा लाल और गोल हो गया था। शरीर गति शक्ति काफी बढ़ी हुई थी। हर समय प्रसन्नता छाई रहती थी।

लौटने पर लोगों ने गंगा जी का प्रसाद माँगा। सभी को गंगोत्री की रेती में से एक-एक चुटकी दे दी व गोमुख के जल का प्रसाद दे दिया। यही वहाँ से साथ लेकर भी लौटे थे। दिख सकने वाला प्रत्यक्ष प्रसाद यही एक ही था।


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