हजरत मूसा सिनाई (kahani)

April 1985

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हजरत मूसा सिनाई पर्वत पर खड़े थे तो उनने समीप वाली झाड़ी पर एक प्रकाश पुँज घिरा देखा। वे सकपका गये और बोले- तुम कौन हो। बोलो तो। प्रकाश में से आवाज आई- मैं वहीं हूँ-जो मैं हूँ।

रहस्य को न समझ पाने के कारण मूसा बेतरह घबराये- सन्न रह गये। गला सूख गया।

अजूबा एक और भी हुआ कि देखते-देखते एक भयंकर सर्प, आग जैसी फुसकारें मारता हुआ सामने आ खड़ा हुआ। अब डर और भी बढ़ गया। नसों का खून जमने लगा।

इतने में किसी ने कड़क कर कहा- ‘‘मूसा डरो मत, हिम्मत करो, आगे बढ़ो और उस सर्प को कसकर पकड़ लो।”

उनने हिम्मत दिखाई और सचमुच ही साँप को कसकर पकड़ लिया। पकड़ने में देर नहीं हुई कि साँप लकड़ी का डंडा भर बनकर रह गया।

डंडा बने साँप की जाँच परख करने के लिए हजरत ने उससे एक चट्टान खटखटाई। इतने भर से एक निर्मल झरना उसमें से फूट पड़ा और ठण्डे पानी की धार बहने लगी।

हिम्मत बढ़ी तो उनने डंडे को लाल समुद्र पर पटका। देखते-देखते समुद्र दो हिस्से में बंट गया और बीच में से सूखी जमीन निकल आई। जिस पर आबादी बसी और खुशहाली फूटी।

“टेन कमाण्डमेण्ट्स” की इस कथा में कठिनाई के सर्प को पकड़ने के लिए हिम्मत दिखाने का निर्देशन है। जो कर सकते हैं वे ही झरने बहाने और आबादी के लिए जमीन निकालने जैसी सफलताएँ प्राप्त करते हैं।


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