प्रथम बुलावा - पग-पग पर खतरे

April 1985

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गुरुदेव द्वारा हमारी हिमालय बुलावे की बात मत्स्यावतार जैसी बढ़ती चली गई। पुराण की कथा है कि ब्रह्म जी के कमण्डलु में कहीं से एक मछली का बच्चा आ गया। हथेली में आचमन के लिए कमण्डलु लिया तो वह देखते-देखते हथेली भर लम्बी हो गई। ब्रह्मा जी ने उसे घड़े में डाल दिया। क्षण भर में वह उससे भी दूनी हो गई। ब्रह्म जी ने उसे पास के तालाब में डाल दिया, उसमें भी वह समाई नहीं तब उसे समुद्र तक पहुँचाया गया। देखते-देखते उसने पूरे समुद्र को आच्छादित कर लिया। तब ब्रह्माजी को बोध हुआ। उस छोटी सी मछली में अवतार होने की बात जानी, स्तुति की और आदेश माँगा। बात पूरी होने पर मत्स्यावतार अन्तर्धान हो गये और जिस कार्य के लिए वे प्रकट हुए थे। वह कार्य सुचारु रूप से सम्पन्न हो गया।

हमारे साथ भी घटना क्रम ठीक इसी प्रकार चले हैं। आध्यात्मिक जीवन वहाँ से आरम्भ हुआ था जहाँ कि गुरुदेव ने परोक्ष रूप से महामना मालवीय जी से गुरु दीक्षा दिलवाई थी। यज्ञोपवीत पहनाया था और गायत्री मन्त्र की नियमित उपासना करने का विधि-विधान बताया था। छोटी उम्र थी पर से पत्थर की लकीर की तरह माना और विधिवत् निभाया। कोई दिन ऐसा नहीं बीता जिसमें नागा हुई हो। साधना नहीं तो भोजन नहीं। इस सिद्धान्त को अपनाया। वह आज तक ठीक चला है और विश्वास है कि जीवन के अन्तिम दिन तक यह निश्चित रूप से निभेगा।

इसके बाद गुरुदेव का प्रकाश रूप से साक्षात्कार हुआ। उनने आत्मा को ब्राह्मण बनाने के निमित्त 24 वर्ष की गायत्री पुरश्चरण साधना बताई। वह भी ठीक समय पर पूरी हुई। इस बीच में बैटरी चार्ज कराने के लिए- परीक्षा देने के लाए बार-बार हिमालय आने का आदेश मिला। साथ ही हर यात्रा में एक-एक वर्ष या उससे कम दुर्गम हिमालय में ही रहने के निर्देश भी। वह क्रम भी ठीक प्रकार चला और परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर नया उत्तरदायित्व भी कन्धे पर लदा। इतना ही नहीं उसका निर्वाह करने के लिए अनुदान भी मिला, ताकि दुबला बच्चा लड़खड़ा न जाय। जहाँ गड़बड़ाने की स्थिति आई वही मार्गदर्शक ने गोद में उठा लिया।

पूरा एक वर्ष होने भी न पाया था कि बेतार का तार हमारे अन्तराल में हिमालय का निमन्त्रण ले आया। चल पड़ने का बुलावा आ गया। उत्सुकता तो रहती थी पर जल्दी नहीं थी। जो नहीं देखा है उसे देखने की उत्कण्ठा एवं जो अनुभव हस्तगत नहीं हुआ है, उसे उपलब्ध करने की आकाँक्षा ही थी। साथ ही ऐसे मौसम में जिसमें दूसरे लोग उधर जाते नहीं, ठण्ड, आहार, सुनसान, हिंस्र जन्तुओं का सामना पड़ने जैसे कई भय भी मन में उपज उठते। पर अन्ततः विजय प्रगति की हुई। साहस जीता। संचित कुसंस्कारों में से एक अनजाना डर भी था। यह भी था कि सुरक्षित रहा जाय और सुविधापूर्वक जिया जाय जबकि घर की परिस्थितियाँ ऐसी ही थीं। दोनों के बीच कौरव पाण्डवों की लड़ाई जैसा महाभारत चला। पर यह सब 24 घण्टे से अधिक न टिका। ठीक दूसरे दिन हम यात्रा के लिए चल दिये। परिवार को प्रयोजन की सूचना दे दी। विपरीत सलाह देने वाले भी चुप रहे। वे जानते थे कि इसके निश्चय बदलते नहीं।

कड़ी परीक्षा देना और बढ़िया वाला पुरस्कार पाना, यही सिलसिला हमारे जीवन में चलता रहा है। पुरस्कार के साथ अगला बड़ा कदम उठाने का प्रोत्साहन भी। हमारे मत्स्यावतार का यही क्रम चलता आया है।

प्रथम बार हिमालय जाना हुआ तो वह प्रथम सत्संग था। हिमालय दूर से तो पहले भी देखा था पर वहाँ रहने पर किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, इसकी पूर्व जानकारी कुछ भी न थी। वह अनुभव प्रथम बार ही हुआ। सन्देश आने पर चलने की तैयारी की। मात्र देवप्रयाग से उत्तरकाशी तक उन दिनों सड़क और मोटर की व्यवस्था थी। इसके बाद तो पूरा रास्ता पैदल का था ही, ऋषिकेश से देव प्रयाग भी पैदल यात्रा करनी होती थी। सामान कितना लेकर चलना चाहिए जो कन्धे और पीठ पर लादा जा सके, इसका अनुभव न था। सो कुछ ज्यादा ही ले लिया। लादकर चलना पड़ा तो प्रतीत हुआ कि यह भारी है। उतना हमारे जैसा पैदल यात्री लेकर न चल सकेगा। सो सामर्थ्य से बाहर की वस्तुऐं रास्ते में अन्य यात्रियों को बाँटते हुए केवल उतना रहने दिया जो अपने से चल सकता था एवं उपयोगी भी था।

इस यात्रा से गुरुदेव एक ही परीक्षा लेना चाहते थे कि विपरीत परिस्थितियों में जूझने लायक मनःस्थिति पकी या नहीं। सो यात्रा अपेक्षाकृत कठिन ही होती गई। दूसरा कोई होता तो घबरा गया होता, वापस लौट पड़ता या हैरानी में बीमार पड़ गया होता, पर गुरुदेव यह जीवन सूत्र व्यवहार रूप में सिखाना चाहते थे कि मनःस्थिति मजबूत हो तो परिस्थितियों का सामना किया जा सकता है। उन्हें अनुकूल बनाया या सहा जा सकता है। महत्वपूर्ण सफलताओं के लिए आदमी को इतना ही मजबूत होना पड़ता है।

ऐसा बताया जाता है कि जब धरती का स्वर्ग, या हृदय कहा जाने वाला भाग देवताओं का निवास था जब ऋषि गोमुख से नीचे और ऋषिकेश से ऊपर रहते थे, पर हिमयुग के बाद परिस्थितियाँ एकदम बदल गईं। देवताओं ने कारण शरीर धारण कर लिए और अन्तरिक्ष में विचरण करने लगे। पुरातन काल के ऋषि गोमुख से ऊपर चले गये। नीचे वाला हिमालय अब सैलानियों के लिए रह गया है। वहाँ कहीं-कहीं साधु बाबा जी की कुटियाँ तो मिलती हैं। पर जिन्हें ऋषि कहा जा सके ऐसों का मिलना कठिन है।

हमने यह भी सुन रखा था कि हिमालय की यात्रा के मार्ग में अपने वाली गुफाओं में सिद्धयोगी रहते हैं। वैसा कुछ नहीं मिला। पाया कि निर्वाह एवं आजीविका की दृष्टि से वह कठिनाइयों से भरा क्षेत्र है। इसलिए वहाँ मनमौजी लोग आते जाते तो हैं पर ठहरते नहीं। जो साधु संत मिले, उनसे भेंट वार्ता होने पर विदित हुआ कि वे भी कौतूहलवश या किसी से कुछ मिल जाने की आशा में ही आते थे। उनका तत्वज्ञान बढ़ा-चढ़ा था, न तपस्वी जैसी दिनचर्या थी। थोड़ी देर पास बैठने पर भी वे अपनी आवश्यकता व्यक्त करते थे। ऐसे लोग दूसरों को क्या देंगे, यह सोचकर सिद्ध पुरुषों की तलाश में अन्यों द्वारा जब-तब की गई यात्राएँ मजे की यात्रा भर रहीं, यही मानकर अपने कदम आगे बढ़ाते गए। यात्रियों को अध्यात्मिक संतोष समाधान तनिक भी नहीं होता होगा, यही सोचकर मन दुःखी रहा।

उनसे तो हमें चट्टियों पर दुकान लगाए हुए पहाड़ी दुकानदार अच्छे लगे। वे भोले और भले थे। आटा दाल, चावल आदि खरीदने पर वे पकाने के बर्तन बिना किराए लिए- बिना गिने ऐसे ही उठा देते थे। माँगने-जाँचने का कोई धन्धा उनका नहीं था। अक्सर चाय बेचते थे। बीड़ी, माचिस, चना, गुड़, सत्तू, आलू जैसी चीजें यात्रियों को उनसे मिल जाती थीं। यात्री श्रद्धालु तो होते थे, पर गरीब स्तर के थे। उनके काम की चीजें ही दुकानों पर बिकती थीं। कम्बल उसी क्षेत्र के बने हुए किराये पर रात काटने के लिए मिल जाते थे।

शीत ऋतु और पैदल चलना यह दोनों ही परीक्षाएं कठिन थीं। फिर उस क्षेत्र में रहने वाले साधु संन्यासी उन दिनों गरम इलाकों में गुजारे की व्यवस्था करने नीचे उतर आते हैं। जहाँ ठण्ड अधिक है वहाँ के ग्रामवासी भी पशु चराने नीचे के इलाकों में उतर आते हैं। गाँवों में- झोपड़ियों में सन्नाटा रहता है। ऐसी कठिन परिस्थितियों में हमें उत्तरकाशी से नन्दन वन तक की यात्रा पैदल चलकर पूरी करनी थी। हर दृष्टि से यह यात्रा बहुत कठिन थी।

स्थान नितान्त एकाकी। ठहरने खाने की कोई व्यवस्था नहीं, वन्य पशुओं का निर्भीक विचरण, यह सभी बातें काफी कष्टकर थीं। हवा उन दिनों काफी ठण्डी चलती थी। सूर्य ऊँचे पहाड़ों की छाया में छिपा रहने के कारण दस बजे के करीब दिखता है और दो बजे के करीब शिखरों के नीचे चला जाता है। शिखरों पर तो धूप दिखती है, पर जमीन पर मध्यम स्तर का अन्धेरा। रास्ते में कभी ही कोई भूला-भटका आदमी मिलता। जिन्हें कोई अति आवश्यक काम होता, किसी की मृत्यु हो जाती तो ही आने-जाने की आवश्यकता पड़ती। हर दृष्टि से वह क्षेत्र अपने लिए सुनसान था। सहचर के नाम पर थे, छाती में धड़कने वाला दिल या सोच विचार उठाने वाले सिर में अवस्थित मन। ऐसी दिशा में लम्बी यात्रा सम्भव है या असम्भव, यहाँ परीक्षा अपनी ली जा रही थी। हृदय ने निश्चय किया जितनी साँस चलनी है उतने दिन अवश्य चलेगी। तब तक कोई मारने वाला नहीं। मस्तिष्क कहता, वृक्ष वनस्पतियों में भी तो जीवन है। उन पर पक्षी रहते हैं। पानी में जलचर मौजूद हैं। जंगल में वन्य पशु फिरते हैं। सभी नंगे बदन सभी एकाकी। जब इतने सारे प्राणी इस क्षेत्र में निवास करते हैं तो तुम्हारे लिए सब कुछ सुनसान कैसा? अपने को छोटा मत बनाओ। जब “वसुधैव कुटुम्बकम्” की बात मानते हो तब इतने सारे प्राणियों के रहते, तुम अकेले कैसे? मनुष्यों को ही क्यों प्राणी मानते हो? यह जीव-जन्तु क्या तुम्हारे अपने नहीं? फिर सूनापन कैसा?

हमारी यात्रा चलती रही। साथ-साथ चिन्तन भी चलता रहा। एकाकी रहने में मन पर दबाव पड़ता है। क्योंकि वह सदा के समूह में रहने का अभ्यासी है। एकाकीपन से उसे डर लगता है। अन्धेरा भी डर का एक बड़ा कारण है। मनुष्य दिन भर प्रकाश में रहता है। रात्रि को बत्तियों का प्रकाश जला लेता है। जब नींद आती है तब बिलकुल अन्धेरा होता है। उसमें भी डरने का उतना कारण नहीं, जितना कि सुनसान के अंधेरे में होता है।

एकाकीपन में, विशेषतया अंधेरे में मनुष्य के मस्तिष्क को डर लगता है। योगी को इस डर से निवृत्ति पानी चाहिए। “अभय” को अध्यात्म का अति महत्वपूर्ण गुण माना गया है। वह न छूटे तो फिर उसे गृहस्थ को तरह सरंजाम जुटाकर- सुरक्षा का प्रबन्ध करते हुए रहना पड़ता है। मन की कच्चाई बनी ही रहती है।

दूसरा संकट हिमालय क्षेत्र के एकाकीपन में यह है कि उस क्षेत्र में वन्य जीवों विशेषतया हिंस्र पशुओं का डर लगता है। कोलाहल रहित क्षेत्र में ही वे विचरण करते हैं। रात्रि ही उनका भोजन तलाशने का समय है। दिन में प्रतिरोध का सामना करने का डर उन्हें भी रहता है।

रात्रि में, एकाकी, अंधेरे में हिंस्र पशुओं का मुकाबला होना एक संकट है। संकट क्या सीधी मौत से मुठभेड़ है। कोलाहल और भीड़ न होने पर हिंस्र पशु दिन में भी पानी पीने या शिकार तलाशने निकल पड़ते हैं। इन सभी परिस्थितियों का सामना हमें अपनी यात्रा में बराबर करना पड़ा।

यात्रा में जहाँ भी रात्रि बितानी पड़ी, वहाँ काले साँप रेंगते और मोटे अजगर फुफकारते बराबर मिलते रहे। छोटी जाति का सिंह उस क्षेत्र में अधिक होता है। उसमें फुर्ती बब्बर शेर की तुलना में अधिक होती है। आकार के हिसाब से ताकत उसमें कम होती है। इसलिए छोटे जानवरों पर हाथ डालता है। शाकाहारियों में आक्रमणकारी पहाड़ी रीछ होता है। शिवालिक की पहाड़ियों एवं हिमालय के निचले इलाके में इर्द-गिर्द जंगली हाथी भी रहते हैं। इन सभी की प्रकृति यह होती है कि आँखों से आंखें न मिले, उन्हें छेड़े जाने का भय न हो तो अपने रास्ते भी चले जाते हैं। अन्यथा तनिक भी भय या क्रोध का भाव मन में आने पर वे आक्रमण कर बैठते हैं।

अजगर, सर्प, बड़ी छिपकली (गोह), रीछ, तेन्दुए, चीते, हाथी, इनसे आये दिन यात्री को कई-कई बार पाला पड़ता है। समूह को देखकर वे रास्ता बचाकर निकल जाते हैं। पर जब कोई मनुष्य या पशु अकेला सामने से आता है तो वे बचते नहीं। सीधे रास्ते चलते जाते हैं। ऐसी दशा में मनुष्य को ही उनके लिए रास्ता छोड़ना पड़ता है। अन्यथा मुठभेड़ होने पर आक्रमण एक प्रकार से निश्चित ही समझना चाहिए।

ऐसे आमने सामने दिन और रात में मिलाकर दस से बीस बार मुकाबला हो जाता था। अकेला आदमी देखकर वे निर्भय होकर चलते थे और रास्ता नहीं छोड़ते थे। उनके लिए हमें ही बचना पड़ता था। यह घटनाक्रम लिखने और पड़ने में तो सरल है पर व्यवहार में ऐसा वास्ता पड़ना अति कठिन है। कारण कि वे साक्षात मृत्यु के रूप में सामने आते थे, कभी-कभी साथ चलते या पीछे-पीछे चलते थे। शरीर को मौत सबसे डरावनी लगती है। हिंस्र पशु अथवा जिनकी आक्रमणकारी प्रकृति होती है ऐसे जंगली नर-नील गाय भी आक्रमणकारी होते हैं। भले ही वे आक्रमण न करें पर डर इतना ही लगता कि साक्षात् मौत के मुँह में जाने की घड़ी आ गई। जब तब कोई वास्ता पड़े तो एक बात भी है। पर प्रायः हर घण्टे एक बार मौत से भेंट होना और हर बार प्राण जाने का डर लगना, अत्यधिक कठिन परिस्थितियों का सामना करने की बात थी। दिल धड़कना आरम्भ होता। जब तक वह धड़कन बंद न हो पाती, तब तक दूसरी नई मुसीबत सामने आ जाती और फिर नये सिरे से दिल धड़कने लगता। वे लोग एकाकी नहीं होते थे। कई-कई के झुण्ड सामने आ जाते। यदि हमला करते तो एक-एक बोटी नोंच ले जाते एवं कुछ ही क्षणों में अपना अस्तित्व समाप्त हो जाता।

किंतु यहाँ भी विवेक समेटना पड़ा, साहस संजोना पड़ा। मौत बड़ी होती है पर जीवन से बड़ी नहीं होती। अभय और मैत्री भीतर हो तो हिंसकों की हिंसा भी ठण्डी पड़ जाती है और अपना स्वभाव बदल जाती है। पूरी यात्रा में प्रायः तीन चार सौ की संख्या में ऐसे डरावने मुकाबले हुए। पर गड़बड़ाने वाले साहस को हर बार संभालना पड़ा। मैत्री और निश्चिंतता की मुद्रा बनानी पड़ी। मृत्यु के सम्बन्ध में सोचना पड़ा कि उसका भी एक समय होता है। यदि यहीं-इसी प्रकार जीवन की इतिश्री होनी है तो फिर उसका डरते हुए क्यों? हँसते हुए ही सामना क्यों न किया जाय? यही विचार उठे तो नहीं पर बल पूर्वक उठाने पड़े। पूरा रास्ता डरावना था। एकाकीपन- अंधेरे और मृत्यु के दूत मिल-जुलकर डराने का प्रयत्न करते रहे और वापस लौट चलने की सलाह देते रहे। पर संकल्प शक्ति साथ देती रही और यात्रा आगे बढ़ती रही।

परीक्षा का एक प्रश्न पत्र यह था कि सुनसान का- अकेलेपन का डर लगता है क्या? कुछ ही दिनों में दिल मजबूत हो गया और उस क्षेत्र में रहने वाले प्राणी अपने लगने लगे। डर न जाने कहाँ चला गया। सूनापन सुहाने लगा। मन ने कहा प्रथम प्रश्न पत्र में उत्तीर्ण होने का सिलसिला चल पड़ा। आगे बढ़ने पर जो असमंजस होता है वह भी अब न रहेगा।

दूसरा प्रश्न पत्र था, शीत ऋतु का। सोचा कि जब मुँह, नाक, आंखें, शिर, कान, हाथ खुले रहते हैं, अभ्यास से इन्हें शीत नहीं लगती तो तुम्हें ही क्यों लगनी चाहिए।

उत्तरी ध्रुव, नार्वे, फिनलैण्ड में हमेशा शून्य से नीचे तापमान रहता है। वहाँ एस्किमो तथा दूसरी जाति के लोग रहते हैं, तो इधर तो दस बारह हजार फुट की ही ऊँचाई है। यहाँ ठण्ड से बचने के उपाय ढूंढ़े जा सकते हैं। वे उधर के एक निवासी से मालूम भी हो गये। पहाड़ ऊपर ठण्डे रहते हैं पर उनमें जो गुफाएँ पाई जाती हैं वे अपेक्षाकृत गरम होती हैं। कुछ खास किस्म की झाड़ियां ऐसी होती हैं जो हरी होने पर भी जल जाती हैं। लांगडा, मार्चा आदि शाकों की पत्तियाँ जंगलों में उगी होती हैं, वे कच्ची भी खाई जा सकती हैं। भोजपत्र के तने पर उठी हुई गाँठों को उबाल लिया जाय तो ऐसी चाय बन जाती है, जिनसे ठण्डक दूर हो सके। पेट में घुटने और सिर लगाकर उंकडूं बैठ जाने पर भी ठण्डक कम लगती है। मानने पर ठण्डक अधिक लगती है। बच्चे थोड़े से कपड़ों में कहीं भी भागे-भागे फिरते हैं। उन्हें कोई हैरानी नहीं होती। ठण्ड मानने भर की है। उसमें अनभ्यस्त बूढ़े बीमारों की तो नहीं कहते, अन्यथा जवान आदमी ठण्डक से नहीं मर सकता। बात यह भी समझ में आ गई और इन सब उपायों को अपना लेने पर ठण्डक भी सहन होने लगी। फिर एक और बात है कि- ठण्डक-ठण्डक रटने की अपेक्षा मन में कोई और उत्साह भरा चिन्तन बिठा लिया जाय, तो भी काम चल जाता है। इतनी महत्वपूर्ण शिक्षाऐं उस क्षेत्र की समस्याओं का सामना करने के हल निकल आये।

बात वन्य पशुओं की- हिंस्र जन्तुओं की फिर रह गई। वे प्रायः रात को ही निकलते हैं, उनकी आंखें चमकती हैं। फिर मनुष्य से सभी डरते हैं, शेर भी। यदि स्वयं उनसे डरा न जाय उन्हें छेड़ा न जाय तो मनुष्य पर आक्रमण नहीं करते, उनके मित्र ही बनकर रहते हैं।

प्रारंभ में हमें इस प्रकार का डर लगता था। फिर सरकस के सिखाने वालों की बात याद आई। वे उन्हें कितने करतब सिखा लेते हैं। तंजानिया की एक यूरोपियन महिला का वृत्तान्त पढ़ा था “बॉर्न फ्री”, जिसका पति वन विभाग का कर्मचारी था। उसकी स्त्री ने पति द्वारा माँ-बाप से बिछुड़े दो शेर के बच्चे पाल रखे थे। और वे जवान हो जाने पर भी उसकी गोद में सोते रहते थे। अपने मन में यदि वजनदार निर्भयता या प्रेम भावना हो तो घने जंगलों में आनन्द से रहा जा सकता है। वनवासी भील लोग अक्सर उसी क्षेत्र में रहते हैं जिसमें हिंस्र पशु रहते हैं। उन्हें न डर लगाता है और न जोखिम दिखता है। ऐसे-ऐसे उदाहरणों को स्मृति में रखते-रखते निर्भयता आ गई और विचारा कि एक दिन वह आयेगा, जब हम वन में कुटी बनाकर रहेंगे और गाय शेर एक घाट पर पानी पिया करेंगे।

मन कमजोर भी है और मना लिए जाने पर समर्थ भी। हमने उस क्षेत्र में पहुँचकर यात्रा जारी रखी और मन में से भय निकाल दिया। अनुकूल परिस्थिति की अपेक्षा करने के स्थान पर मनःस्थिति को मजबूत बनाने की बात सोची। इस दिशा में मन को ढालते चले गए और प्रतिकूलताएँ जो आरम्भ में बड़ी डरावनी लगती थीं, अब बिल्कुल सरल और स्वाभाविक सी लगने लगीं।

मन की कुटाई, पिटाई और ढलाई करते-करते वह बीस दिन की यात्रा में काबू में आ गया। वह क्षेत्र ऐसा लगने लगा मानों हम यहीं पैदा हुए हैं और यही मरना है।

गंगोत्री तक राहगीरों का बना हुआ भयंकर रास्ता है। गोमुख तक के लिए उन दिनों एक पगडण्डी थी। इसके बाद कठिनाई थी। तपोवन काफी ऊँचाई पर है। रास्ता भी नहीं है। अन्तः प्रेरणा या भाग्य भरोसे चलना पड़ता है। तपोवन का पठार चौरस है। फिर पहाड़ियों की एक ऊँची श्रृंखला है। इसके बाद नन्दन वन आता है। हमें यहीं बुलाया गया था। समय पर पहुँच गये। देखा तो गुरुदेव खड़े थे। प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। हमारी का भी- और उनका भी। वे पहली बार हमारे घर गए थे, इस बार हम उनके यहाँ आए। यह सिलसिला जीवन भर चलता रहे तो ही इस बँधे सूत्र की सार्थकता है।

तीन परीक्षाएँ इस बार होनी थी बिना साथी के काम चलाना-ऋतुओं के प्रकोप की तितीक्षा सहना- हिंस्र पशुओं के साथ रहते हुए विचलित न होना तीनों में ही अपने को उत्तीर्ण समझा और परीक्षक ने वैसा ही माना।

बात-चीत का सिलसिला तो थोड़े ही समय में पूरा हो गया। “अध्यात्मिक शक्ति प्राप्त करने के लिए प्रचण्ड मनोबल सम्पादित करना- प्रतिकूलताओं को दबोच कर अनुकूलता में ढाल लेना- सिंह व्याघ्र तो क्या मौत से भी न डरना, ऋषि कल्प आत्माओं के लिए तो यह स्थिति नितान्त आवश्यक है। तुम्हें ऐसी ही परिस्थितियों के बीच अपने जीवन का बहुत-सा भाग गुजारना है।”

उस समय की बात समाप्त हो गई। जिस गुफा में उनका निवास था, वहाँ तक ले गए। इशारे में बताये हुए स्थान पर सोने का उपक्रम किया तो वैसा ही किया। इतनी गहरी नींद आई कि नियम क्रम की अपेक्षा दूना तीन गुना समय लग गया हो तो कोई आश्चर्य नहीं। रास्ते की सारी थकान इस प्रकार दूर हो गई, मानों कहीं चलना ही नहीं पड़ा था।

वहीं बहते निर्झर में स्नान किया। सन्ध्या वन्दन भी। जीवन में पहली बार ब्रह्म कमल और देवकन्द देखा। ब्राह्मी कमल ऐसा जिसकी सुगन्ध थोड़ी देर में ही नींद कहें या योग निद्रा ला देती है। देवकन्द वह जो जमीन में शकरकंद की तरह निकलता है। सिंघाड़े जैसे स्वाद का। पका होने पर लगभग पाँच सेर का, जिससे एक सप्ताह तक क्षुधा निवारण का क्रम चल सकता है। गुरुदेव के यही दो प्रथम प्रत्यक्ष उपहार थे। एक शारीरिक थकान मिटाने के लिए और दूसरा मन में उमंग भरने के लिए।

इसके बाद तपोवन पर दृष्टि दौड़ाई। पूरे पठार पर मखमली फूलदार गलीचा-सा बिछा हुआ था। तब तक भारी बर्फ नहीं पड़ी थी। जब पड़ती है तब यह फूल सभी पककर जमीन पर फैल जाते हैं, अगले वर्ष उगने के लिए।

अब कल से छूटी हुई वार्ता आरम्भ हुई। कम समय में ही इतना सारगर्भित सुनने को मिला, कि यहाँ पहुँचने के सुयोग को हर दृष्टि से कृत-कृत्य माना।


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