बड़ी प्रशंसा सुनी (kahani)

April 1985

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स्वामी रामतीर्थ ने एक सिद्ध पुरुष की बड़ी प्रशंसा सुनी। वे उससे मिलने दुर्गम स्थान में पहुँचे।

आग्रह करके उनकी साधना सिद्धि की बात पूछी। उनने दो करामात दिखाई। एक नदी के जल पर चलने की दूसरी आसमान में दूर तक उड़ने की।

कौतूहल तो बहुत हुआ पर रामतीर्थ का समाधान न हुआ। उनने कहा- भगवान् यह काम तो मछली और बतख भी कर सकती हैं। इतने भर कर लेने से क्या प्रयोजन हुआ। जनहित के लिये इतना श्रम किया गया होता तो उससे अपना और दूसरों का कितना कल्याण होता। सिद्ध पुरुष निरुत्तर थे। रामतीर्थ वस्तुस्थिति से अवगत हो वापस लौट आये।

महाभारत के दिनों रात्रि के समय आक्रमण नहीं होते थे और विरोधी दल के लोग भी आपस में मिल-जुल लेते थे।

एक रात्रि को दुर्योधन युधिष्ठिर के पास अपनी कुछ समस्याओं का हल पूछने गया। वह जानता था, उनसे सही सलाह ही मिल सकती है।

दुर्योधन ने पूछा- हमारे दल में भीष्म पितामह जैसे मूर्धन्य सेनापति हैं। फिर भी हम हारते जाते हैं और पाण्डव जीतते हैं। लगता है हमारे सेनापति सच्चे मन से नहीं लड़ते।

युधिष्ठिर ने कहा- आप ठीक कहते हैं। नीति और अनीति का विचार हर किसी का उत्साह बढ़ाता तथा घटाता है। आपके दल के सैनिक यह अनुभव करते हैं कि वे अनीति के पक्ष में लड़ रहे हैं। इसलिए सहज ही उनका पराक्रम शिथिल पड़ जाता है। जबकि पाण्डव दल के लोग न्याय समर्थन की बात ध्यान में रहने से सच्चे मन से लड़ते हैं।

दुर्योधन निरुत्तर हो गया। उसने पलटकर फिर पूछा- ‘कि क्या कोई ऐसी तरकीब है कि हमारे सेनापति आत्मा की आवाज न सुनें और पूरे जोश से लड़ने लगें।’

युधिष्ठिर ने इसका समाधान भी बता दिया। इन लोगों को नियत वेतन के अतिरिक्त ऐसा भोजन कराया जाय तो अनीति से कमाया और मुफ्त में खिलाया गया हो।

दुर्योधन को यह बात जंच गई। उसने अधिक पाप से अर्जित धन निकाला और उसके व्यंजन बना-बनाकर खिलाना आरम्भ कर दिया। अब वे लोग अधिक उत्साह के साथ लड़ने लगे। आत्मा की पुकार अनीति के धन ने शिथिल कर दी। अन्न के साथ मन का सम्बन्ध कितना प्रगाढ़ है, यह इस घटना से जाना जा सकता है।


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