शान्तिकुंज- गायत्री तीर्थ

April 1985

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मथुरा से प्रयाण के बाद हिमालय से 6 माह बाद ही हम हरिद्वार उस स्थान पर लौट आए, जहाँ निर्धारित स्थान पर शाँतिकुंज के एक छोटे से भवन में माताजी व उनके साथ रहने वाली कन्याओं के रहने योग्य निर्माण हम पूर्व में करा चुके थे। अब और जमीन लेने के उपरान्त पुनः निर्माण कार्य आरम्भ किया। इच्छा ऋषि आश्रम बनाने की थी। सर्वप्रथम अपने लिए, सहकर्मियों के लिए, अतिथियों के लिए निवास स्थान और भोजनालय बनाया गया।

यह आश्रम ऋषियों का-देवात्मा हिमालय का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए उत्तराखण्ड का गंगा का प्रतीक देवालय यहाँ बनाया गया। इसके अतिरिक्त सात प्रमुख तथा अन्यान्य वरिष्ठ ऋषियों की प्रतिभाओं की स्थापना का प्रबन्ध किया गया। आद्य शक्ति गायत्री का मंदिर तथा जल कूपों का निर्माण कराया गया, प्रवचन कक्ष का भी। इस निर्माण में प्रायः दो वर्ष लग गये। अब निवास के योग्य आवश्यक व्यवस्था हो गई तब हम और माताजी ने नव निर्मित शाँतिकुंज को अपनी तपःस्थली बनाया। साथ में अखण्ड-दीपक भी था। उसके लिए एक कोठरी और गायत्री प्रतिमा की स्थापना करने के लिए सुविधा पहले ही बन चुकी थी।

इस बंजर पड़ी भूमि के प्रसुप्त पड़े संस्कारों को जगाने के लिए 24 लाख के 24 अखण्ड पुरश्चरण कराये जाने थे। इसके लिए 9 कुमारियों का प्रबन्ध किया गया। प्रारम्भ में चार घण्टे दिन में, चार घण्टे रात्रि में इनकी ड्यूटी थी। बाद में इनकी संख्या 27 हो गयी। तब समय कम कर दिया गया। इन्हें दिन में माताजी पढ़ाती थीं। छः वर्ष उपरान्त इन सब को ग्रेजुएट- पोस्ट ग्रेजुएट स्तर की पढ़ाई आरम्भ कर दी गई। बीस और पच्चीस वर्ष की आयु के मध्य इन सबके सुयोग्य घरों और वरों के साथ विवाह कर दिये गये।

इसके पूर्व संगीत और प्रवचन का अतिरिक्त प्रशिक्षण क्रम भी चलाया गया। देश व्यापी नारी जागरण के लिए इन्हें मोटर गाड़ियों में पाँच-पाँच के जत्थे बनाकर भेजा गया। तब तक पढ़ने वाली कन्याओं की संख्या 100 से ऊपर हो गई थी। इनके दौरे का देश के नारी समाज पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा।

हरिद्वार से ही तेजस्वी कार्यकर्ताओं को ढालने का कार्य हाथ में लिया गया। इसके लिए प्राण प्रत्यावर्तन सत्र, एक-एक मास के युग शिल्पी सत्र एवं वानप्रस्थ सत्र भी लगाये गए। सामान्य उपासकों के लिए छोटे-बड़े गायत्री पुरश्चरणों की श्रृंखला भी चल पड़ी। गंगा का तट, हिमालय की छाया, दिव्य वातावरण, प्राणवान मार्गदर्शन जैसी सुविधाओं को देखकर पुरश्चरण कर्ता भी सैकड़ों की संख्या में निरन्तर आने लगे। पूरा समय देने वाले वानप्रस्थों का प्रशिक्षण भी अलग से चलता रहा। दोनों प्रकार के साधकों के लिए भोजन का प्रबन्ध किया गया।

यह नई संख्या निरन्तर बढ़ती जाने लगी। ऋषि परम्परा को पुनर्जीवित करने के लिए इसकी आवश्यकता भी थी कि सुयोग्य आत्मदानी पूरा समय देकर हाथ में लिये हुए महान कार्य की पूर्ति के लिए आवश्यक आत्म बल संग्रह करें और उसके उपरान्त व्यापक कार्यक्रमों में जुट पड़े।

बढ़ते हुए कार्य को देखकर गायत्री नगर में 240 क्वार्टर बनाने पड़े। एक हजार व्यक्तियों के प्रवचन में सम्मिलित हो सकने जितने बड़े आकार का प्रवचन हाल बनाना पड़ा। इस भूमि को अधिक संस्कारवान बनाना पड़ा। इस भूमि को अधिक संस्कारवान बनाना था। इसलिए नौ कुण्ड की यज्ञशाला में प्रातःकाल दो घण्टे यज्ञ किए जाने की व्यवस्था की, और आश्रम में स्वामी निवासियों तथा पुरश्चरण कर्ताओं का औसत जप इस अनुपात से निर्धारित किया गया कि हर दिन 24 लक्ष गायत्री महापुरश्चरण सम्पन्न होता रहे। आवश्यक कार्यों के लिए एक छोटा प्रेस भी लगाना पड़ा। इन सब कार्यों के लिए निर्माण कार्य अब तक एक प्रकार से बराबर ही चलता रहा। इसी बीच ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान के लिए भव्य भवन बनाना आरम्भ कर दिया था। इस सारे निर्माण में प्रायः चार वर्ष लग गए। इसी बीच वे कार्य आरम्भ कर दिये गए जिन्हें सम्पन्न करने से ऋषि परम्परा का पुनर्जीवन हो सकता था। जैसे-जैसे सुविधा बनती गई, वैसे-वैसे नये कार्य हाथ में लिये गये और कहने योग्य प्रगति स्तर तक पहुँचाये गये।

भगवान बुद्ध ने नालन्दा तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय स्तर के बिहार बनाये थे और उनमें प्रशिक्षित करके कार्यकर्ता देश के कोने-कोने में तथा विदेशों में भेजे गये थे। धर्मचक्र प्रवर्तन की योजना तभी पूरी हो सकी थी।

भगवान आद्य शंकराचार्य ने देश के चार कोनों पर चार धाम बनाये थे और उनके माध्यम से देश में फैले हुए अनेक मत मतान्तरों को एक सूत्र में पिरोया था। दोनों ने अपने-अपने कार्य क्षेत्रों में एक कुम्भ स्तर के बड़े सम्मेलन समारोहों की व्यवस्था की थी ताकि जो ऋषियों के मुख्य-मुख्य सन्देश हों, वे आगन्तुकों द्वारा घर-घर पहुँचाये जा सकें।

इन दोनों के ही क्रिया-कलापों को हाथ में लिया गया। निश्चय किया गया कि गायत्री शक्ति पीठों, प्रज्ञा संस्थानों के नाम से देश के कोने-कोने में भव्य देवालय एवं कार्यालय बनाये जांय, जहाँ केन्द्र बनाकर समीपवर्ती क्षेत्रों में वे काम किये जा सकें, जिनको प्रज्ञा मिशन का प्रण संकल्प कहा जा सके।

बात असम्भव लगती थी। किंतु प्राणवान परिजनों को शक्ति पीठ निर्माण के संकल्प दिये गये तो 2400 भवन दो वर्ष के भीतर बन गये। उस क्षेत्र के कार्यकर्ता उसे केन्द्र मानकर युग चेतना का आलोक वितरण करने और घर-घर अलख जगाने के काम में जुट पड़े। यह एक इतना बड़ा और इतना अद्भुत कार्य है जिसकी तुलना में ईसाई मिशनरियों के द्वारा किये गए निर्माण कार्य भी फीके पड़ जाते हैं। हमारे निर्माणों में जन-जन का अल्पाँश लगा है अतः वह सबको अपना लगता है, जबकि चर्च, अन्यान्य बड़े मंदिर बड़ी धनराशियों से बनाए जाते हैं।

इसके अतिरिक्त चल प्रज्ञापीठों की योजना बनी। एक कार्यकर्ता एक संस्था चला सकता है। यह चल गाड़ियां हैं। इन्हें कार्यकर्ता अपने नगर तथा समीपवर्ती क्षेत्रों में धकेल कर ले जाते हैं। पुस्तकों के अतिरिक्त आवश्यक सामान भी उसकी कोठी में भरा रहता है। यह चल पुस्तकालय अपेक्षाकृत अधिक सुविधाजनक रहे, इसलिए वे दो वर्ष में 12 हजार की संख्या में बन गये। स्थिर प्रज्ञा पीठों और चल प्रज्ञा संस्थानों के माध्यम से हर दिन प्रायः एक लाख व्यक्ति इनसे प्रेरणा प्राप्त करते हैं।

इसके अतिरिक्त उपरोक्त हर संस्था का वार्षिकोत्सव करने का निश्चय किया गया जिसमें उस क्षेत्र के न्यूनतम एक हजार कार्यकर्ता एकत्रित हों। चार दिन सम्मेलन चले। नये वर्ष का सन्देश सुनाने के लिए हरिद्वार से प्रचारक मण्डलियाँ कन्याओं की टोलियों के समान ही भेजने का प्रबन्ध किया गया, जिनमें 4 गायक और एक वक्ता भेजे गये। पाँच प्रचारकों की टोली के लिए जीप गाड़ियों का प्रबन्ध करना पड़ा ताकि कार्यकर्ताओं के बिस्तर, कपड़े संगीत उपकरण, लाउडस्पीकर आदि सभी सामान भली प्रकार जा सके। ड्राइवर भी अपना ही कार्यकर्ता होता है ताकि वह भी छठे प्रचारक का काम दे सके। अब हर प्रचारक को जीप व कार ड्राइविंग सिखाने की व्यवस्था की गई है, ताकि इस प्रयोजन के लिए बाहर के आदमी न तलाशने पड़े।

मथुरा रहकर महत्वपूर्ण साहित्य लिखा जा चुका था। हरिद्वार आकर प्रज्ञा पुराण का मूल उपनिषद् पक्ष संस्कृत व कथा टीका सहित हिन्दी में 18 खण्डों को लिखने का निश्चय किया गया। इसके अतिरिक्त एक फोल्डर आठ पेज का नित्य लिखने का निश्चय किया गया जिनके माध्यम से सभी ऋषियों की कार्यपद्धति से सभी प्रज्ञा पुत्रों को अवगत कराया जा सके और उन्हें करने में संलग्न होने की प्रेरणा मिल सके। अब तक इस प्रकार के 400 फोल्डर लिखे जा चुके हैं। लक्ष्य एक हजार का है। उसको भारत की अन्य भाषाओं में अनुवाद कराने का प्रबन्ध चल पड़ा है।

देश की सभी भाषाओं और सभी मत-मतान्तरों को पढ़ाने और उनके माध्यम से हर क्षेत्र में कार्यकर्ता तैयार करने के लिए एक अलग भाषा एवं धर्म विद्यालय शान्तिकुँज में ही इसी वर्ष बनकर तैयार हुआ है और ठीक तरह चल रहा है।

उपरोक्त कार्यक्रमों को लेकर जो भी कार्यकर्ता देशव्यापी दौरा करते हैं, वे मिशन के प्रायः 10 लाख कार्यकर्ताओं में उन क्षेत्रों में प्रेरणाऐं भरने का काम करते हैं, जहाँ वे जाते हैं। उत्तरप्रदेश, राजस्थान, बिहार, मध्यप्रदेश, हिमाँचल प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, गुजरात एवं उड़ीसा इन क्षेत्रों में संगठन पूरी तरह सुव्यवस्थित हो गया है। अब देश का जो भाग प्रचार क्षेत्र में भाषा व्यवधान के कारण सम्मिलित करना नहीं बन पड़ा है उन्हें भी एकाध वर्ष में पूरी कर लेने की योजना है।

प्रवासी भारतीय प्रायः 74 देशों में बिखरे हुए हैं। उनकी संख्या भी तीन करोड़ के करीब हैं। उन तक व अन्य देशवासियों तक मिशन के विचारों को फैलाने की योजना बड़ी सफलता पूर्वक आरम्भ हुई है। आगे चलकर कई सुयोग्य कार्यकर्ताओं के माध्यम से कई राष्ट्रों में प्रज्ञा आलोक पहुँचाना सम्भव बन पड़ेगा। कदाचित ही कोई देश अब ऐसा शेष रहा हो जहाँ प्रवासी भारतीय रहते हों और मिशन का संगठन न बना हो।

ऊपर की पंक्तियों में ऋषियों की कार्य पद्धति को जहाँ जिस प्रकार व्यापक बनाना सम्भव हुआ है वहाँ उसके लिए प्रायः एक हजार आत्मदानी कार्यकर्ता निरन्तर कार्यरत रहकर काम कर रहे हैं। इसके लिए ऋषि जमदग्नि का गुरुकुल आरण्यक यहाँ नियमित रूप से चलता है।

चरक परम्परा का पुनरुद्धार किया गया है। दुर्लभ जड़ी-बूटियों का शाँतिकुँज में उद्यान लगाया गया है। और उनमें हजारों वर्षों में क्या अंतर आया है, यह बहुमूल्य मशीनों से जाँच पड़ताल की जा रही है। एक औषधि का एक बार में प्रयोग करने की एक विशिष्ट पद्धति यहाँ क्रियान्वित की जा रही है, जो अत्यधिक सफल हुई है।

युग शिल्पी विद्यालय के माध्यम से सुगम संगीत की शिक्षा हजारों व्यक्ति प्राप्त कर चुके हैं और अपने-अपने यहाँ ढपली जैसे छोटे से माध्यम द्वारा संगीत विद्यालय चलाकर युग गायक तैयार कर रहे हैं।

पृथ्वी अंतर्ग्रही वातावरण से प्रभावित होती है। उसकी जानकारी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। हर पाँच हजार वर्ष पीछे ज्योतिष गणित को सुधारने की आवश्यकता होती है। आर्यभट्ट की इस विद्या को नूतन जीवन प्रदान करने के लिए प्राचीन काल के उपकरणों वाली समग्र वेधशाला विनिर्मित की गई है। और नैप्च्यून, प्लेटो, यूरेनस ग्रहों के वेध समेत हर वर्ष दृश्य गणित पंचाँग प्रकाशित होता है। यह अपने ढंग का एक अनोखा प्रयोग है।

अब प्रकाश चित्र विज्ञान का नया कार्य हाथ में लिया गया है। अब तक सभी संस्थानों में स्लाइड प्रोजेक्टर पहुँचाये गये थे। उन्हीं से काम चल रहा था। अब वीडियो क्षेत्र में प्रवेश किया गया है। उनके माध्यम से कविताओं के आधार पर प्रेरक फिल्में बनायी जा रही हैं। देश के विद्वानों, मनीषियों मूर्धन्यों नेताओं के दृश्य प्रवचन टैप कराकर उनकी छवि समेत सन्देश घर-घर पहुँचाये जा रहे हैं। भविष्य में मिशन के कार्यक्रमों को उद्देश्य, स्वरूप और प्रयोग समझाने वाली फिल्में बनाने की बड़ी योजना है जो जल्दी ही कार्यान्वित होने जा रही है।

शाँतिकुँज मिशन का सबसे महत्वपूर्ण सृजन है “ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान”। इस प्रयोगशाला द्वारा अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय करने के लिए बहुमूल्य यन्त्र उपकरणों वाली प्रयोगशाला बनाई गई है। कार्यकर्त्ताओं में आधुनिक आयुर्विज्ञान एवं पुरातन आयुर्वेद विद्या के ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट हैं। विज्ञान की अन्य विधाओं में निष्णात उत्साही कार्यकर्ता हैं, जिनकी रुचि अध्यात्म परक है। इसमें विशेष रूप से यज्ञ विज्ञान पर शोध की जा रही है। इस आधार पर यज्ञ विज्ञान की शारीरिक, मानसिक रोगों की निवृत्ति में-पशुओं और वनस्पतियों के लिए लाभदायक सिद्ध करने में, वायुमण्डल और वातावरण के संशोधन में इसकी उपयोगिता जाँची जा रही है, जो अब तक बहुत ही उत्साह वर्धक सिद्ध हुई है।

यहाँ सभी सत्रों में आने वालों की स्वास्थ्य परीक्षा की जाती है। उसी के अनुरूप उन्हें साधना करने का निर्देश दिया जाता है। अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय पर इस प्रकार शोध करने वाली विश्व की यह पहली एवं स्वयं में अनुपम प्रयोगशाला है।

इसके अतिरिक्त भी सामयिक प्रगति के लिए जनसाधारण को जो प्रोत्साहन दिए जाने हैं उनकी अनेकों शिक्षाऐं यहीं दी जाती हैं। अगले दिनों और भी बड़े काम हाथ में लिए जाने हैं।

गायत्री परिवार के लाखों व्यक्ति उत्तराखण्ड की यात्रा करने के लिए जाते समय शांतिकुँज के दर्शन करते हुए यहाँ की रज मस्तिष्क पर लगाते हुए तीर्थयात्रा आरम्भ करते हैं। बच्चों के अन्न प्राशन, नामकरण संस्कार, मुंडन, यज्ञोपवीत आदि संस्कार यहाँ आकर कराते हैं। क्योंकि परिजन इसे सिद्धपीठ मानते हैं। पूर्वजों के श्राद्ध तर्पण कराने का भी यहाँ प्रबन्ध है। जन्मदिन, विवाह दिन मनाने हर वर्ष प्रमुख परिजन यहाँ आते हैं। बिना दहेज की शादियाँ हर वर्ष यहाँ व तपोभूमि में होती हैं। इससे परिजनों को सुविधा भी बहुत रहती है, इस खर्चीली कुरीति से भी पीछा छूटता है।

जब पिछली बार हम हिमालय गये थे और हरिद्वार जाने और शान्तिकुँज रहकर ऋषियों की कार्य पद्धति को पुनर्जीवन देने का काम हमें सौंपा गया था तक यह असमंजस था कि कितना बड़ा कार्य हाथ में लेने में न केवल विपुल धन की आवश्यकता है, वरन् इसमें कार्यकर्ता भी उच्च श्रेणी के चाहिए। वे कहाँ मिलेंगे? सभी संस्थाओं के पास वेतन भोगी हैं। वे भी चिन्ह पूजा करते हैं। हमें ऐसे जीवनदानी कहाँ से मिलेंगे? पर आश्चर्य है कि शान्तिकुँज में ब्रह्मवर्चस में इन दिनों रहने वाले कार्यकर्ता ऐसे हैं जो अपनी बड़ी-बड़ी पोस्टों से स्वेच्छा से त्यागपत्र देकर आए हैं। सभी ग्रेजुएट पोस्ट ग्रेजुएट स्तर के अथवा प्रखर प्रतिभा सम्पन्न हैं। इनमें से कुछ तो मिशन के चौके में भोजन करते हैं। कुछ उसकी लागत भी अपनी जमा धनराशि के ब्याज से चुकाते रहते हैं। कुछ के पास पेन्शन आदि का प्रबन्ध भी है। भावावेश में आने जाने वालों का क्रम चलता रहता है पर जो मिशन के सूत्र संचालक व मूलभूत उद्देश्य को समझते हैं, वे स्थायी बनकर टिकते व काम करते हैं। खुशी की बात है कि ऐसे भावनाहीन नैष्ठिक परिजन सतत आते व संस्था से जुड़ते चले जा रहे हैं।

गुजारा अपनी जेब से एवं काम दिन-रात स्वयंसेवक की तरह मिशन का ऐसा उदाहरण अन्य संस्थाओं में चिराग लेकर ढूंढ़ना पड़ेगा। यह सौभाग्य मात्र शांतिकुंज को मिला है कि उसे पास एम.ए., एम.एस.सी., एम.डी., एम.एस., पी.एच.डी. आयुर्वेदाचार्य, संस्कृत आचार्य स्तर के कार्यकर्ता हैं। उनकी नम्रता, सेवा भावना, श्रमशीलता एवं निष्ठा देखते ही बनती है। जबकि वरीयता योग्यता एवं प्रतिभा को दी जाती है, डिग्री को नहीं, ऐसा परिकर जुड़ना इस मिशन का बहुत बड़ा सौभाग्य है।

जो काम अब तक हुआ है उसमें पैसे की याचना ही करनी पड़ी। मालवीय जी का मन्त्र मुट्ठी भर अन्न और दस पैसा नित्य देने का सन्देश मिल जाने से ही इतना बड़ा कार्य सम्पन्न हो गया। आगे इसकी और भी प्रगति होने की सम्भावना है। हम जन्मभूमि छोड़कर आए, वहाँ हाईस्कूल- फिर इण्टर कालेज एवं अस्पताल चल पड़ा। मथुरा का कार्य हमारे सामने की अपेक्षा उत्तराधिकारियों द्वारा दूना कर दिया गया है। हमारे हाथ का कार्य क्रमशः अब दूसरे समर्थ व्यक्तियों के कन्धों पर जा रहा है। पर मन में विश्वास है कि वह घटेगा नहीं। ऋषियों का जो कार्य आरम्भ करना और बढ़ाना हमारे जिम्मे था, वह अगले दिनों घटेगा नहीं, प्रज्ञावतार की अवतरण बेला में मत्स्यावतार की तरह बढ़ता-फैलता ही चला जाएगा।


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