तीनों कार्यक्रमों का प्राण-पण से निर्वाह

April 1985

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हमें प्रथम साक्षात्कार के समय मार्गदर्शक सत्ता द्वारा तीन कार्यक्रम दिए गये थे। सभी नियमोपनियमों के साथ 24 वर्ष का 24 गायत्री महापुरश्चरण सम्पन्न किया जाना था। अखण्ड घृत दीपक को भी साथ-साथ निभाना था। अपनी पात्रता में क्रमशः कमी पूरी करने के साथ लोक-मंगल की भूमिका निभाने हेतु साहित्य सृजन करना दूसरा महत्वपूर्ण दायित्व था। इसके लिए गहन स्वाध्याय भी करना था, जो एकाग्रता सम्पादन की साधना थी। साथ ही जन-संपर्क का कार्य भी करना था ताकि भावी कार्य क्षेत्र को दृष्टिगत रखते हुए हमारी संगठन क्षमता विकसित हो। तीसरा महत्वपूर्ण दायित्व था स्वतन्त्रता संग्राम में एक स्वयंसेवी सैनिक की भूमिका निभाना। देखा जाय तो सभी दायित्व शैली एवं स्वरूप की दृष्टि से परस्पर विरोधी थे। किन्तु साधना एवं स्वाध्याय की प्रगति में इनमें से कोई बाधक नहीं बने। जबकि इस बीच हमें दो बार हिमालय भी जाना पड़ा। अपितु सभी साथ-साथ सहज ही ऐसे सम्पन्न होते चले गये कि हमें स्वयं इनके क्रियान्वयन पर अब आश्चर्य होता है। इसका श्रेय उस दैवी मार्गदर्शक सत्ता को जाता है जिसने हमारे जीवन की बागडोर प्रारम्भ से ही अपने हाथों में ले ली थी एवं सतत् संरक्षण का आश्वासन दिया था।

महा पुरश्चरणों की श्रृंखला नियमित रूप से चलती रही। जिस दिन गुरुदेव के आदेश से उस साधना का शुभारम्भ किया था उसी दिन घृत दीप की अखण्ड-ज्योति भी स्थापित की। उसकी जिम्मेदारी हमारी धर्मपत्नी ने सम्भाली, जिन्हें हम भी माता जी के नाम से पुकारते हैं। छोटे बच्चे की तरह उस पर हर घड़ी ध्यान रखे जाने की आवश्यकता पड़ती थी। अन्यथा वह बच्चे की तरह मचल सकता था, बुझ सकता था। वह अखण्ड दीपक इतने लम्बे समय से बिना किसी व्यवधान के अब तक नियमित जलता रहा है। इसके प्रकाश में बैठकर जब भी साधना करते हैं तो मनःक्षेत्र में अनायास ही दिव्य भावनाऐं उठती रहती हैं। कभी किसी उलझन को सुलझाना अपनी सामान्य बुद्धि के लिए सम्भव नहीं होता, तो इस अखण्ड-ज्योति की प्रकाश किरणें अनायास ही उस उलझन को सुलझा देती हैं।

नित्य 66 माला का जप, गायत्री माता के चित्र प्रतीक का धूप, दीप, नैवेद्य, अक्षत, पुष्प, जल से पूजन। जप के साथ-साथ प्रातःकाल के उदीयमान सविता देवता का ध्यान। अन्त में सूर्यार्ध्य दान। इतनी छोटी-सी विधि व्यवस्था अपनाई गयी। उसके साथ बीज मन्त्र सम्पुट आदि का कोई तान्त्रिक विधि विधान जोड़ा नहीं गया। किन्तु श्रद्धा अटूट रही। सामने विद्यमान गायत्री माता के चित्र के प्रति असीम श्रद्धा उमड़ती रही। लगता रहा वे साक्षात सामने बैठी हैं। कभी-कभी उनके अंचल में मुँह छिपाकर प्रेमाश्रु बहाने के लिए मन उमड़ता। कभी ऐसा नहीं हुआ कि मन न लगा हो। कही अन्यत्र भागा हो। तन्मयता निरन्तर प्रगाढ़ स्तर की बनी रही। समय पूरा हो जाता तो अलग अलार्म बजता। अन्यथा उठने को जी ही नहीं करता था। उपासना क्रम में कभी एक दिन भी विघ्न न आया।

यही बात अध्ययन के सम्बन्ध में रही। उसके लिए अतिरिक्त समय न निकालना पड़ा। कांग्रेस कार्यों के लिए प्रायः काफी-काफी दूर चलना पड़ता। जब परामर्श या कार्यक्रम का समय आता तब पढ़ना बन्द हो जाता। जहाँ चलना आरम्भ हुआ वही, पढ़ना भी आरम्भ हो गया। पुस्तक साइज के 40 पन्ने प्रति घण्टे पढ़ने की स्पीड रही। कम से कम दो घण्टे नित्य पढ़ने के लिए मिल जाते। कभी-कभी ज्यादा भी। इस प्रकार 2 घण्टे में 80 पृष्ठ। महीने में 4800 पृष्ठ। साल भर में 58 हजार पृष्ठ। साठ वर्ष की कुल अवधि में 35 लाख पृष्ठ हमने मात्र अपनी अभिरुचि के पढ़े हैं। लगभग 3 हजार पृष्ठ नित्य विहंगम रूप से पढ़ लेने की बात भी हमारे लिए स्नान भोजन की तरह आसान व सहज रही है। यह क्रम प्रायः 60 वर्ष से अधिक समय से चलता आ रहा है और इतने दिन में अनगिनत पृष्ठ उन पुस्तकों के पढ़ डाले जो हमारे लिए आवश्यक विषयों से सम्बन्धित थे। महापुरश्चरणों की समाप्ति के बाद समय अधिक मिलने लगा। तब हमने भारत के विभिन्न पुस्तकालयों में जाकर ग्रन्थों- पांडुलिपियों का अध्ययन किया। वह हमारे लिये अमूल्य निधि बन गयी।

मनोरंजन के लिए एक पन्ना भी कभी नहीं पढ़ा है। अपने विषयों में मानों प्रवीणता की उपाधि प्राप्त करनी हो ऐसी तन्मयता से पढ़ा है। इसलिए पढ़े हुए विषय मस्तिष्क में एकीभूत हो गये हैं। जब भी कोई लेख लिखते थे या पूर्व में वार्त्तालाप में किसी गम्भीर विषय पर चर्चा करते थे तो पढ़े हुए विषय अनायास ही स्मरण हो आते थे। लोग पीठ पीछे कहते हैं “यह तो चलता फिरता एनसाइक्लोपीडिया है।” अखण्ड-ज्योति पत्रिका के लेख पढ़ने वाले उसमें इतने संदर्भ पाते हैं कि लोग आश्चर्यचकित होकर रह जाते हैं और सोचते हैं कि एक लेख के लिए न जाने कितनी पुस्तकों और पत्रिकाओं से सामग्री इकट्ठी करके लिखा गया है। यही बात युग निर्माण योजना, युग शक्ति पत्रिका के बारे में है। पर सच बात इतनी ही है कि हमने जो भी पढ़ा है, उपयोगी पढ़ा है और पूरा मन लगाकर पढ़ा है। इसलिए समय पर सारे संदर्भ अनायास ही स्मृति पटल पर उठ आते हैं। यह वस्तुतः हमारी तन्मयता से की गयी साधना का चमत्कार है।

जन्मभूमि के गाँव में प्राथमिक पाठशाला थी। सरकारी स्कूल की दृष्टि से इतना ही पढ़ा है। संस्कृत हमारी वंश परम्परा में घुली हुई है। पिताजी संस्कृत के असाधारण प्रकाण्ड विद्वान थे। भाई भी। सबकी रुचि भी उसी ओर थी। फिर हमारा पैतृक व्यवसाय पुराणों की कथा कहना तथा पौरोहित्य रहा है सो उस कारण उसका समुचित ज्ञान हो गया। आचार्य तक के विद्यार्थियों को हमने पढ़ाया है, जबकि हमारी स्वयं की डिग्रीधारी योग्यता नहीं थी।

इसके बाद अन्य भाषाओं के पढ़ने की कहानी मनोरंजक है। जेल में लोहे के तसले पर कंकड़ की पेन्सिल अँग्रेजी लिखना आरम्भ किया। एक दैनिक अंक “लीडर” अखबार का जेल में हाथ लग गया था। उसी से पढ़ना शुरू किया। साथियों से पूछताछ कर लेते, इस प्रकार एक वर्ष बाद जब जेल से छूटे तो अँग्रेजी की अच्छी-खासी योग्यता उपलब्ध हो गई। आपसी चर्चा से हर बार की जेलयात्रा में अँग्रेजी का शब्दकोश हमारा बढ़ता ही चला गया एवं क्रमशः व्याकरण भी सीख ली। बदले में हमने उन्हें संस्कृत एवं मुहावरों वाली हिन्दुस्तानी भाषा सिखा दी। अन्य भाषाओं की पत्रिकाएं तथा शब्दकोष अपने आधार रहे हैं और ऐसे ही रास्ता चलते अन्यान्य भाषाएँ पढ़ ली हैं। गायत्री को बुद्धि की देवी कहा जाता है। दूसरों को वैसा लाभ मिला या नहीं। पर हमारे लिए ये चमत्कारी लाभ प्रत्यक्ष है। अखण्ड-ज्योति की संस्कृतनिष्ठ हिन्दी ने हिन्दी के प्राध्यापकों तक का मार्गदर्शन किया है। यह हम जब देखते हैं तो उस महाप्रज्ञा को ही इसका श्रेय देते हैं। अति व्यस्तता रहने पर भी विज्ञ की-ज्ञान की-विभूति इतनी मात्रा में हस्तगत हो गई, जिसमें हमें परिपूर्ण संतोष होता है और दूसरों को आश्चर्य।

साथ में तीसरा काम काँग्रेस में काम करने का रहा है। इससे उन की मूर्धन्य प्रतिभाओं से संपर्क साधने के अवसर अनायास ही आते रहे। सदा विनम्र और अनुशासन रत स्वयंसेवक की अपनी हैसियत रखी। इसलिए मूर्धन्य नेताओं की सेवा में किसी विनम्र स्वयं सेवक की जरूरत पड़ती तो हमें ही पेल दिया जाता रहा। आयु भी इसी योग्य थी। इसी संपर्क में हमने बड़ी से बड़ी विशेषताएँ सीखीं। अवसर मिला तो उनके साथ भी रहने का सुयोग मिला साबरमती आश्रम में गाँधी जी के साथ और पवनार आश्रम में विनोबा के साथ रहने का लाभ मिला है। दूसरे उनके समीप जीते हुए दर्शन मात्र करते हैं या रहकर लौट आते हैं जब कि हमने इन सम्पर्कों में बहुत कुछ पढ़ा और जाना है। इन सबकी स्मृतियों का उल्लेख करना तो यहाँ अप्रासंगिक होगा। पर कुछ घटनाएँ ऐसी हैं जो हमारे लिए कल्पवृक्ष की तरह महत्वपूर्ण सिद्ध हुईं।

सन् 1933 की बात है। कलकत्ता में इण्डियन नेशनल काँग्रेस का अधिवेशन था। उन दिनों काँग्रेस गैर कानूनी थी। जो भी जाते, पकड़े जाते। उसमें गोलीकाण्ड भी हुआ था। जिन्हें महत्वपूर्ण समझा गया, उन्हें बर्दवान स्टेशन पर पकड़ लिया गया और ईस्ट इंडिया कम्पनी के जमाने में बनी गोरों के लिए बनाई गई एक विशेष जेल (आसनसोल) में भेज दिया गया। इसमें हम भी आगरा जिले के अपने तीन साथियों के साथ पकड़े गए। यहाँ हमारे साथ में मदनमोहन मालवीयजी के अलावा गाँधी जी के सुपुत्र देवीदास गाँधी, श्री जवाहर लाल नेहरू की माता स्वरूपा रानी नेहरू, रफी अहमद किदवई, चन्द्रभान गुप्त, कन्हैयालाल खादी वाला, शोभालाल, गुप्त, जगन प्रसाद रावत, गोपाल नारायण आदि मूर्धन्य लोग थे। वहाँ जब तक हम लोग रहे, सायंकाल महामना मालवीय जी का नित्य भाषण होता था। मालवीय जी व माता स्वरूपा रानी सबके साथ सगे बच्चों की तरह व्यवहार करते थे। एक दिन उनने अपने व्याख्यान में इस बात पर बहुत जोर दिया कि हमें आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए हर मर्द से एक पैसा और हर स्त्री से एक मुट्ठी अनाज के लिए माँग कर लाना चाहिए ताकि सभी यह समझें कि काँग्रेस हमारी है। हमारे पैसों से बनी है। सबको इसमें अपनापन लगेगा एवं मुट्ठी फण्ड ही इसका मूल आर्थिक आधार बन जायेगा। वह बात औरों के लिए महत्वपूर्ण न थी पर हमने उसे गाँठ बाध लिया। ऋषियों का आधार यही “भिक्षा” थी। उसी के सहारे वे बड़े-बड़े गुरुकुल और आरण्यक चलाते थे। हमें भविष्य में बहुत बड़े काम करने के लिए गुरुदेव ने संकेत दिये थे। उनके लिए पैसा कहाँ से आयेगा, इसकी चिंता मन में बनी रहती थी। इस बार जेल में सूत्र हाथ लग गया। जेल से छूटने पर जब बड़े काम पूरे करने का उत्तरदायित्व कन्धे पर आया तब उसी फार्मूले का उपयोग किया। “दस पैसा प्रतिदिन या एक मुट्ठी अनाज” अंशदान के रूप में यही तरीका अपनाया और अब तक लाखों नहीं, करोड़ों रुपया खर्च कर या करा चुके हैं।

काँग्रेस अपनी गायत्री गंगोत्री की तरह जीवनधारा रही। जब स्वराज्य मिल गया तो मैंने उन्हीं कामों की और ध्यान दिया जिससे स्वराज्य की समग्रता सम्पन्न हो सके। राजनेताओं को देश की राजनैतिक और आर्थिक स्थिति सम्भालनी चाहिए। पर नैतिक क्रान्ति, बौद्धिक क्रांति और सामाजिक क्रांति उससे भी अधिक आवश्यक है, जिसे हमारे जैसे लोग ही सम्पन्न कर सकते हैं। यह धर्मतन्त्र का उत्तरदायित्व है।

अपने इस नये कार्यक्रम के लिए अपने सभी गुरुजनों से आदेश लिया और काँग्रेस का एक ही कार्यक्रम अपने जिम्मे रखा। “खादी धारण।” इसके अतिरिक्त उसके सक्रिय कार्यक्रमों से उसी दिन पीछे हट गए जिस दिन स्वराज्य मिला। इसके पीछे बाप का आशीर्वाद था, दैवी सत्ता का हमें मिला निर्देश था। प्रायः 20 वर्ष लगातार काम करते रहने पर जब मित्रों ने स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी के नाते निर्वाह राशि लेने का फार्म भेजा तो हमने हंसकर स्पष्ट मनाकर दिया। हमें राजनीति में श्रीराम मत्त या (मत्त जी) नाम से जाना जाता है। जो लोग जानते हैं, उस समय के मूर्धन्य जो जीवित हैं उन्हें विदित है कि आचार्य जी मत्त जी कांग्रेस के आधार स्तंभ रहे हैं और कठिन से कठिन कामों में अग्रिम पंक्ति में खड़े रहे हैं। किन्तु जब श्रेय लेने का प्रश्न आया, उन्होंने स्पष्टतः स्वयं को पर्दे के पीछे रखा।

तीनों काम यथावत् पूरी तत्परता और तन्मयता के साथ सम्पन्न किये और साथ ही गुरुदेव जब-जब हिमालय बुलाते रहे तब-तब जाते रहे। बीच के दो आमंत्रणों में उनने छः-छः महीने ही रोका। कहा- “काँग्रेस का कार्य स्वतन्त्रता प्राप्ति की दृष्टि से इन दिनों आवश्यक है, सो इधर तुम्हारा रुकना छः-छः महीने ही पर्याप्त होगा।” उन छह महीनों में हमसे क्या कराया गया एवं क्या कहा गया, यह सर्व साधारण के लिए जानना जरूरी नहीं है। दृश्य जीवन के ही अगणित प्रसंग ऐसे हैं जिन्हें हम अलौकिक एवं दैवी शक्ति की कृपा का प्रसाद मानते हैं उसे याद करते हुए कृतकृत्य होते रहते हैं।


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