मथुरा के कुछ रहस्यमय प्रसंग

April 1985

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मथुरा में रहकर जिन गतिविधियों को चलाने के लिए हिमालय से आदेश हुआ था, उन्हें अपनी जानकारी की क्षमता द्वारा कर सकना कठिन था। न साधन, न साथी, न अनुभव न कौशल। फिर इतने विशाल काम किस प्रकार जन पड़े? हिम्मत टूटती सी देखकर मार्गदर्शक ने परोक्षतः लगाम हाथ में सम्भाली। हमारे शरीर भर का उपयोग हुआ। बाकी सब काम कठपुतली नचाने वाला बाजीगर स्वयं कराता रहा। लकड़ी के टुकड़े का श्रेय इतना ही है कि उसने तार मजबूती से जकड़ कर रखे और जिस प्रकार नाचने का संकेत हुआ- वैसा करने से इन्कार नहीं किया।

चार घंटे नित्य लिखने के लिए निर्धारित किया। लगता रहा कि व्यास और गणेश का उदाहरण चल पड़ा। पुराण लेखन में व्यास बोलते गये थे और गणेश लिखते गये थे। ठीक वही यहाँ हुआ। आर्ष ग्रंथों का अनुवाद कार्य अति कठिन है। चारों वेद, 108 उपनिषदें, छहों दर्शन, चौबीसों स्मृतियाँ, आदि आदि सभी ग्रंथों में हमारी कलम और उँगलियों का उपयोग हुआ। बोलती लिखाती कोई और अदृश्य शक्ति रही। अन्यथा इतना कठिन काम इतनी जल्दी बन पड़ना सम्भव न था। फिर धर्म तन्त्र से लोक शिक्षण का प्रयोजन पूरा करने वाली सैंकड़ों की संख्या में लिखी गई पुस्तकें मात्र एक व्यक्ति ने बलबूते किस प्रकार होती रह सकती थी। यह लेखन कार्य जिस दिन से आरम्भ हुआ, उस दिन से लेकर अब तक बन्द ही नहीं हुआ। वह बढ़ते-बढ़ते इतना हो गया जितना हमारे शरीर का वजन है।

प्रकाशन के लिए प्रेस की जरूरत हुई। अपने बलबूते एक हैण्डप्रेस का जुगाड़ किसी तरह जुटाया गया। जिसे काम कराना था, वह इतनी सी बाल क्रीड़ा को देखकर हँस पड़ा। प्रेस का विकास हुआ। ट्रेडिलें, सिलेण्डरे, ओटोमैटिक, आफसैटें एक के बाद आती चली गईं। उन सबकी कीमतें व प्रकाशित साहित्य की लागत लाखों को पार कर गईं।

“अखण्ड-ज्योति” पत्रिका के अपने पुरुषार्थ से दो हजार तक ग्राहक बनने पर बात समाप्त हो गई थी। फिर मार्गदर्शक ने धक्का लगाया तो अब वह बढ़ते-बढ़ते डेढ़ लाख के करीब छपती है जो कि एक कीर्तिमान है। उसके और भी दस गुने बढ़ने की ही सम्भावना है। युग निर्माण योजना हिन्दी, युग शक्ति गायत्री गुजराती, युग शक्ति उड़िया आदि यह सब मिलकर भी डेढ़ लाख के करीब हो जाती हैं। एक व्यक्ति द्वारा रचित इतनी उच्चकोटि की, इतनी अधिक संख्या में बिना किसी का विज्ञापन स्वीकार किये, इतनी संख्या में पत्रिका छपती है और घाटा जेब में से न देना पड़ता हो, यह एक कीर्तिमान है, जैसा अपने देश में अन्यत्र उदाहरण नहीं ढूंढ़ा जा सकता।

गायत्री परिवार का संगठन करने निमित्त- महापुरश्चरण की पूर्णाहुति के बहाने जो हजार कुण्डीय यज्ञ मथुरा में हुआ था, उसके सम्बन्ध में यह कथन अत्युक्ति पूर्ण नहीं है कि इतना बड़ा आयोजन महाभारत के उपरांत आज तक नहीं हुआ। इसका प्रत्यक्ष विवरण परिजन फरवरी 85 अंक में पढ़ चुके हैं।

उसकी कुछ रहस्यमयी विशेषताएँ ऐसी थीं, जिनके सम्बन्ध से सही बात कदाचित ही किसी को मालूम हो। एक लाख नैष्ठिक गायत्री उपासक देश के कोने-कोने में से आमन्त्रित किये गये। वे सभी ऐसे थे जिनने धर्म तन्त्र में लोक शिक्षण का काम हाथोंहाथ सम्भाल लिया और इतना बड़ा गायत्री परिवार बन कर खड़ा हो गया जितने कि भारत के समस्त धार्मिक संगठन मिलकर भी पूरे नहीं होते। इन व्यक्तियों से हमारा पूर्व परिचय बिल्कुल न था। पर उन सबके पास निमन्त्रण पत्र पहुँचे और वे अपना मार्ग व्यय खर्च करके भागते चले आये। यह एक पहेली है जिसका समाधान ढूंढ़ पाना कठिन है।

दर्शकों की संख्या मिलाकर दस लाख तक प्रतिदिन पहुँचती रही। इन्हें सात मील के घेरे में ठहराया गया था। किसी को भूखा नहीं जाने दिया। किसी से भोजन का मूल्य नहीं माँगा गया। अपने पास खाद्य सामग्री मुट्ठी भर थी। इतनी, जो एक बार में बीस हजार के लिए भी पर्याप्त न होती। पर भण्डार अक्षय हो गया। पाँच दिन के आयोजन में प्रायः 5 लाख से अधिक खा गये। पीछे खाद्य सामग्री बच गई जो उपयुक्त व्यक्तियों को बिना मूल्य बाँटी गई।

व्यवस्था ऐसी अद्भुत रही, जैसी हजार कर्मचारी नौकर रखने पर भी नहीं कर सकते थे।

यह रहस्यमयी बातें हैं। आयोजन का प्रत्यक्ष विवरण तो हम दे चुके हैं। पर जो रहस्य था सो अपने तक ही सीमित रहा है। कोई यह अनुमान न लगा सका कि इतनी व्यवस्था, इतनी सामग्री कहाँ से जुट सकी। यह सब अदृश्य सत्ता का खेल था। उसमें सूक्ष्म शरीर से वे ऋषि भी उपस्थित हुए थे, जिनके दर्शन हमने प्रथम हिमालय यात्रा में किये थे। सभी सूक्ष्म एवं कारण शरीरधारी थे। इन सब कार्यों के पीछे जो शक्ति काम कर रही थी उसके सम्बन्ध में कोई तथ्य किसी को विदित नहीं। लोग इसे हमारी करामात कहते रहे, किन्तु भगवान साक्षी है कि हम जड़ भरत की तरह, मात्र दर्शक की तरह यह सारा खेल देखते रहे। जो शक्ति व्यवस्था बना रही थी उसके सम्बन्ध में कदाचित ही किसी को कुछ आभास हुआ हो।

तीसरा काम जो हमें मथुरा में करना था, वह था- गायत्री तपोभूमि का निर्माण। इतने बड़े संगठन के लिए इतने बड़े कार्यक्रम के लिए छोटी इमारत से काम नहीं चल सकता था। वह बनना आरम्भ हुई। निर्माण कार्य आरम्भ हुआ और हमारे आने के बाद भी अब तक बराबर चलता ही रहा है। प्रज्ञा नगर के रूप में विकसित विस्तृत हो गया है। जो मथुरा गये हैं, गायत्री तपोभूमि की इमारत और उसका प्रेस, अतिथि व्यवस्था देखकर आये हैं वे आश्चर्यचकित होकर रहे हैं। इतना सामान्य दीखने वाला आदमी किस प्रकार इतनी भव्य इमारत की व्यवस्था कर सकता है। इस रहस्य को जिन्हें जानना हो, उन्हें हमारी पीठ पर काम करने वाली शक्ति को ही इसका श्रेय देना होगा, व्यक्ति को नहीं। अर्जुन का रथ भगवान सारथी बनकर चला रहे थे। उन्हीं ने जिताया था। पर जीत का श्रेय अर्जुन को मिला और राज्याधिकारी पाण्डव बने। इसे कोई चाहे तो पाण्डवों का पुरुषार्थ- पराक्रम कह सकता है पर वस्तुतः बात वैसी थी नहीं। यदि होती तो द्रौपदी का चीर उनकी आँखों के सामने कैसे खींचा जाता। वनवास काल में जहाँ-तहाँ छिपे रहकर जिस-तिस की नगण्य-सी नौकरियाँ क्यों करते फिरते?

हमारी क्षमता नगण्य है, पर मथुरा जितने दिन रहे, वहाँ रहकर इतने सारे प्रकट और अप्रकट काम जो हम करते रहे, उसकी कथा आश्चर्यजनक है। उसका कोई लेखा-जोखा लेना चाहे तो तथ्यों को ध्यान में रखें और हमें नाचने वाली लकड़ी के टुकड़े से बनी कठपुतली के अतिरिक्त और कुछ न माने।


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