नन्दन वन में पहला दिन वहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य को निहारने, उसी में परम सत्ता की झाँकी देखने में निकल गया। पता ही नहीं चला कि कब सूरज ढला और रात्रि आ पहुँची। परोक्ष रूप में निर्देश मिला-समीपस्थ एक निर्धारित गुफा में जाकर सोने की व्यवस्था बनाने का। लग रहा था कि प्रयोजन सोने का नहीं, सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने का है ताकि स्थूल शरीर पर शीत का प्रकोप न हो सके। सम्भावना थी कि पुनः रात्रि को गुरुदेव के दर्शन होंगे। ऐसा हुआ भी।
उस रात्रि को गुफा में गुरुदेव सहसा आ पहुँचे। पूर्णिमा थी। चन्द्रमा का सुनहरा प्रकाश समूचे हिमालय पर फैल रहा था। उस दिन ऐसा लगा कि हिमालय सोने का है। दूर-दूर बरफ के टुकड़े, तथा बिन्दु बरस रहे थे। वे ऐसा अनुभव कराते थे, मानो सोना बरस रहा है। मार्गदर्शक के आ जाने से गर्मी का एक घेरा चारों ओर बन गया। अन्यथा रात्रि के समय इस विकट ठंड और हवा के झोंकों में साधारणतया निकलना सम्भव न होता। दुस्साहस करने पर इस वातावरण में शरीर जकड़ या इठ सकता था।
किसी विशेष प्रयोजन के लिए ही यह अहैतुकी कृपा हुई है, यह मैंने पहले ही समझ लिया इसलिए इस काल में आने का कारण पूछने की आवश्यकता न पड़ी। पीछे-पीछे चल दिया। पैर जमीन से ऊपर उठते हुए चल रहे थे। आज यह जाना कि सिद्धियों में से ऊपर हवा में उड़ने की- अन्तरिक्ष में चलने की क्यों आवश्यकता पड़ती है। उन बर्फीले ऊबड़-खाबड़ हिम खण्डों पर चलना उससे कहीं अधिक कठिन था जितना कि पानी की सतह पर चलना। आज उन सिद्धियों की अच्छी परिस्थितियों में आवश्यकता भले ही न पड़े। पर उन दिनों हिमालय जैसे विकट क्षेत्रों में आवागमन की कठिनाई को समझने वालों के लिए आवश्यकता निश्चय ही पड़ती होगी।
मैं गुफा में से निकल कर स्वर्णिम और शीत से काँपते हुए हिमालय पर अधर ही अधर गुरुदेव के पीछे-पीछे उनकी पूँछ की तरह सटा हुआ चल रहा था। आज की यात्रा का उद्देश्य पुरातन ऋषियों की तपस्थलियों का दिग्दर्शन कराना था। स्थूल शरीर सभी ने त्याग दिये थे। पर सूक्ष्म शरीर उनमें से अधिकाँश के बने हुए थे। उन्हें भेदकर किन्हीं-किन्हीं के कारण शरीर भी झलक रहे थे। नत मस्तक और करबद्ध नमन की मुद्रा अनायास ही बन गयी। आज मुझे हिमालय पर सूक्ष्म और कारण शरीरों से निवास करने वाले ऋषियों का दर्शन और परिचय कराया जाना था। मेरे लिए आज की रात्रि जीवन भर के सौभाग्यशाली क्षणों में सबसे अधिक महत्व की बेला थी।
उत्तराखण्ड क्षेत्र के कुछ गुफाएँ तो जब तब आते समय यात्रा के दौरान देखी थीं, पर देखी वही थीं जो यातायात की दृष्टि से सुलभ थीं। आज जाना कि जितना देखा है, उससे अनदेखा कही अधिक है। इनमें जो छोटी थी, वे तो वन्य पशुओं के काम आती थीं, पर जो बड़ी थी, साफ सुथरी और व्यवस्थित थी, वे ऋषियों के सूक्ष्म शरीरों के निमित्त थीं। पूर्व अभ्यास के कारण वे अभी भी उनमें यदा कदा निवास करते हैं।
वे सभी उस दिन ध्यान मुद्रा में थे। गुरुदेव ने बताया कि वे प्रायः सदा इसी स्थिति में रहते हैं। अकारण ध्यान तोड़ते नहीं। मुझे एक-एक का नाम बताया और सूक्ष्म शरीर का दर्शन कराया गया। यही है सम्पदा, विशिष्टता और विभूति सम्पदा, इस क्षेत्र की।
गुरुदेव के साथ मेरे आगमन की बात उन सभी को पूर्व से ही विदित थी। सो हम दोनों जहाँ भी जिस-जिस समय पहुँचे, उनके नेत्र खुल गए। चेहरों पर हलकी मुस्कान झलकी और सिर उतना ही झुका, मानों वे अभिवादन का प्रत्युत्तर दे रहे हों। वार्तालाप किसी से कुछ नहीं हुआ। सूक्ष्म शरीर को कुछ कहना होता है, तो वे बैखरी मध्यमा से नहीं, परा और पश्यन्ति वाणी से, कर्ण छिद्रों के माध्यम से नहीं, अन्तःकरण में उठी प्रेरणा के रूप में कहते हैं, पर आज दर्शन मात्र प्रयोजन था। कुछ कहना और सुनना नहीं था। उनकी बिरादरी में एक नया विद्यार्थी भर्ती होने आया, सो उसे जान लेने और जब जैसी सहायता करने की आवश्यकता समझे तब वैसी उपलब्ध करा देने का सूत्र जोड़ना ही उद्देश्य था। सम्भवतः यह उन्हें पहले ही बताया जा चुका होगा कि उनके अधूरे कामों को समय की अनुकूलता के अनुसार पूरा करने के लिए यह स्थूल शरीरधारी बालक अपने ढंग से क्या कुछ करने वाला है एवं अगले दिनों इसकी भूमिका क्या होगी।
सूक्ष्म शरीर से अन्तः प्रेरणाएँ उमंगने और शक्ति धारा प्रदान करने का काम हो सकता है। पर जन साधारण को प्रत्यक्ष परामर्श देना और घटना क्रमों को घटित करना स्थूल शरीरों का ही काम है। इसलिए दिव्य शक्तियाँ किन्हीं स्थूल शरीरधारियों को भी अपने प्रयोजनों के लिए वाहन बनाती हैं। अभी तक मैं एक ही मार्गदर्शक का वाहन था, पर अब वे हिमालय वासी अन्य दिव्य आत्माएँ भी अपने वाहन का काम ले सकती थीं और तद्नुरूप प्रेरणा, योजना एवं क्षमता प्रदान करती रह सकती थीं। गुरुदेव इसी भाव वाणी में मेरा परिचय उन सबसे करा रहे थे। वे सभी बिना लोकाचार, शिष्टाचार, निबाहे बिना समय-क्षेप किये एक संकेत में उस अनुरोध की स्वीकृति दे रहे थे। आज रात्रि की दिव्य यात्रा इसी रूप में चलती रही। प्रभात होने से पूर्व ही वे मेरी स्थूल काया को निर्धारित गुफा में छोड़ कर अपने स्थान को वापस चले गए।
आज ऋषि लोक का पहली बार दर्शन हुआ। हिमालय के विभिन्न क्षेत्रों- देवालय, सरोवरों, सरिताओं का दर्शन स्पर्श तो यात्रा काल में पहले से भी होता रहा। उस प्रदेश को ऋषि निवास का देवात्मा भी मानते रहे हैं, पर इससे पहले यह विदित न था कि किस ऋषि का किस भूमि से लगाव है। यह आज पहली बार देखा और अंतिम बार भी। वापस छोड़ते समय मार्गदर्शक ने कह दिया कि इनके साथ अपनी ओर से संपर्क साधने का प्रयत्न मत करना। उनके कार्य में बाधा मत डालना। यदि किसी ने कुछ निर्देशन करना होगा तो वैसा स्वयं ही करेंगे। हमारे साथ भी तो तुम्हारा यही अनुबन्ध है कि अपनी ओर से द्वार नहीं खटखटाओगे। जब हमें जिस प्रयोजन के लिए जरूरत पड़ा करेगी, स्वयं ही पहुँचा करेंगे और उसकी पूर्ति के लिए आवश्यक साधन जुटा दिया करेंगे। यही बात आगे से तुम उन ऋषियों के सम्बन्ध में भी समझ सकते हो जिनके कि दर्शन प्रयोजन वश तुम्हें आज कराये गये हैं। इस दर्शन को कौतूहल भर मत मानना वरन् समझना कि हमारा अकेला ही निर्देश तुम्हारे लिए सीमित नहीं रहा। यह महाभाग भी उसी प्रकार अपने सभी प्रयोजन पूरा करते रहेंगे जो स्थूल शरीर के अभाव में स्वयं नहीं कर सकते। जन संपर्क प्रायः तुम्हारे जैसे सत्पात्रों- वाहनों के माध्यम से कराने की ही परम्परा रही है। आगे से तुम इनके निर्देशनों को भी हमारे आदेश की तरह ही शिरोधार्य करना और जो कहा जाय सौ करने के लिए जुट पड़ना। मैं स्वीकृति सूचक संकेत के अतिरिक्त और कहता ही क्या। वे अन्तर्ध्यान हो गये।
यह मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। यद्यपि इसके बाद भी हिमालय जाने का क्रम बराबर बना रहा एवं गन्तव्य भी वही है, फिर भी गुरुदेव के साथ विश्व-व्यवस्था का संचालन करने वाली परोक्ष ऋषि सत्ता का प्रथम दर्शन अंतःस्थल पर अमिट छाप छोड़ गया। हमें अपने लक्ष्य, भावी जीवन क्रम, जीवनयात्रा में सहयोगी बनने वाली जागृत प्राणवान आत्माओं का आभास भी इसी यात्रा में हुआ। हिमालय की हमारी पहली यात्रा अनेकों ऐसे अनुभवों की कथा गाथा है जो अन्य अनेकों के लिए प्रेरणाप्रद सिद्ध हो सकती है।