स्वतन्त्रता संग्राम के प्रारम्भिक दिनों की बात है। तब तक मार्गदर्शक सत्ता से साक्षात्कार नहीं हुआ था। एक उत्साही स्वयं सेवक के रूप में गाँव में ही कांग्रेस का कार्यकर्ता था। उन दिनों देहातों में गाँधी जी को करामाती बाबा मानते थे और कहते थे अंग्रेज पकड़कर जेल में बन्द करते हैं, और ये अपनी करामात से बाहर निकल जाते हैं। हम तो उन्हें स्वतन्त्रता हेतु भारत में अवतरित देवदूत मानते थे।
ऐसी ही योगियों की कथा-किम्वदंतियां और भी सुन रखी थीं। मन में आया कि योग सीखने के लिए गाँधी जी के पास ही चलना चाहिए। साबरमती अहमदाबाद के पते पर पत्र व्यवहार किया। कुछ समय आश्रम में रहने की आज्ञा माँगी। इसे सुयोग ही कहना चाहिए कि मुझे आज्ञा मिल गई, और दैनिक उपयोग के वस्त्र बिस्तर साथ लेकर अहमदाबाद जा पहुँचा। साबरमती आश्रम में अपना नाम दर्ज करा दिया।
दूसरे दिन से अपने लिए काम पूछा- ड्यूटी टट्टियाँ साफ करने एवं आँगन बुहारने की लगी। प्रायः प्रथम आगन्तुक को वहाँ यही शिक्षा दी जाती थी। गन्दगी दूर करना और उसके स्थान पर स्वच्छता बनाना।
मैंने टट्टियाँ अपनी बुद्धि के अनुरूप साफ कीं। पर जब निरीक्षक आये तो उन्हें काम पसन्द नहीं आया। जो त्रुटियाँ रह गई थीं, सो बताई और कहा कि सफाई ऐसी होनी चाहिए, जैसी रसोई घर में होती है। दूसरी बार मैंने उनकी मर्जी जैसा काम कर दिया। नित्य का सिलसिला यही चलता। निरीक्षक की पसन्दगी का काम करने लगा। सूत कातने सम्बन्धी अन्य काम तो दिनचर्या में सम्मिलित थे ही।
एक दिन लकड़ी चीरने का काम दिया गया, चीर दी। निरीक्षक आये। उनने छोटे-छोटे टुकड़े बिखरे देखे और कहा- यह किसी के पैर में चुभ सकते हैं। सभी को उठाओ और पतले टुकड़ों को ईंधन में रखो, वैसा कर दिया। वह काम कई दिन हमसे कराया गया।
इसके बाद सूत सम्बन्धी काम, प्रार्थना, सफाई, व्यवस्था आदि के काम, कराये जाते रहे। प्रातः साँय जो सामूहिक प्रार्थना होती उसमें सम्मिलित होता रहा।
एक दिन मैंने पेड़ पर से दातौन के लिए लम्बी दातौन तोड़ ली और दाँत घिसने लगा। निरीक्षक थी मीरा बहन। वे दूर से इसे देख रही थी। पास आकर बोली- ‘‘इतनी लम्बी दातौन नहीं तोड़नी चाहिए। तोड़नी थी तो उसे ऐसे ही कूड़े की तरह नहीं डालना चाहिए। बचे टुकड़े को किसी और की आवश्यकता पूरी करने के लिए देना चाहिए था। पत्तियाँ कूड़े दान में डालनी चाहिए थीं और घिसते समय जो पानी मुँह से निकलता है वह फर्श पर नहीं, नाली में डाला जाना चाहिए। अन्यथा मुँह में कोई छूत हो तो दूसरे को लग सकती है। पानी अधिक खर्च नहीं करना चाहिए था।” मैंने भूल मानी और सुधारी और भविष्य में सावधानी बरतने का आश्वासन दिया, पर इतने से बड़ी सिखावन हाथ लग गयी। डायरी रोज लिखता और वह गाँधी जी के पास पहुँचती रहती।
इसी प्रकार के कार्यक्रमों में तीन महीने होने को आये। करामाती योगी, बनने के उद्देश्य से आया था। दूसरा गाँधी बनना चाहता था, पर वैसी कोई साधना सीखने का कोई अवसर न मिला। जाने के दिन समीप आने पर बहुत बेचैनी रहने लगी। एक दिन हिम्मत बाँधकर गाँधी जी के सेक्रेटरी महादेव भाई देसाईं के दफ्तर में गया और संकोच पर नियन्त्रण करके आने का उद्देश्य कह सुनाया। देसाईं जी हँसे और बोले- ‘‘भाई! हम तो करामाती योगी है नहीं। गाँधी जी हो सकते हैं। सो कल प्रातःकाल तुम उनके साथ टहलने चले जाना और योगी बनने का राज पूछकर अपना समाधान कर लेना।” इस उत्तर से मुझे सन्तोष हो गया।
गाँधी जी प्रातःकाल नित्य टहलते समय किसी को साथ ले जाते थे। उसका समाधान भी हो जाता था व गाँधी जी का भ्रमण भी। प्रातःकाल 5 बजे मैं दरवाजे पर जा खड़ा हुआ और जैसे ही गाँधी जी आये उनके पीछे-पीछे चलने लगा। महादेव भाई ने उन्हें मेरी बात बता दी थी। गाँधी जी ने मुड़कर पीछे देखा और अपनी टहलने वाली चाल में चल पड़े। रास्ते में पूछा- ‘‘तुम्हीं गाँधी जी बनने की योग साधना सीखने आये थे।” मैंने हाँ कह दिया। दूसरा प्रश्न पूछा गया- ‘‘वैसा कुछ सिखाया गया या नहीं?” मैंने तीन महीने का कार्य विवरण संक्षेप में सुना दिया। वे बोले- यही है गाँधी बनने की विद्या, जो तुम सीखते रहे?
जिज्ञासा समाधान न होते देखकर उनने टहलते-टहलते मुझे एक ऐतिहासिक घटना सुनाई। वैज्ञानिक थामस डेवी की एक घटना। वह लड़का एक गरीब घर में जन्मा। वैज्ञानिक बनने की इच्छा थी। विधिवत् वैज्ञानिक शिक्षा दिलाने की परिवार में परिस्थितियाँ न थी। डेवी ने सुझाया, मुझे किसी वैज्ञानिक के यहाँ छोड़ दो। उसका घरेलू काम काज करता रहूँगा और जो वे सिखा दिया करेंगे, सीखता रहूँगा?
ऐसा सुयोग देखने के लिए उसकी माँ कितने ही वैज्ञानिकों के पास ले गई पर सभी ने ऐसा झंझट सिर पालने से स्पष्ट मना कर दिया। एक वैज्ञानिक ने कहा- “इसे कल लाना, काम का होगा तो रख लेंगे।”
डेवी की माँ उसे लेकर दूसरे दिन पहुँची। उस वैज्ञानिक ने हाथ में बुहारी थमाई और घर की सफाई करने को कहा। डेवी ने इतनी दिलचस्पी से बुहारी लगाई कि कोई कोना, छत, फर्नीचर, सामान गन्दा न रहा। सब वस्तुऐं सफाई के बाद इस तरह रखी कि वे सुसज्जित जैसी लगती थी। वैज्ञानिक ने ताड़ लिया कि इसमें काम के प्रति दिलचस्पी, तन्मयता और व्यवस्था का माद्दा है। इसे सिखाना सार्थक हो सकता है। यह इस गुण के कारण ही उपयोगी हो सकता है और वैज्ञानिक बन सकता है। लड़के को उनने पास में रख लिया। घरेलू काम करता रहा और पड़ता रहा। क्रमशः उसकी मौलिक जिज्ञासा बुद्धि विकसित होने लगी एवं वह अन्ततः उच्चकोटि का वैज्ञानिक बन गया। उसने कितने ही आविष्कार किये।
यह प्रसंग सुनाते हुए गाँधी जी ने कहा- “यहाँ जो भी काम तुम से कराये गये हैं वे सभी ऐसे थे जिसमें काम के प्रति जिम्मेदारी और दिलचस्पी बढ़े। हमारे अन्दर यही विशेषता है। इसी के सहारे हमारी आदर्शवादिता उठाकर हमें यहाँ तक ले आई है। हमारी सफलता का इतना ही रहस्य है। तुम इस रास्ते पर चलोगे तो जो भी कार्य अपनाओगे उसमें प्रवीण और सफल होकर रहोगे। चाहे धर्मक्षेत्र हो, राजनीति अथवा अपना पारिवारिक जीवन, सफलता का यही एक राजमार्ग है।
बात समाप्त हो गई। सच्चे योगाभ्यास का रहस्य मेरे हाथ लग गया कि मनुष्य को आदर्शवादी कार्यक्रम हाथ में लेने चाहिए। जो करना है उसे पूरी दिलचस्पी और जिम्मेदारी के साथ करना चाहिए। तीन महीने साबरमती आश्रम में रहकर मैंने इसी प्रक्रिया का अभ्यास किया। निरीक्षकों ने उसमें जो त्रुटियाँ रहती थीं वे ठीक कराईं।
मैं करामाती योगी बनने का उद्देश्य लेकर आया था। वह बचपन जैसी उमँग हवा में उड़ गई। ऐसा कोई योगी नहीं होता को जादूगरों जैसी करामात दिखा सके। गाँधी जी भी वैसे नहीं थे। वे महापुरुष थे।
तीन महीने का समय पूरा हुआ, मैं सभी को विदाई का प्रणाम, अभिवादन करके घर लौट आया। गाँधी जी के बताए सूत्र गिरह बाँध लिए। आदर्शों को अपनाया जो काम हाथ में लिया उसे प्राणपण से किया। हमारी सफलताओं के मूल में दैवी अनुदानों के साथ वैयक्तिक पराक्रम की भी भूमिका रही है। इसी को विविध सफलताओं का रहस्य कहा जा सकता है।