हिमालय यात्रा से हरिद्वार लौटकर आने के बाद जब आश्रम का प्रारम्भिक ढाँचा बनकर तैयार हुआ तो विस्तार हेतु साधनों की आवश्यकता प्रतीत होने लगी। समय की विषमता ऐसी थी कि जिससे जूझने के लिए हमें कितनी ही साधनों, व्यक्तित्वों एवं पराक्रमों की आवश्यकता अपेक्षित थी। दो काम करने थे- एक संघर्ष, दूसरा सृजन। संघर्ष उन अवाँछनीयताओं से, जो अब तक की संचित सभ्यता, प्रगति और संस्कृति को निगल जाने के लिये मुँह बायें खड़ी हैं। सृजन उसका जो भविष्य को उज्ज्वल एवं सुख-शान्ति से भरा-पूरा बना सके। दोनों ही कार्यों का प्रयोग समूचे धरातल पर निवास करने वाले 500 करोड़ मनुष्यों के लिए करना ठहरा था, इसलिये विस्तार क्रम, अनायास से अधिक हो जाता है।
निज के लिए हमें कुछ भी न करना था। पेट भरने के लिए जिस स्रष्टा ने कीट-पतंगों तक के लिए व्यवस्था बना रखी है, वह हमें क्यों भूखा रहने देगा। भूखे उठते तो सब हैं, पर खाली पेट सोता कोई नहीं। इस विश्वास ने निजी कामनाओं का आरम्भ में ही समापन कर दिया। न लोभ ने कभी सताया, न मोह ने। वासना, तृष्णा और अहन्ता में से कोई भी भव-बन्धन बाँधकर पीछे न लग सकी। जो करना था, भगवान के लिए करना था, गुरुदेव के निर्देशन पर करना था। उन्होंने संघर्ष और सृजन के दो ही काम, सौंपे थे, सो उन्हें करने में सदा उत्साह ही रहा। टाल-मटोल करने की न प्रवृत्ति थी और न कभी इच्छा हुई। जो करना, सो तत्परता और तन्मयता से करना, यह आदत जन्मदान दिव्य अनुदान के रूप में मिली और अद्यावधि यथावत् बनी रही।
जिन साधनों की नव सृजन के लिए आवश्यकता थी, वे कहाँ से मिलें, कहाँ से आयें? इस प्रश्न के उत्तर में मार्गदर्शक ने हमें हमेशा एक ही तरीका बताया था कि ‘बोओ और काटो’। मक्का और बाजरा का एक बीज जब पौधा बनकर फलता है तो एक के बदले सौ नहीं वरन् उससे भी अधिक मिलता है। द्रौपदी ने किसी सन्त को अपनी साड़ी फाड़कर दी थी, जिससे उन्होंने लंगोटी बनाकर अपना काम चलाया था। वहीं आड़े समय में इतनी लंबी बनी कि उस साड़ियों के गट्ठे को सिर पर रखकर भगवान को स्वयं भागकर आना पड़ा। “जो तुझे पाना है, उसे बोना आरम्भ कर दे।” -यही बीज मन्त्र हमें बताया और अपनाया गया। प्रतिफल ठीक वैसा ही निकला जैसा कि संकेत किया गया।
शरीर, बुद्धि और भावनाएँ स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों के साथ भगवान सबको देते हैं। धन स्व उपार्जित होता है। कोई हाथों-हाथ कमाते हैं तो कोई पूर्व संचित संपदा को उत्तराधिकार में पाते हैं। हमने कमाया तो नहीं था पर उत्तराधिकार में अवश्य समुचित मात्रा में पाया। इन सबको बो देने और समय पर काट लेने के लायक गुँजाइश थी, सो बिना समय गँवाये उस प्रयोजन में अपने को लगा दिया।
रात में भगवान का भजन कर लेना और दिन भर विराट् ब्रह्म के लिए-विश्व मानव के लिये समय और श्रम नियोजित रखना, यह शरीर साधना के रूप में निर्धारित किया गया।
बुद्धि दिन भर जागने में ही नहीं, रात्रि के सपने में भी लोक मंगल की विधाएँ विनिर्मित करने में लगी रही। अपने निज के लिये सुविधा संपदा कमाने का ताना-बाना बुनने की कभी इच्छा ही नहीं हुई। अपनी भावनाएँ सदा विराट् के लिये लगी रहीं। प्रेम, किसी वस्तु या व्यक्ति से नहीं, आदर्शों से किया। गिरों का उठाने और पिछड़ों को बढ़ाने की ही भावनाएँ सतत् उमड़ती रहीं।
इस विराट् को ही हमने अपना भगवान माना। अर्जुन के दिव्य चक्षु ने इसी विराट् के दर्शन किये थे। यशोदा ने कृष्ण में सृष्टा का यही स्वरूप देखा था। राम ने पालने में पड़े-पड़े माता कौशल्या को अपना यही रूप दिखाया था और काक भुशुंडी इसी स्वरूप की झाँकी करके धन्य हुये थे।
हमने भी अपने पास जो कुछ था, उसी विराट् ब्रह्म को-विश्व मानव को सौंप दिया। बोने के लिये इससे उर्वर खेत दूसरा कोई हो नहीं सकता था। वह समयानुसार फला-फूला। हमारे कोठे भर दिये गये। सौंपे गये दो कामों के लिये जितने साधनों की जरूरत थी, वे सभी उसी में जुट गये।
शरीर जन्मजात दुर्बल था। शारीरिक बनावट की दृष्टि से उसे दुर्बल कह सकते हैं, जीवनी शक्ति तो प्रचण्ड थी ही। जवानी में बिना शाक, घी, दूध के 24 वर्ष तक जौ की रोटी और छाछ लेते रहने से वह और कुश हो गया था। पर जब बोने काटने की विद्या अपनाई तो पचहत्तर वर्ष की इस उम्र में वह इतना सुदृढ़ है कि कुछ ही दिन पूर्व उसने एक बिगड़ैल साँड को कन्धे का सहारा देकर चित्त पटक दिया और उससे भागते ही बना।
सर्वविदित है ही कि अनीति एवं आतंक के पक्षधर एक किराये के हत्यारे ने एक वर्ष पूरे पाँच बोर की रिवाल्वर से लगातार हम पर फायर किये और उसकी सभी गोलियाँ नलियों में उलझी रह गईं। अबकी बार वह छुरेबाजी पर उतर आया। छुरे चलते रहे। खून बहता रहा। पर भौंके गये सारे प्रहार शरीर में सीधे न घुसकर तिरछे फिसलकर निकल गये। डॉक्टरों ने जख्म सी दिये और कुछ ही सप्ताह में शरीर ज्यों का त्यों हो गया।
इसे परीक्षा का एक घटनाक्रम ही कहना चाहिये कि पाँच बोर का लोडेड रिवाल्वर शातिर हाथों से भी काम न कर सके। जानवर काटने के छुरे के बारह प्रहार मात्र प्रमाण के निशान छोड़कर अच्छे हो गये। आक्रमणकारी अपने बम से स्वयं घायल होकर जेल जा बैठा। जिसके आदेश से उसने यह किया था, उसे फाँसी की सजा घोषित हुई। असुरता के आक्रमण असफल हुये। एक उच्चस्तरीय दैवी प्रयास को निष्फल कर देना संभव न हो सका। मारने वाले से बचाने वाला बड़ा सिद्ध हुआ।
इन दिनों एक से पाँच करने की सूक्ष्मीकरण विद्या चल रही है। इसीलिये क्षीणता तो आई है। तो भी बाहर से काया ऐसी है, जिसे जितने दिन चाहें जीवित रखा जा सके। पर हम जान-बूझकर इसे इस स्थिति में रखेंगे नहीं। कारण कि सूक्ष्म शरीर से अधिक काम लिया जा सकता है और स्थूल शरीर उसमें किसी कदर बाधा ही डालता है।
शरीर की जीवनी शक्ति असाधारण रही है। उसके द्वारा दस गुना काम लिया गया है। शंकराचार्य, विवेकानन्द बत्तीस पैंतीस वर्ष जिये, पर 350 वर्ष के बराबर काम कर सके। हमने 75 वर्षों में विभिन्न स्तर के इतने काम किये हैं कि उनका लेखा-जोखा लेने पर वे 750 वर्ष से कम में होते संभव प्रतीत नहीं होते। यह सारा समय नव सृजन की एक से एक अधिक सफल भूमिकाऐं बनाने में लगा है। निष्क्रिय, निष्प्रयोजन कभी नहीं खाली रहा।
बुद्धि को भगवान के खेत में बोया और वह असाधारण प्रतिभा बनकर प्रकटी। अभी तक लिखा हुआ साहित्य इतना है जिसे शरीर के वजन से तोला जा सके। यह सभी उच्च कोटि का है। आर्ष ग्रन्थों के अनुवाद से लेकर प्रज्ञा युग की भावी पृष्ठभूमि बनाने वाला ही सब कुछ लिखा गया है। आगे का सन् 2000 तक का हमने अभी से लिखकर रख दिया है।
अध्यात्म को विज्ञान से मिलाने की योजना कल्पना में तो कइयों के मन में थी पर उसे कोई कार्यान्वित न कर सका। इस असंभव होते देखना हो तो ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान में आकर अपनी आँखों से स्वयं देखना चाहिये। जो संभावनायें सामने हैं उन्हें देखते हुये कहा जा सकता है कि अगले दिनों अध्यात्म की रूपरेखा विशुद्ध विज्ञान परक बनकर रहेगी।
छोटे-छोटे देश अपनी पंचवर्षीय योजनायें बनाने के लिये आकाश-पाताल के कुलावे मिलाते हैं। पर समस्त विश्व की काया-कल्प योजना का चिन्तन और क्रियान्वयन जिस प्रकार शान्तिकुंज के तत्वावधान में चल रहा है, उसे एक शब्द में अद्भुत एवं अनुपम ही कहा जा सकता है।
भावनायें हमने पिछड़ों के लिए समर्पित की हैं। शिव ने भी यही किया था। उनके साथ चित्र-विचित्र समुदाय रहता था और सर्पों तक को वे गले लगाते थे। उसी राह पर हमें भी चलते रहना पड़ा है। हम पर छुरा रिवाल्वर चलाने वाले को पकड़ने वाले जब दौड़ रहे थे, पुलिस भी लगी हुई थी। सभी को हमने वापस बुला लिया और घातक को जल्दी ही भाग जाने का अवसर दिया। जीवन में ऐसे अनेकों प्रसंग आए हैं, जब प्रतिपक्षी अपनी ओर से कुछ न रहने देने पर भी मात्र हँसने और हँसाने के रूप में प्रतिदान पाते रहे हैं।
हमसे जितना प्यार लोगों से किया है, उससे सौ गुनी संख्या और मात्रा में लोग हमारे ऊपर प्यार लुटाते रहे हैं। निर्देशों पर चलते रहे हैं और घाटा उठाने तथा कष्ट सहने में पीछे नहीं रहे हैं। कुछ दिन पूर्व, प्रज्ञा संस्थान बनाने का स्वजनों को आदेश किया तो दो वर्ष के भीतर 2400 गायत्री शक्ति पीठों की भव्य इमारतें बन कर खड़ी हो गईं और उसमें लाखों रुपयों की राशि रकम खप गई। बिना इमारत के 12 हजार प्रज्ञा संस्थान बने सो अलग। छुरा लगा तो सहानुभूति में इतनी बड़ी संख्या स्वजनों की उमड़ी, मानों मनुष्यों का आँधी तूफान आया हो। इनमें से हर एक बदला लेने के लिए आतुरता व्यक्त कर रहा था। हमने-माताजी ने सभी को दुलारकर दूसरी दिशा में मोड़ा। यह हमारे प्रति प्यार की-सघन आत्मीयता की ही अभिव्यक्ति तो है।
हमने जीवन भर प्यार खरीदा बटोरा और लुटाया है। इसका एक नमूना हमारी धर्मपत्नी, जिन्हें हम माताजी कहकर सम्बोधित करते हैं, की भावनाएं पढ़कर कोई भी समझ सकता है। वे काया और छाया की तरह साथ रही हैं और एक प्राण दो शरीर की तरह हमारे हर काम में हर घड़ी हाथ बंटाती रही हैं।
पशु-पक्षियों तक का हमने ऐसा प्यार पाया है कि वे स्वजन सहचर की तरह आगे-पीछे फिरते रहे हैं। लोगों ने आश्चर्य से देखा है कि सामान्यतः जो प्राणी मनुष्य से सर्वथा दूर रहते हैं वे किस तरह कन्धे पर बैठते, पीछे-पीछे फिरते और चुपके से बिस्तर में आ सोते हैं। ऐसे दृश्य हजारों ने हजारों की संख्या में देखे और आश्चर्यचकित रह गये हैं। यह और कुछ नहीं प्रेम का प्रतिदान मात्र था।
धन की हमें समय-समय पर भारी आवश्यकता पड़ती रही है। गायत्री तपोभूमि, शांतिकुंज और ब्रह्मवर्चस् की इमारतें करोड़ों रुपया मूल्य की है। मनुष्य के आगे हाथ न पसारने का व्रत निबाहते हुए अयाचक व्रत-निबाहते हुए यह सारी आवश्यकताएँ पूरी हुई हैं। पूरा समय काम करने वालों की संख्या एक हजार से ऊपर है। इनकी आजीविका की ब्राह्मणोचित व्यवस्था बराबर चलती रहती है। इनमें योग्यता की दृष्टि से इतने ऊँचे स्तर के लोग हैं कि अन्य किसी सामाजिक संस्था में कदाचित् ही इस स्तर के और इतने लोग हों। इनमें अनेकों ऐसे हैं जो समाज की नहीं, अपनी ही जमा-पूँजी के ब्याज से अपना खर्च चलाते व मिशन की सेवा करते हैं।
प्रेस, प्रकाशन, प्रचार में संलग्न जीप गाड़ियाँ तथा अन्यान्य खर्चें ऐसे हैं, जो समयानुसार बिना किसी कठिनाई के पूरे होते रहते हैं। यह वह फसल है जो अपने पास की एक-एक पाई को भगवान के खेत में बो देने के उपरान्त हमें मिली है। इस फसल पर हमें गर्व है। जमींदारी समाप्त होने पर जो धनराशि मिली, वह गायत्री तपोभूमि निर्माण में दे दी। पूर्वजों की छोड़ी जमीन किसी कुटुम्बी को न देकर जन्मभूमि में हाईस्कूल और अस्पताल बनाने में लगा दी। हम व्यक्तिगत रूप से खाली हाथ हैं पर योजनाएँ ऐसी चलाते हैं जैसी लखपति करोड़पतियों के लिए भी सम्भव नहीं हैं। यह सब हमारे मार्गदर्शक के उस सूत्र के कारण सम्भव हो पाया है, जिसमें उन्होंने कहा था- ‘‘जमा मत करो, बिखेर दो। बोओ और काटो।” सत्प्रवृत्तियों का उद्यान जो प्रज्ञा परिवार के रूप में लहलहाता दृश्यमान होता है, उसकी पृष्ठभूमि इसी सूत्र संकेत के आधार पर बनी है।