तीसरा हिमालय यात्रा-ऋषि परम्परा का बीजारोपण

April 1985

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मथुरा का कार्य सुचारु रूप से चल पड़ने के उपरान्त हिमालय से तीसरा बुलावा आया, जिसमें अगले चौथे कदम को उठाये जाने का संकेत था। समय भी काफी हो गया था। इस बार कार्य का दबाव अत्यधिक रहा और सफलता के साथ-साथ थकान बढ़ती गई थी। ऐसी परिस्थितियों में बैटरी चार्ज करने का यह निमन्त्रण हमारे लिए बहुत ही उत्साहवर्धक था।

निर्धारित दिन प्रयाण आरम्भ हो गया। देखे हुए रास्ते को पार करने में कोई कठिनाई नहीं हुई। फिर मौसम भी ऐसा रखा गया था जिसमें शीत के कड़े प्रकोप का सामना न करना पड़ता और एकाकीपन की प्रथम बार जैसी कठिनाई न पड़ती। गोमुख पहुँचने पर गुरुदेव के छाया पुरुष का मिलना और अत्यन्त सरलता पूर्वक नन्दन वन पहुँचा देने का क्रम पिछली बार जैसा ही रहा। सच्चे आत्मीय जनों का पारस्परिक मिलन कितना आनन्द उल्लास भरा होता है इसे भुक्त-भोगी ही जानते हैं। रास्ते भर जिस शुभ घड़ी की प्रतीक्षा करनी पड़ी वह आखिर आ ही गई। अभिवादन आशीर्वाद का क्रम चला और पीछे बहुमूल्य मार्गदर्शन का सिलसिला चल पड़ा।

अब की बार मथुरा छोड़कर हरिद्वार डेरा डालने का निर्देश मिला और कहा गया कि “वहाँ रहकर ऋषि परंपरा को पुनर्जीवित करने का कार्य आरम्भ करना है। तुम्हें याद है न, जब यहाँ प्रथम बार आये थे और हमने सूक्ष्म शरीरधारी इस क्षेत्र के ऋषियों का दर्शन कराया था। हर एक ने उनकी परम्परा लुप्त हो जाने पर दुःख प्रकट किया था और तुमने यह वचन दिया था कि इस कार्य को भी सम्पन्न करोगे। इस बार उसी निमित्त बुलाया गया है।

भगवान अशरीरी हैं। जब कभी उन्हें महत्वपूर्ण कार्य कराने होते हैं तो ऋषियों के द्वारा कराते हैं। महापुरुषों को वे बनाकर खड़े कर देते हैं। स्वयं तप करते रहते हैं और अपनी शक्ति देवात्माओं को देकर बड़े काम करा लेते हैं। भगवान राम को विश्वामित्र अपने यहाँ यज्ञ रक्षा के बहाने ले गये थे और वहाँ बला- अतिबला- विद्या- (गायत्री और सावित्री) की शिक्षा देकर उनके द्वारा असुरता का दुर्ग ढहाने तथा राम राज्य, धर्मराज्य की स्थापना का कार्य कराया था। कृष्ण भी संदीपन ऋषि के आश्रम में पढ़ने गये थे और वहाँ से गीता गायन, महाभारत निर्णय तथा सुदामा ऋषि की कार्य पद्धति को आगे बढ़ाने का निर्देशन लेकर वापस लौटे थे। समस्त पुराण इसी उल्लेख से भरे पड़े हैं कि ऋषियों के द्वारा महापुरुष उत्पन्न किये गये और उनकी सहायता से महान कार्य सम्पादित कराये गये। स्वयं तो वे शोध प्रयोजनों में और तप साधनाओं में संलग्न रहते ही थे। इसी कार्य को तुम्हें अब पूरा करना है।”

“गायत्री के मन्त्र दृष्टा विश्वामित्र थे। उनने सप्त सरोवर नामक स्थान पर रहकर गायत्री की पारंगतता प्राप्त की थी। वही स्थान तुम्हारे लिये भी नियत है। उपयोगी स्थान तुम्हें सरलता पूर्वक मिल जायेगा। उसका नाम शाँतिकुंज गायत्री तीर्थ रखना और उन सब कार्यों का बीजारोपण करना जिन्हें पुरातन काल के ऋषिगण स्थूल शरीर से करते रहे हैं। अब वे सूक्ष्म शरीर में हैं। इसलिए अभीष्ट प्रयोजन के लिए किसी शरीरधारी को माध्यम बनाने की आवश्यकता पड़ रही है। हमें भी तो ऐसी ही आवश्यकता पड़ी और तुम्हारे स्थूल शरीर को इसके लिए सत्पात्र देखकर संपर्क बनाया और अभीष्ट कार्यक्रमों में लगाया। यही इच्छा इन सभी ऋषियों की है। तुम उनकी परम्पराओं का नये सिरे से बीजारोपण करना। उन कार्यों में अपेक्षाकृत भारीपन रहेगा और कठिनाई भी अधिक रहेगी। किंतु साथ ही एक अतिरिक्त लाभ भी है कि हमारा ही नहीं, उन सबका भी संरक्षण और अनुदान तुम्हें मिलता रहेगा। इसलिए कोई कार्य रुकेगा नहीं।”

जिन ऋषियों के छोड़े कार्य को हमें आगे बढ़ाना था, उसका संक्षिप्त विवरण बताते हुए उन्होंने कहा- विश्वामित्र परम्परा में गायत्री महामन्त्र की शक्ति से जन-जन को अवगत कराना एवं एक सिद्ध पीठ-गायत्री तीर्थ का निर्माण करना है। व्यास परम्परा में आर्ष साहित्य के अलावा अन्यान्य पक्षों पर साहित्य सृजन एवं प्रज्ञा पुराण के 18 खण्डों को लिखने का, पातंजलि परम्परा में योग साधना के तत्वज्ञान के विस्तार का, परशुराम परम्परा में अनीति उन्मूलन हेतु जन-मानस के परिष्कार के वातावरण निर्माण का तथा भागीरथ परम्परा में ज्ञान गंगा को जन-जन तक पहुँचाने का दायित्व सौंपा गया। चरक परम्परा में वनौषधि पुनर्जीवन एवं वैज्ञानिक अनुसन्धान, याज्ञवल्क्य परम्परा में यज्ञ से मनोविकारों के शमन द्वारा समग्र चिकित्सा पद्धति का निर्धारण, जगदग्नि परम्परा में साधना आरण्यक का निर्माण एवं संस्कारों का बीजारोपण, नारद परम्परा में सत्परामर्श- परिव्रज्या के माध्यम से धर्म चेतना का विस्तार, आर्य भट्ट परम्परा में ज्योतिर्विज्ञान का नूतन अनुसन्धान, वशिष्ठ परम्परा में धर्मतंत्र के माध्यम से राजतन्त्र का मार्गदर्शन, शंकराचार्य परम्परा में स्थान-स्थान पर प्रज्ञा संस्थानों के निर्माण का, पिप्पलाद परम्परा में आहार-कल्प के माध्यम से समग्र स्वास्थ्य संवर्धन एवं सूत-शौनिक परम्परा में स्थान-स्थान पर प्रज्ञापरिजनों द्वारा लोक-शिक्षण की रूप रेखा के सूत्र हमें बताये गये। अथर्ववेदीय विज्ञान परम्परा में कणाद ऋषि प्रणीत वैज्ञानिक अनुसन्धान पद्धति के आधार पर ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान की रूपरेखा बनी।

हरिद्वार रहकर हमें क्या करना है और मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का समाधान कैसे करना है? यह हमें ऊपर बताए निर्देशों के अनुसार क्रम से विस्तारपूर्वक बता दिया गया। सभी बातें पहले की ही तरह गाँठ बाँध लीं। पिछली बार मात्र गुरुदेव अकेले की ही इच्छाओं की पूर्ति का कार्य भार था। अबकी बार इतनों का बोझ लादकर चलना पड़ेगा। गधे को अधिक सावधानी रखनी पड़ेगी और अधिक मेहनत भी करनी पड़ेगी।

साथ ही इतना सब कर लेने पर चौथी बार आने और उससे भी बड़ा उत्तरदायित्व सम्भालने तथा स्थूल शरीर की अपेक्षा सूक्ष्म शरीर अपनाने का कदम बढ़ाना पड़ेगा। यह सब इस बार उनने स्पष्ट नहीं किया, मात्र संकेत ही दिया।

यह भी बताया कि हरिद्वार की कार्य पद्धति मथुरा के कार्यक्रम से बड़ी है। इसलिए उतार-चढ़ाव भी बहुत रहेंगे। असुरता के आक्रमण भी सहने पड़ेंगे, आदि आदि बातें उन्होंने पूरी तरह समझा दीं। समय की विषमता को देखते हुए उस क्षेत्र में अधिक रुकना उन्हें उचित न लगा और एक वर्ष के स्थान पर छः महीने रहने का ही निर्देश दिया। कहाँ, किस प्रकार रहना और किस दिनचर्या का निर्वाह करना, यह उनने समझाकर बात समाप्त की और पिछली बार की भाँति ही अंतर्ध्यान होते हुए चलते-चलते यह कह गये कि “इस कार्य को सभी ऋषियों का सम्मिलित कार्य समझना, मात्र हमारा नहीं।” हमने भी विदाई का प्रणाम करते हुए इतना ही कहा कि “हमारे लिए आप ही समस्त देवताओं के, समस्त ऋषियों के और परब्रह्म के प्रतिनिधि हैं। आपके आदेश को इस शरीर के रहते टाला न जायेगा।”

बात समाप्त हुई। हम विदाई लेकर चल पड़े। छाया पुरुष (वीरभद्र) ने गोमुख तक पहुँचा दिया। आगे अपने पैरों से बताये हुए स्थान के लिए चल पड़े।

जिन-जिन स्थानों पर इन यात्राओं में हमें ठहरना पड़ा, उनका उल्लेख यहाँ इसलिये नहीं किया गया कि वे सभी दुर्गम हिमालय में गुफाओं के निवासी थे। समय-समय पर स्थान बदलते रहते थे। अब तो उनके शरीर भी समाप्त हो गये। ऐसी दशा में उल्लेख की आवश्यकता न रही।

लौटते हुए हरिद्वार उसी स्थान पर रुके, सप्त ऋषियों की तपोभूमि में, जिस स्थान का संकेत गुरुदेव ने किया था। काफी हिस्सा सुनसान पड़ा था और बिकाऊ भी था। जमीन पानी उगलती थी। पहले यहाँ गंगा बहती थी। यह स्थान सुहाया भी। जमीन के मालिक से चर्चा हुई और शेष जमीन का सौदा आसानी से पट गया। उसे खरीदने में लिखा-पड़ी कराने में विलम्ब न हुआ। जमीन मिल जाने के उपरान्त यह देखना था कि वहाँ कहाँ, क्या बनाना है। यह भी एकाकी ही निर्णय करना पड़ा। सलाहकारों का परामर्श काम न आया क्योंकि उन्हें बहुत कोशिश करने पर भी यह नहीं समझाया जा सका कि यहाँ किस प्रयोजन के लिए किस आकार-प्रकार का निर्माण होना है। यह कार्य भी हमने ही पूरा किया। इस प्रकार शाँतिकुंज-गायत्री तीर्थ की स्थापना हुई।


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