नवयुग का आगमन अतिनिकट है।

April 1985

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जो संकट इन दिनों सामने खड़े दृष्टिगोचर हो रहे हैं, विज्ञजनों ने जिन सम्भावनाओं का अनुमान लगाया है, वे काल्पनिक नहीं हैं। विभीषिकाएँ वास्तविक हैं, इतने पर भी विश्वासियों को यह विश्वास करना चाहिए कि समय चक्र को बदला जायेगा और जो संकट सामने खड़े दीखते हैं, उन्हें उलटा जायेगा।

सामान्य स्तर के लोगों की इच्छा शक्ति भी काम करती है। जनमत का भी दबाव पड़ता है। जिन लोगों के हाथ में इन दिनों विश्व की परिस्थितियाँ बिगाड़ने की क्षमता है, उन्हें जागृत लोकमत के सामने झुकना ही पड़ेगा। लोकमत को जागृत करने का अभियान “प्रज्ञा आन्दोलन” द्वारा चल रहा है। यह क्रमशः बढ़ता और सशक्त होता जायेगा। इसका दबाव हर प्रभावशाली क्षेत्र के समर्थ व्यक्तियों पर पड़ेगा और उनका मन बदलेगा कि अपने कौशल, चातुर्य को विनाश की योजनाएं बनाने की अपेक्षा विकास के निमित्त लगाना चाहिए। प्रतिभा एक महान शक्ति है। वह जिधर भी अग्रसर होती है, उधर ही चमत्कार प्रस्तुत करती जाती है।

वर्तमान समस्याएँ एक दूसरे से गुँथी हुई हैं। एक से दूसरी का घनिष्ठ सम्बन्ध है, चाहे वह पर्यावरण हो अथवा युद्ध सामग्री का जमाव, बढ़ती अनीति-दुराचार हो अथवा अकाल-महामारी जैसी दैवी आपदाएं। एक को सुलझा लिया जाय और बाकी सब उलझी पड़ी रहें, ऐसा नहीं हो सकता। समाधान एक मुश्त खोजने पड़ेंगे और यदि इच्छा सच्ची है तो उनके हल निकल कर ही रहेंगे। शक्तियों में दो ही प्रमुख हैं। इन्हीं के माध्यम से कुछ बनता या बिगड़ता है। एक शस्त्र बल-धन-बल। दूसरा बुद्धि बल संगठन बल। पिछले बहुत समय से शस्त्र बल और धन बल के आधार पर मनुष्य को गिराया और अनुचित रीति से दबाया और जो मन आया, सो कराया जाता रहा है। यही दानवी शक्ति है। अगले दिनों दैवी शक्ति को आगे आना है और बुद्धिबल तथा संगठन बल का प्रभाव अनुभव कराना है। सही दिशा में चलने पर यह दैवी सामर्थ्य क्या कुछ कर दिखा सकती हैं, इसकी अनुभूति सबको करानी है। न्याय की प्रतिष्ठा हो, नीति को सब ओर से मान्यता मिले, सब लोग हिलमिल कर रहें और मिल बांटकर खायें, इस सिद्धांत को जन भावना द्वारा सच्चे मन से स्वीकारा जायेगा, तो दिशा मिलेगी, उपाय सूझेंगे, नयी योजनाएं बनेंगी, प्रयास चलेंगे और अंततः लक्ष्य तक पहुंचने का उपाय बन ही जायेगा। ‘‘आत्मवत् सर्व भूतेषु’’ और ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ यह दो ही सिद्धांत ऐसे हैं जिन्हें अपना लिये जाने के उपरांत तत्काल यह सूझ पड़ेगा कि इन दिनों किस अवांछनीयताओं को अपनाया गया है और उन्हें छोड़ने के लिए क्या साहस अपनाना पड़ेगा, किस स्तर का संघर्ष करना पड़ेगा। मनुष्य की सामर्थ्य अपार है। वह जिसे करने की यदि ठान ले और उसे औचित्य के आधार पर अपना ले तो कोई कठिन कार्य ऐसा नहीं है, जिसे पूरा न किया जा सके। नव निर्माण का प्रश्न भी ऐसा ही है। मनुष्य कुछ बनाने पर उतारू हो तो वह क्या नहीं बना सकता? मिश्र के पिरामिड, चीन के दीवार, ताजमहल, स्वेज तथा पनामा की नहर, पीसा की मीनार उसी के प्रयासों से ही तो बन पड़े हैं। जलयान, थलयान, नभयान के रूप में उसी की सूझ-बूझ दौड़ती है। नवयुग निर्माण के लिए प्रतिभाशाली लोगों को लोकमत के दबाव से विवश यदि किया जाय तो कोई कारण नहीं कि “मनुष्य में देवत्व” के उदय और “धरती पर स्वर्ग” के अवतरण की प्रक्रिया कुछ ही समय में सरलतापूर्वक सम्पन्न न की जा सके।

अगले दिनों एक विश्व, एक भाषा, एक धर्म, एक संस्कृति का प्रावधान बनने जा रहा है। जाति, लिंग, वर्ण और धन के आधार पर बरती जाने वाली विषमता का अन्त समय अब निकट आ गया। इसके लिए जो कुछ करना आवश्यक है, वह सूझेगा भी और विचारशील लोगों के द्वारा पराक्रम पूर्वक किया भी जायेगा। यह समय निकट है। इसकी हम सब उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा कर सकते हैं।


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