चौथा और अन्तिम निर्देशन

April 1985

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

चौथी बार गत वर्ष पुनः हमें एक सप्ताह के लिए हिमालय बुलाया गया। संदेश पूर्ववत् सन्देश रूप में आया। आज्ञा के परिपालन में विलम्ब कहाँ होना था। हमारा शरीर सौंपे हुए कार्यक्रमों में खटता रहा है, किन्तु मन सदैव दुर्गम हिमालय अपने गुरु के पास रहा है। कहने में संकोच होता है पर प्रतीत ऐसा भी होता है कि गुरुदेव का शरीर हिमालय रहता है और मन हमारे इर्द-गर्द मँडराता रहता है। उनकी वाणी अन्तराल में प्रेरणा बनकर गूँजती रहती है। उसी चाबी के कसे जाने पर हृदय और मस्तिष्क का पेण्डुलम धड़कता और उछलता रहता है।

यात्रा पहली तीनों बार की ही तरह कठिन रही। इस बार साधक की परिपक्वता के कारण सूक्ष्म शरीर को आने का निर्देश मिला था। उसी काया को एक साथ तीन परीक्षाओं को पुनः देना था। साधना क्षेत्र में एक बार उत्तीर्ण हो जाने पर पिसे को पीसना भर रह जाता है। मार्ग देखा-भाला था। दिनचर्या बनी बनाई थी। गोमुख से साथ मिल जाना और तपोवन तक सह जा पहुँचना यही क्रम पुनः चला। उनका सूक्ष्म शरीर कहाँ रहता है, क्या करता है यह हमने कभी नहीं पूछा। हमें तो भेंट का स्थान मालूम है- मखमली गलीचा। ब्रह्मकमल की पहचान हो गई थी। उसी को ढूंढ़ लेते और उसी को प्रथम मिलन पर गुरुदेव के चरणों पर चढ़ा देते। अभिवन्दन-आशीर्वाद के शिष्टाचार में तनिक भी देर न लगती और काम की बात तुरन्त आरम्भ हो जाती। यही प्रकरण इस बार भी दुहराया गया। रास्ते में मन सोचता आया कि जब भी जितनी बार भी बुलाया गया है, तभी पुराना स्थान छोड़कर अन्यत्र जाना पड़ा है। इस बार भी सम्वत् वैसा ही होगा। शांतिकुंज छोड़ने के उपरान्त सम्भवतः अब इसी ऋषि प्रदेश में आने का आदेश मिलेगा और इस बार कोई काम पिछले अन्य कामों की तुलना में बड़े कदम के रूप में उठाना होगा। यह रास्ते के संकल्प विकल्प थे। अब तो प्रत्यक्ष भेंट हो रही थी।

अब तक के कार्यों पर उनने अपना प्रसन्नता व्यक्त की। हमने इतना ही कहा- ‘‘काम आप करते हैं और श्रेय मुझ जैसे वानर को देते हैं। समग्र समर्पण कर देने के उपरान्त यह शरीर और मन दिखने भर के लिए ही अलग है वस्तुतः यह सब कुछ आपकी ही सम्पदा है। जब जैसा चाहते हैं, तब वैसा तोड़ मरोड़कर आप ही उपयोग कर लेते हैं।”

गुरुदेव ने कहा- ‘‘अब तक जो बताया और कराया गया है, वह नितान्त स्थानीय था और सामान्य भी। ऐसा जिसे वरिष्ठ मानव कर सकते हैं, भूतकाल में करते भी रहे हैं। तुम अगला काम सम्भालोगे तो यह सारे कार्यं दूसरे तुम्हारे अनुवर्ती लोग आसानी से करते रहेंगे। जो प्रथम कदम बढ़ाता है, उसे अग्रणी होने का श्रेय मिलता है। पीछे तो ग्रह नक्षत्र भी- सौर मण्डल के सदस्य भी अपनी-अपनी कक्षा पर किसी कठिनाई के ढर्रा चला ही रहे हैं।

अगला काम इससे भी बड़ा है। स्थूल वायु मण्डल और सूक्ष्म वातावरण, इन दिनों इतने विषाक्त हो गये हैं, जिससे मानवी गरिमा ही नहीं, सत्ता भी संकट में पड़ गयी है। भविष्य बहुत भयानक दिखता है। इससे परोक्षतः लड़ने के लिए हमें-तुम्हें वह सब कुछ करना पड़ेगा जिसे अद्भुत एवं अलौकिक कहा जा सके।

धरती का घेरा- वायु-जल और जमीन तीनों ही विषाक्त हो रहे हैं। वैज्ञानिक कुशलता के साथ अर्थ लोलुपता के मिल जाने से चल पड़े यन्त्रीकरण ने सर्वत्र विष बिखेर दिया है और ऐसी स्थिति पैदा करती है, जिसमें दुर्बलता, रुग्णता और अकाल मृत्यु का जोखिम हर किसी के शिर पर मँडराते लगा है। अणु आयुधों के अनाड़ियों के हाथों प्रयोगों का खतरा इतना बड़ा है कि उसके तनिक से व्यतिक्रम पर सब कुछ भस्मसात् हो सकता है। प्रज्ञा की उत्पत्ति बरसाती घास-पात की तरह हो रही है। यह खायेंगे क्या? रहेंगे कहाँ?, इन सब विपत्तियों विभीषिकाओं से विषाक्त वायुमण्डल धरती को नरक बना देगा।

जिस हवा में लोग साँस ले रहे हैं वह ऐसी है, जिसमें जो भी साँस लेता है, वह अचिन्त्य चिन्तन अपनाता और दुष्कर्म करता है। दुर्मति−जन्य दुर्गति हाथों-हाथ सामने आती जाती है। यह अदृश्य लोक में भर गए विकृत वातावरण का प्रतिफल है। इस स्थिति में जो भी रहेगा, नर पशु और नर पिशाच जैसे क्रिया-कृत्य करेगा। भगवान की इस सर्वोत्तम कृति धरती और सत्ता को इस प्रकार नरक बनते देखने में व्यथा होती है। महाविनाश की सम्भावना से कष्ट होता है। इस स्थिति को बदलने, इस समस्या का समाधान करने के लिए भारी गोवर्धन पर्वत उठाना पड़ेगा, लम्बा समुद्र छलाँगना पड़ेगा। इसके लिए वामन जैसे बड़े कदम उठाने के लिए तुम्हें बुलाया गया है।

इसके लिए तुम्हें एक से पाँच बनकर पाँच मोर्चों पर लड़ना पड़ेगा। कुन्ती के समान अपनी एकाकी सत्ता को निचोड़कर पाँच देवपुत्रों को जन्म देना होगा जिन्हें भिन्न-भिन्न मोर्चों पर भिन्न भूमिका प्रस्तुत करनी पड़ेगी।

मैंने बात के बीच विक्षेप करते हुए कहा- ‘‘यह तो आपने परिस्थितियों की बात कही। इतना सोचना और समस्या का समाधान खोजना आप बड़ों का काम है। मुझ बालक को तो काम बता दीजिए और सदा की तरह कठपुतली के तारों को अपनी उँगलियों में बाँधकर नाच नचाते रहिए। परामर्श मत कीजिए। समर्पित को तो केवल आदेश चाहिए। पहले भी आपने जब कोई मूक आदेश स्थूलतः या सूक्ष्म सन्देश के रूप में भेजा है, उसमें हमने अपनी ओर से कोई ननुनच नहीं की। चौबीस गायत्री के महापुरश्चरणों के सम्पादन से लेकर स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेने तक, लेखनी पकड़ने से लेकर विराट् यज्ञायोजन तक एवं विशाल संगठन खड़ा करने से लेकर करोड़ों की स्थापनाएं करने तक आपकी आज्ञा, संरक्षण एवं मार्गदर्शन ने ही सारी भूमिका निभाई है। दृश्य रूप में हम भले ही सबके समक्ष रहे हों, हमारा अन्तःकरण जानता है कि यह सब कराने वाली सत्ता कौन है? फिर इसमें हमारा सुझाव कैसा, सलाह कैसी? परिस्थितियों के संदर्भ में आपका जो भी निर्देश होगा, वह करेंगे। इस शरीर का एक-एक कण, रक्त की एक-एक बूँद, चिन्तन-अन्तःकरण आपको-विश्व मानवता को समर्पित है।” उनने प्रसन्न वदन स्वीकारोक्त प्रकट की एवं परावाणी से निर्देश व्यक्त करने का उन्होंने संकेत किया।

बात जो विवेचना स्तर की चल रही थी सो समाप्त हो गई और सार संकेत के रूप में जो करना था सो कहा जाने लगा।

“तुम्हें एक से पाँच बनना है। पाँच रामदूतों की तरह, पाँच पाण्डवों की तरह काम पाँच तरह से करने हैं इसलिए इसी शरीर को पाँच बनाना है। एक पेड़ पर पाँच पक्षी रह सकते हैं। तुम अपने को पाँच बनालो। इसे “सूक्ष्मीकरण” कहते हैं। पाँच शरीर सूक्ष्म रहेंगे क्योंकि व्यापक क्षेत्र को सम्भालना सूक्ष्म सत्ता से ही बन पड़ता है। जब तक वे पाँचों परिपक्व होकर अपने स्वतन्त्र काम न सम्भाल सकें, तब तक इसी शरीर से उनका परिपोषण करते रहो। इसमें एक वर्ष भी लग सकता है एवं अधिक समय भी। जब वे समर्थ हो जायें तो उन्हें अपना काम करने हेतु मुक्त कर देना। समय आने पर तुम्हारे दृश्यमान स्थूल शरीर की छुट्टी हो जाएगी।”

यह दिशा निर्देशन हो गया। करना क्या है? कैसे करना है? इसका प्रसंग उन्होंने अपनी वाणी में समझा दिया। इसका विवरण बताने का आदेश नहीं है। जो कहा गया है, उसे कर रहे हैं। संक्षेप में इसे इतना ही समझना पर्याप्त होगा। (1) वायुमण्डल का संशोधन। (2) वातावरण का परिष्कार। (3) नवयुग का निर्माण। (4) महाविनाश का विस्तृतीकरण समापन। (5) देवमानवों का उत्पादन-अभिवर्धन।

“यह पाँचों काम किस प्रकार करने होंगे, इसके लिए अपनी सत्ता को पाँच भागों में कैसे विभाजित करना होगा, भागीरथ और दधीचि की भूमिका किस प्रकार निभानी होगी, इसके लिए लौकिक क्रिया-कलापों से विराम लेना होगा। बिखराव को समेटना पड़ेगा। यही है-सूक्ष्मीकरण।”

“इसके लिए जो करना होगा, समय-समय पर बताते रहेंगे। योजना को असफल बनाने के लिए, इस शरीर को समाप्त करने के लिए जो दानवी प्रहार होंगे उससे बचाते चलेंगे। पूर्व में हुए आसुरी आक्रमण की पुनरावृत्ति कभी भी किसी भी क्रम में सज्जनों-परिजनों पर प्रहार आदि के रूप में हो सकती है। पहले की तरह सबमें हमारा संरक्षण साथ रहेगा। अब तक जो काम तुम्हारे जिम्मे दिया है, उन्हें अपने समर्थ सुयोग्य परिजनों के सुपुर्द करते चलना, ताकि मिशन के किसी काम की चिन्ता या जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर न रहे। जिस महा परिवर्तन का ढाँचा हमारे मन है उसे पूरा तो नहीं बताते पर समयानुसार प्रकट करते रहेंगे। ऐसे विषम समय में उस रणनीति को समय से पूर्व प्रकट करने से उद्देश्य की हानि होगी।”

इस बार हमें अधिक समय रोका नहीं गया। बैटरी चार्ज करके बहुत दिनों तक काम चलाने वाली बात नहीं बनी। उन्होंने कहा कि “हमारी ऊर्जा अब तुम्हारे पीछे अदृश्य रूप में चलती रहेगी। अब हमें एवं जिनकी आवश्यकता होगी, उन ऋषियों को तुम्हारे साथ सदैव रहना और हाथ बँटाते रहना पड़ेगा। तुम्हें किसी अभाव का, आत्मिक ऊर्जा की कमी अनुभव नहीं होगी। वस्तुतः यह 5 गुनी और बढ़ जाएगी।”

हमें विदाई दी गई और शान्तिकुँज लौट आए। अपना कार्यक्रम घोषित करने की तो आज्ञा नहीं मिली है पर पंचकोशों को विकसित करके पाँच वीरभद्र कैसे परिपक्व किए जा सकते हैं और उनसे किस प्रकार क्या काम लिया जा सकता है, उसके विज्ञान को हम प्रकट कर रहे हैं और करते रहेंगे। इन दिनों हमारा एकान्त सेवन चल रहा है, ताकि बिखराव को रोक कर एक केन्द्र पर पूरी शक्ति का संचय किया जा सके।

इन दिनों हम कभी शान्तिकुंज, कभी मोर्चों पर, कभी हिमालय रहेंगे। स्थान, प्रवास समय सम्बन्धी घोषणा अप्रासंगिक है और रणनीति के सिद्धान्तों के प्रतिकूल भी, अतः हमने उसे पर्दे के पीछे ही रहने दिया है।

अभी भी मोहवश अनेकों परिजन हमारे स्थूल शरीर की बाबत पूछ बैठते हैं। इस शरीर ने गत एक वर्ष में अपने भिन्न-भिन्न रूपों में क्या किया हम अभी बताने की स्थिति में नहीं हैं क्रमशः जैसे समय आएगा, सच्ची वास्तविकता को जानेंगे। स्थूल शरीर से क्या बनता बिगड़ता है। वह तो यहाँ सामान्यावस्था में रहकर भी सूक्ष्म रूप में कहीं और अवस्थित हो सकता है। मोटी दृष्टि यह भेद नहीं कर सकती और है भी यह बात सही कि यह विज्ञान सम्मत एवं शक्य नहीं है। यही कारण है कि मौन एकाकी साधना के नाते हमने जान-बूझकर, हृदय पर पत्थर रखकर परिजनों व अपने बीच एक रहस्य भरा पर्दा डाल लिया है। हमारा लौकिक-दृश्य रूप जिन्होंने देखा है, वे भली-भाँति समझते हैं कि एकाकी, अपने परिजनों से स्थूल दृष्टि से दूर रहकर हमें कैसा लगता होगा? हम भी मनुष्य हैं, हमारी भी भाव सम्वेदनाएँ हैं, दिल हमारा भी धड़कता है। परन्तु मानव होने से बड़ा धर्म वह है जो हमें अपने गुरुदेव ने सौंपा है।

इतना स्पष्ट करने व पूर्व में बिताए एक वर्ष का प्रारूप बताकर हम परिजनों से यह कह देना चाहते हैं कि किसी भी स्थिति में हम किसी से भी दूर नहीं हैं। सूक्ष्म होकर तो हम उनके और भी निकट हैं। अभी तो यह देह है। गुरुदेव का यह आश्वासन भी कि हमें अपना यह स्वरूप पाँच वीरभद्रों सहित बनाए रखना है। ऐसे में उन्हें अपने अन्तः में, साधना काल की अवधि में, दिन-रात सोते-जागते, पर हितार्थाय कार्यरत रहते, अपनी जिम्मेदारी निबाहते हुए सतत् अपने समीप हमारी-आदर्शों की समुच्चय परम सत्ता के प्रतिनिधि की उपस्थिति एवं संरक्षण का अनुभव करना चाहिए। दर्शन न मिले इसलिए निराश नहीं होना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118