गुरु का सहयोग (kahani)

December 1984

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एक नाव नदी के किनारे बँधी थी। जाने-वाले कई थे। सोचने लगे, जब एक मल्लाह खेकर पार ले जाता है तो हम इतने मिल-जुलकर इसे पहुँचा नहीं सकते। सभी उत्साहपूर्वक नाव में सवार हो गये। नाव चली। बीच मझधार में जाकर चक्कर खाने लगी। पर जाने के कई प्रयत्न किये पर एक भी कारगर न हुआ। आखिर नाव डूब गई और एक भी न बचा।

एक, दूसरे घाट पर दूसरी घटना हुई। मल्लाह भी था और नाव भी। जाना कहाँ है, यह भी निश्चय था, पर उसने नशा पी रखा था। पेड़ से बँधे हुए रस्से को खोलने की याद ही न रही। मुसाफिर खुशी-खुशी बैठ गये और मल्लाह में डांच चलाना आरम्भ कर दिया। नाव हिलती-डुलती भर रही। रात के अन्धेरे में लगता ऐसा रहा कि नियत स्थान की ओर तेजी से बढ़े जा रहे हैं। सभी खुश थे। किन्तु सवेरा होते-होते देखा कि जहाँ से बैठे थे वहाँ वे वहीं हैं।

एक नाव का मल्लाह था ही नहीं, दूसरे का था तो पर उसके बददिमाग होने से मुसाफिरों को ही हैरानी सहनी पड़ी। यह कथा जीवन का लक्ष्य पार करने वाली उस नाव के सम्बन्ध में है, जिसके लिए कुशल प्रवीण गुरु का सहयोग मिले बिना कुछ बात बनती ही नहीं। हैरानी ही हैरानी हाथ लगती है।


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