“कर्मण्ये वाधिकारस्ते”

December 1984

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मनुष्य का अधिकार कहाँ तक है और अनाधिकार कहाँ तक? इसका विश्लेषण करते हुए गीता में भगवान् कहते हैं-

कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन।

अर्थात्- “तेरा अधिकार कर्म तक ही सीमित है। फल तक नहीं। इसलिए फल की आकाँक्षा करते हुए कर्म न कर।”

यों हर आदमी किसी फल की इच्छा से, परिणाम की आकाँक्षा से कर्म करता है। यह उचित भी है और आवश्यक भी। कोई वज्र मूर्ख या योगी परमहंस ही बिना विचारे काम कर सकता है। जो करेगा सो पीछे पछताता फिरेगा। कहा भी है- “बिना विचारे जो करे सो पीछे पछताय।” काम करने से पूर्व कई बातों पर विचार करना पड़ता है। अपनी योग्यता उतनी है या नहीं। उसके लिए आवश्यक साधन हैं या नहीं। अवसर है या नहीं। कृषि से लेकर व्यवसाय तक में हाथ डालने से पूर्व इन बातों पर विचार करना पड़ता है। जमीन न हो, बीज न हो, बोने का मौसम न हो तो जो भी कृषि करने का साहस करेगा वह मूर्ख कहलायेगा। यही बात व्यवसाय के सम्बन्ध में है। अनुभव, पूँजी, ग्राहक आदि का विचार करना पड़ता है तभी कोई व्यवसाय में हाथ डालता है। ऐसा कुछ भी विचार न करे और चाहे जब, चाहे जो व्यवसाय करने लगे तो पूँजी गँवाने, उपहास कराने के अतिरिक्त और क्या हाथ आने वाला है। सभी छोटे बड़े कामों की योजनाएँ बनती हैं और उसके उपरान्त ही उसका सरंजाम जुटाया जाता है। यही उचित और उपयुक्त भी है। अभीष्ट परिणाम की इसके बिना कोई आशा नहीं करता।

किन्तु प्रश्न वहाँ पेचीदा होता है, जहाँ यह मानकर चला जाता है कि यह प्रतिफल तो निश्चित रूप से हस्तगत हो ही जायेगा। इतना ही नहीं, आतुरता इतनी बढ़ी चढ़ी होती है कि जितनी बड़ी आशा की गई है उतनी हस्तगत न हो तो मानसिक सन्तुलन गँवा बैठा जाय। इतना शोक किया जाय कि विचार तन्त्र ही गड़बड़ाने लगे और यह भी न सूझ पड़े कि अब क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए?

उदाहरण के लिए कोई छात्र परीक्षा देने जाता है। उसके लिए आवश्यक तैयारी भी करता है पर किसी कारणवश उत्तीर्ण नहीं होता तो इतना शोकाकुल होने लगता है कि आत्म-हत्या की बात सोचता है या अगले वर्ष पढ़ने का विचार ही छोड़ देता है अथवा जिस-तिस पर दोषारोपण करने लगता है। अभिभावकों पर, अध्यापकों पर, प्रश्न पत्र बनाने या जाँचने वालों पर दोष मढ़ता है। गृह दशा खोटी बताता है। भाग्य को दोष देता है। यह सब विचार ऐसे हैं, जो उस विचार शक्ति को नष्ट कर देते हैं जो यह बता सकती है कि ऐसी दशा में क्या करना चाहिए।

सफलता मिलने पर आगे क्या करना चाहिए यह सोचने में किसी को कोई कठिनाई नहीं होती, पर असफलता मिलने की दशा में अगला कदम क्या हो, इसका निर्णय करने के लिए बढ़ी-चढ़ी सूझ-बूझ चाहिए। जो धक्का लगा है उसे सहन करने, सम्भालने और पहले से भी अधिक सावधानी के साथ काम को नये सिरे से आरम्भ करने के लिए सन्तुलित मस्तिष्क की आवश्यकता है अन्यथा शोकाकुल, अर्ध विक्षिप्त मनःस्थिति में किये गये काम के सम्बन्ध में पहले की भाँति ही असफलता मिलने की सम्भावना है। ऐसी दशा में दूनी चोट लगेगी और सम्भावना यहाँ तक हो सकती है कि कोई विद्यार्थी पढ़ना ही छोड़ बैठे। कोई व्यापारी दुकान ही उठा दे और काम को छोड़ बैठने पर बेकारी की स्थित में जो नाना प्रकार के कुविचार मस्तिष्क में आते हैं, उस स्थिति में कोई अनर्थ ही कर बैठे।

सफलता की आशा करना बहुत अच्छी बात है। उसके लिए पूरी सामर्थ्य भर कोशिश करना और भी अधिक आवश्यक है। इतने पर भी ऐसे कितने ही कारण है जिनके कारण असफलता हाथ लगे। प्रश्न पत्र ऐसा आ जाय जो विषय पढ़ा ही नहीं था या अध्यापक ने लापरवाही से पढ़ाया ही नहीं था। पर्चा जाँचने वाले का या बनाने वाले का अपना काम करते समय मूड खराब रहा हो। उत्तर लिखते समय बात को सही रीति से समझने में अपन में ही भूल रही हो। उस समय तबियत खराब हो गई हो या किसी लड़ाई झगड़े की वजह से मूड गड़बड़ा गया हो। ऐसे में से अनेक कारण अनुत्तीर्ण होने के हो सकते हैं। जो हो गया सो हो गया। महत्व की बात यह है कि बिगड़ी को बनाया कैसे जाय। लांगफेलो कहते थे कि हर असफलता के बाद सोचा जाना चाहिए कि पहले की अपेक्षा दूनी तत्परता के साथ काम करने की आवश्यकता है।

असफल होने पर उस राजा की कहानी याद करनी चाहिए जो बारह बार लड़ाई हारा था और छिपकर गुफा में बैठा था। उसने देखा मकड़ी जाला बुन रही है आर वह हर बार टूट जाता है। बारह बार असफल रहने के बाद उसे तेरहवीं बार सफलता मिली। राजा ब्रूसो ने उस घटना से प्रेरणा ली कि जब मकड़ी न तेरहवीं बार सफलता प्राप्त कर ली तो वह क्यों नहीं वैसा करेगा? तेरहवीं बार उसने फिर तैयारी की और इस बार जीत गया।

सफल होने पर अगला कदम उठाने के लिये जितनी बुद्धिमानी और हिम्मत की जरूरत है, हार जान- असफल हो जाने पर नये कदम का फैसला करने के लिए उससे कहीं अधिक समझदारी चाहिए।

सफलता किसी भी काम में सुनिश्चित नहीं है। जो चाहा है, वह हस्तगत हो ही जायेगा इसका कोई भरोसा नहीं। ऐसी दशा में अपना भविष्य ही बिगाड़ बैठना, हिम्मत छोड़ बैठना, समझदारी नहीं है। एक बुद्धिमान का कहना है कि भविष्य के लिए अच्छी से अच्छी आशा करनी चाहिए किन्तु बुरी से बुरी सम्भावना के लिए तैयार रहना चाहिए। अच्छा यही है कि पहले से ही बढ़चढ़कर आशा न की जाय।

अच्छा तरीका यह है कि जो करना चाहिए उसे पूरी मेहनत, लगन और दिलचस्पी के साथ किया जाय। अपने काम में इतना अधिक रस लिया जाय कि उसे करते समय इतना आनन्द आये कि हम जो कर सकते थे पूरी ईमानदारी और जिम्मेदारी के साथ किया है। प्रसन्न होने के लिए इतना ही पर्याप्त है।

जो असफलता मिलने पर चेहरे पर उदासी नहीं आने देता, मन को मलीन नहीं होने देता, हिम्मत को टूटने नहीं देता, वस्तुतः वही सच्चा समझदार और बहादुर है। दूसरे आदमी सहानुभूति दिखाने आयें तो उनसे कहना चाहिए हमने पूरी मेहनत से काम किया फिर अपना क्या कसूर जिसके लिए कोई सहानुभूति दिखाये। यदि मेहनत या सावधानी में कमी रखी है तो कहना चाहिए कि अपनी भूल का नतीजा सामने है। इसके लिए सहानुभूति न दिखायें, वरन् हिम्मत बढ़ाइये कि अगली बार अच्छे स्तर की सफलता प्राप्त कर सकें। जो लड़के एक साल फेल हो जाते हैं वे अच्छी मेहनत करने पर अगले वर्ष प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते हैं। क्योंकि उन्हें एक ही कक्षा में दो वर्ष पढ़ने का अवसर मिला, मनोबल उन्होंने खोया नहीं। अच्छा डिवीजन आना सौभाग्य का चिन्ह है। इससे हर काम में भविष्य उज्ज्वल बनता है। खराब डिवीजन मिलने की अपेक्षा फेल होना अच्छा। क्योंकि डिवीजन खराब होने से भविष्य में कोई अच्छा अवसर मिलने की आशा नहीं की जाती।

अपनी प्रसन्नता सदा सुरक्षित रखने के लिये अच्छा यह है कि अपनी मेहनत और कोशिश को ही सफलता माना जाय। उसी पर सन्तोष किया जाय। ऐसी मनःस्थिति रखने पर सफलता मिले तो भी प्रसन्नता और असफलता मिले तो भी प्रसन्नता। गीताकार ने इसलिए कहा है कि कर्म पर ही अपना अधिकार है, फल पर नहीं। इस मान्यता को अपना लेने पर आदमी कभी उदास नहीं होता और अगला कदम उठाने में कभी खिन्नता अनुभव नहीं करता।


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