सामूहिक आत्मघात पर उतारू मानव समुदाय

December 1984

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

माल्थस ने प्रतिपादित किया था कि “अन्य जीव-जन्तुओं की तरह मनुष्य पर भी इकालॉजी के वे सिद्धान्त लागू होते हैं, जिनके अनुसार इस धरती पर उपस्थित जनसंख्या का अनुपात बढ़ने एवं परस्पर विग्रह उत्पन्न होने पर उनका स्वतः नाश होने लगेगा।” मनुष्य, सृष्टा के राजकुमार की भाँति इस धरती पर जन्मा है। वे सभी साधन जो उसे उत्तराधिकार में मिले हैं तथा अक्षुण्ण नीरोग मानवी काया सदुपयोग किया जाने पर तो उसका गौरव बढ़ाती व जीवन को सार्थक बनाती है, किन्तु यदि अदूरदर्शितावश वह स्वयं क्षमताओं के दुरुपयोग पर उतारू हो तो प्रकृति का दण्ड विधान उस पर भी लागू होता है।

पृथ्वी का कुल क्षेत्रफल जितना है उसमें बहुत बड़ा भाग जल से ढका है। कुल 51 करोड़ 2 लाख वर्ग किलो मीटर के क्षेत्र में 20 प्रतिशत से कम ही ऐसा है, जिस पर आराम से रह सकने, उपलब्ध साधनों का समुचित उपयोग कर सकने, उपलब्ध साधनों का समुचित उपयोग कर सकने की गुंजाइश है। शर्त यही है कि अमर्यादित प्रजनन से मानव समुदाय की संख्या अधिक न बढ़ने पाए एवं वे सभी अपनी सीमा मर्यादा में बने रहकर शालीनता-उत्कृष्टता भर जीवन जी सकें। जब भी इन वर्जनाओं का उल्लंघन होता है, महाकाल का हण्टर परोक्ष रूप से मानव जाति को दण्ड देने हेतु गतिशील हो जाता है।

प्रौद्योगिकी एवं आधुनिक सभ्यता के विकास ने सुख सुविधाएँ तो दी हैं पर मनुष्य की शान्ति उससे छीन ली है। असंयम के कारण काया जर्जर होती चली जा रही है एवं मानसिक तनाव-बेचैनी के कारण उन्मादग्रस्तों, निराश मनःस्थिति के व्यक्तियों की संख्या बढ़ती जा रही है। सबसे भयावह परिणति यह हुई है कि एकाकी अथवा सामूहिक आत्महत्याओं की संख्या तेजी से बढ़ी है। जो मानव जीवन देवों के लिये भी दुर्लभ माना गया है, उसे पल भर में नष्ट कर असमय मृत्यु वरण कर लेना ऐसी विचित्र विडम्बना है जिसे मानवता का सबसे बड़ा दुर्भाग्य कहा जा सकता है। आज के युग की मानसिकता का परिचय यौन स्वेच्छाचार, सामूहिक बलात्कार, क्रूर हत्याओं व्याधियों व आत्मघातों के बाहुल्य, पारिवारिक विघटन, जाति-सम्प्रदाय गत अलगाव एवं युद्धोन्माद जैसी विषम परिस्थितियों से मिलता है। क्या कारण है कि प्राकृतिक संसाधनों, दैवी अनुदानों एवं स्वस्थ शरीर-मन के होते हुए भी ऐसी स्थिति आ पहुँची कि मानव जाति सामूहिक आत्मघात पर उतारू हो गयी? इसे समझने के लिये हमें जीव मनोविज्ञान एवं मन पर परिस्थितियों के सम्भावित प्रभावों का अध्ययन करना होगा।

आत्म रक्षा मनुष्य व सभी जीव जन्तुओं में पाई जाने वाली सर्वाधिक पुरातन एवं महत्वपूर्ण प्रवृत्ति है। इसके लिये जीव जन्तु तरह-तरह के उपाय अपनाते हैं। उन्हें हिंसक प्राणियों के बीच रहना पड़ता है जो अपना शिकार उन्हें बनाने के लिये सतत् तलाशते रहते हैं। प्रकृति ने उन्हें कैमोफ्लेज के समस्त साधन दिए हैं जिसके माध्यम से वे अपना बचाव प्रतिकूल परिस्थितियों में भी कर लेते हैं। किन्तु ये ही जीव-जन्तु एक स्थिति विशेष आने पर स्वेच्छा मृत्यु का वरण करने जैसा विचित्र व्यवहार करने लगते हैं। यह तब होता है, जब इनकी संख्या आनुपातिक क्रम में बढ़ जाती है अथवा कुछ अन्तर्ग्रही परिवर्तन इनके अन्दर की प्रसुप्त जैविक घड़ी को उत्तेजित करते हैं। स्कैण्डीनेवियन राष्ट्र नार्वे एवं स्वीडन में लेमिंग नामक चूहे जो टुण्ड्रा क्षेत्र के बर्फीले प्रदेश में निवास करते हैं, प्रति पाँचवें वर्ष सामूहिक रूप से आत्म हत्या करते देखे जाते हैं। इस वर्ष को “लेमिंग ईयर” कहा जाता है। अत्यल्प भूमि व भोजन के अभाव में चक्र वृद्धि ब्याज की दर से बढ़ती इनकी जनसंख्या पांचवें वर्ष अपनी चरम सीमा पर होती है। चूहे भोजन की तलाश में स्थान छोड़ कर चल देते हैं। गाँव, कस्बे, शहरों को पार करते हुए ये एटलाँटिक महासागर में कूदकर अपने प्राण दे देते हैं। मार्ग में भोजन मिल भी जाय तो ये रुकते नहीं। इनके अन्दर की घड़ी इन्हें “माइग्रेशन” की प्रेरणा देती रहती है व अन्ततः प्रजनन योग्य सीमित प्रजाति को छोड़कर ये सामूहिक आत्मघात कर डालते हैं। ऐसा हर पांचवें वर्ष होता है। इस दृश्य को देखने हजारों व्यक्ति समुद्र तट पर एकत्र होते हैं। विचित्र बात यह है कि यदि कोई इनके मार्ग में बाधा पहुँचाये तो ही ये चोट पहुँचाते हैं, नहीं तो अपनी यात्रा अनवरत जारी रखते हैं। जैसे-जैसे समुद्र तट समीप आता है, इनकी अवस्था पागलों जैसी हो जाती है। जीवविज्ञानी उस व्यवहार को समझ पाने में अक्षम रहे हैं। एक तर्क नेतृत्व विज्ञानियों का यह है कि सम्भवतः आदिकाल में अटलांटिक महासागर इनका “फीडिंग ग्राउण्ड” रहा होगा। उस अन्तःप्रवृत्ति की प्रेरणा ही इन्हें इस स्थिति तक पहुँचाती है। कुछ का मत है कि जनसंख्या वृद्धि के साथ चलने वाली विनाश की यह एक सहज प्रक्रिया है।

दक्षिणी अफ्रीका के एण्टे लोप स्प्रिंगबुक नामक हिरनों के ऐसे ही विचित्र व्यवहार का वर्णन 19वीं सदी के उत्तरार्ध में देखने को मिला है। सवान्ना के घास के मैदानों में ये सैकड़ों मील लम्बे झुण्ड बनाकर समुद्री किनारे की ओर चलते देखे गए। इनमें से आधे, रास्ते में ही समाप्त हो जाते थे व शेष समुद्र में डूबकर मर जाते थे। 1880 से 1899 तक यह प्रक्रिया जीव वैज्ञानिकों द्वारा प्रत्यक्ष देखी जाती रही। बाद में घास के मैदान भी नष्ट हो गए व मनुष्य की आबादी बढ़ने के कारण ये घने जंगलों में लुप्त हो गए। सम्भवतः किसी और रूप में उनकी यह आत्म हत्या की परम्परा जीवित हो।

ब्रिटिश द्वीप के समुद्री किनारों एवं अमेरिका के तटीय प्रदेश फ्लोरिडा में ह्वेल मछलियों की बहुत बड़ी संख्या हर वर्ष स्वेच्छा मृत्यु का वरण करती देखी जाती है। ज्वार-भाटे क साथ-साथ ये मछलियाँ किनारे आ लगती हैं व वापस समुद्र में जाने का प्रयास नहीं करतीं दम घुट जाने से उनकी वहीं मृत्यु हो जाती है। असम के वराइल पर्वत शृंखला में जटिंगा घाटी में अक्टूबर माह का घनी अँधेरी रातों में प्रकाश द्वीपों से टकराकर आ गिरने व प्राण त्याग देने वाले पक्षियों का विवरण तो सर्वविदित है। अभी तक इस रहस्य का सुलझाया नहीं जा सका है।

बढ़ती जनसंख्या कम हो एवं नस्ल बनी रहे, इस कारण जीव-जन्तुओं में स्वयं को नष्ट करने की यह प्रवृत्ति जाग उठती है, यह तथ्य थोड़ा बहुत गले उतरता है किन्तु मनुष्यों के बारे में क्या कहा जाय जिसमें एकाकी अथवा सामूहिक रूप में ये प्रवृत्तियाँ बीसवीं सदी के इस उत्तरार्ध में प्रकाश में आ रही हैं। वर्ल्ड हेल्थ आर्गनाइजेशन द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार दस वर्ष से पचपन वर्ष की उम्र में मरने वाले व्यक्तियों में जो पाँच कारण प्रमुख माने जाते हैं, उनमें से एक आत्महत्या है। 1974 में किये गये एक सर्वेक्षण के अनुसार एक हजार व्यक्ति पूरे विश्व में प्रतिदिन आत्महत्या द्वारा मृत्यु का वरण करते थे, जबकि 1983 के सर्वे के अनुसार यह संख्या बढ़कर चौबीस सौ व्यक्ति प्रतिदिन हो गयी। अकेले अमेरिका में ही 27 से 31 हजार व्यक्ति प्रतिवर्ष आत्महत्या करते देखे जाते हैं। इनमें से बहुसंख्य व्यक्ति वृद्ध, एकाकी, विधुर अथवा अविवाहित, शारीरिक व मानसिक दृष्टि से असाध्य रोगों से ग्रस्त एवं नशीली दवाओं के आदी पाये गये हैं। व्यवहार वैज्ञानिकों का मत है कि जीवन जीने का ढर्रा जिस तेजी से गत दो दशकों में बदला है, उसने जीने व आगे बढ़ने की होड़ में अनेकों व्यक्तियों को एकाकी व निराशाग्रस्त बना दिया है। अधिकाँश आत्महत्याओं के पीछे यह सामाजिक कारण महत्वपूर्ण भूमिका निभाता देखा गया है।

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार तीन प्रकार की श्रेणियाँ आत्म हत्या करने वाले व्यक्तियों की मानी जा सकती हैं। एक इगोइस्टिक- जिसमें व्यक्ति अकेला, इक्कड़ किस्म का होता है, अपने अलावा किसी और के विषय में नहीं सोचना। ऐसे व्यक्ति आधुनिक सभ्य समाज में बढ़ते जा रहे हैं। दूसरा एनोमिक- जिसमें समाज किसी व्यक्ति की आवश्यकताओं को पूरा कर पाने में असफल होता है एवं इस कारण पैदा हुए व्यवहार सम्बन्धी मनोविकारों का उचित समाधान परक उपचार नहीं हो पाता। तीसरा है- एलट्रूइस्टिक- जिसमें सामाजिक परम्पराएँ अथवा प्रचलन प्रमुख भूमिका निभाते हैं। इस वर्ग में आत्महत्या को शानदार मृत्यु माना जाता है।

एक विचित्र तथ्य इस अन्तिम आत्महत्या के प्रकार से गुँथा हुआ मिलता है कि बहुसंख्य व्यक्ति धार्मिक अन्धविश्वास के कारण मृत्यु को गले लगाते हैं। भारत की जौहर व सती प्रथा का उदाहरण क्रिश्चियन समाज में भी देखने को मिलता है। जीसस के क्रूस पर चढ़ने के बाद जूड़ास इस्केरियॉट ने मोक्ष प्राप्ति हेतु आत्महत्या कर आनन्ददायक मृत्यु का पथ-प्रशस्त किया था। 960 व्यक्तियों ने मसादा के किले में रोमन लोगों द्वारा तीन वर्ष तक घेराबन्दी के बाद सामूहिक आत्महत्या कर ली ताकि वे जीसस के समीप पहुँच सके। जापानी समुदाय में हाराकिरी एक सम्मान जनक मृत्यु मानी जाती है। द्वितीय विश्वयुद्ध में कामीकाजे पायलट अपने वायुयान सहित अमेरिकन व ब्रिटिश पोतों पर आत्मघाती हमला करते व दुश्मन को मारकर स्वयं मरते देखे गए। सभी को हीरो का सम्मान मिला। हाराकिरी या सिधुकू कई ऐसे व्यक्तियों ने अपनाई जिनकी आत्महत्या के पीछे कोई प्रत्यक्ष कारण नहीं था।

सामूहिक आत्महत्या का एक लोमहर्षक उदाहरण गत दशक में अमेरिका के जॉन्सटाऊन में धर्मगुरु जोन्स के आदेश पर सैकड़ों धर्मान्ध शिष्यों द्वारा जहर पीकर आत्मघात के रूप में जब संसार के समक्ष आया तो सब स्तब्ध रह गए। आज के विकसित सभ्य कहे जाने वाले समाज में ऐसा भी सम्भव है, यह कल्पना किसी को न थी। पिछले दिनों एक और अटकल समाचार पत्रों के माध्यम से प्रकाश में आई है। “वाशिंगटन पोस्ट” के संवाददाता विलियम रास्पबैरी के अनुसार अमेरिका के ओरेगाँव स्थित रजनीशपुरम, जहाँ भारत से भागे तथाकथित भगवान रजनीश ने अपना अड्डा जमाया है, में जोन्स टाउन की पुनरावृत्ति होने की आशंका है। धर्मान्ध शिष्यों से भरे इस छोटे से शहर पर रजनीश सम्प्रदाय का पूर्ण नियंत्रण है। बेकार, आवारा, नशीली दवाओं के आदी यौन स्वेच्छाचार की छूट प्राप्त इस समुदाय के विषय में अमेरिका के नागरिकों का मत है कि अपने तथाकथित ‘भगवान्’ के आदेश पर ये फेनेटिक कभी भी सामूहिक आत्महत्या कर सकते हैं।

प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य, जिसे एक गौरवशाली जिन्दगी जीने के लिये यह अलभ्य अवसर क्या इसीलिये मिला है कि वह उसे असमय ही नष्ट कर डाले। आँकड़े बताते हैं कि आधुनिकता के विकास के अनुपात में ही निराशा, तनाव व आत्महत्याओं की दर बड़ी है। जो निराशा से बचने के लिये विकल्प तलाशते हैं, वे धार्मिक अन्धविश्वासों की जकड़ में आ जाते हैं। विद्वान लेखक द्वय टॉम व्यूचैम्प एवं पार्लिन सैमूर ने अपनी पुस्तक “एथीकल इश्यूज इन डेथ एण्ड डाईंग” में लिखा है कि आत्महत्या की प्रवृत्ति मनुष्य की पाशविक आदिम प्रवृत्तियों के उभरने का संकेत देती है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य अपने परिकर एवं परिस्थितियों से सामंजस्य बिठा पाने में असमर्थ रहा है।

दृष्टा, भविष्य वक्ता एवं लेखक श्री जूलवर्न ने आज से 60 वर्ष पूर्व लिखा था कि “इस शताब्दी के अन्त में जनसंख्या तो बढ़ेगी पर लोग महामारी से जितना नहीं मरेंगे, उतना मनोविकारों एवं आत्महत्या के कारण स्वयमेव मृत्यु को प्राप्त होंगे। सभ्यता के विकास के साथ-साथ आत्मघातों की महामारी भी बढ़ती चली जाएगी और अन्ततः एक सन्तुलित समझदार समुदाय ही शेष बचा रहेगा, जब इंसान अपनी औकात भूलकर स्वयं भगवान बनने लगे, स्वच्छन्द व्यभिचार संस्कृति का एक अंग बन जाये तो कथन अतिशयोक्ति पूर्ण न होगा कि मानव जाति किसी के द्वारा युद्ध में मारे बिना ही स्वयमेव नष्ट हो जाए।”

अच्छा हो मनुष्य जाति समय रहते चेते एवं ईश्वर प्रदत्त जीवन सम्पदा का सदुपयोग करना सीखे। यह जीवन जीने के लिए मिला है, मरने के लिये नहीं। वैज्ञानिक अपनी ओर से मनुष्य को नीरोग एवं दीर्घायु बनाने के सारे प्रयास कर रहे हैं किन्तु उसी गति से मनोविकार एवं आत्मघाती प्रवृत्ति भी बढ़ रही है। ऐसे में वे सारे प्रयास व्यर्थ ही हैं। मनुष्य देव पुत्र है एवं उसका चरम लक्ष्य है अपने सृजेता से एकाकार हो विराट् बन जाना। यह कितनी बड़ी विडम्बना होगी कि यह विकसित आधुनिक सभ्यता देखते-देखते असमय ही नष्ट हो जाय। यदि मनुष्य ने समझदारी का प्रयोग नहीं किया तो आसार कुछ ऐसे नजर भी आते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118