वे बड़ी मुसीबतों के दिन थे। गृह कलह में फँसा भागीरथ का परिवार अभिशप्त होकर यन्त्रणाओं में जल रहा था। कई वर्षों से दुर्भिक्ष पड़ रहा था। जनता एक-एक बूँद पानी के लिए तरस गई थी। गंगा नाराज होकर स्वर्ग पधार गयी थी। राजकोष खाली पड़ा था। भागीरथ निन्दा और चिन्ता से बेचैन थे। प्रजाजन उस इलाके को छोड़कर कहीं और बसने जा रहे थे। वातावरण भय और आतंक से भरा था।
महर्षि भारद्वाज का परामर्श लेकर भागीरथ एकाकी तप करने के लिए हिमालय एकान्तवास को चले गए। गंगोत्री के समीप सुमेरु शिखर के नीचे भागीरथ शिला पर उनने कठोर तप आरम्भ कर दिया। लक्ष्य एक ही था- रूठी गंगा को वापस बुलाना। वे जुट पड़े। शिवजी ने उनका तप सार्थक बनाने में सहायता की। बड़ी कठिनाई से गंगा वापस लौटीं। समय बदला, संकट टला और दुर्भिक्ष पीड़ितों ने सन्तोष की साँस ली।
भागीरथ के पीछे भागीरथी चल पड़ीं। तप में जो न्यूनाधिक कमी शेष थी उसकी पूर्ति सप्तर्षि मिलकर एक साथ सप्त सरोवर में करने लगे।
सुख शान्ति का समय लौटा, सप्तर्षियों का प्रयास पूर्ण हुआ। भागीरथ की तपश्चर्या ने सारा वातावरण बदल दिया। सबने तप की महिमा और एकाकी पुरुषार्थ की गरिमा जागी। शान्ति को लौटाने का यही एक मार्ग था।