सामयिक गतिविधियों में तत्परता

December 1984

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मनुष्य के स्थूल शरीर में सभी अंग अवयव अपने महत्वपूर्ण दायित्व निबाहते हैं। योगाभ्यास के बलबूते कभी-कभी वे अपनी विलक्षण क्षमता का परिचय देने लगते हैं। श्वास क्रिया की साधना करने पर नाड़ी की गति न्यूनाधिक हो जाती है। हृदय की साधना करने से धड़कन रुक जाती है और योग तन्द्रा में समाधि जैसी स्थिति बन जाती है। मस्तिष्क इन सबसे विलक्षण है। उसकी सात प्रतिशत क्षमता ही दैनिक प्रयोजन में काम आती है। शेष सोई पड़ी रहती है। अभ्यास से अथवा पूर्ण संस्कारों से इनमें कुछ अविज्ञात अनभ्यस्त शक्तियाँ एक सीमा तक जीवित हो जाती हैं।

आत्मबल की साधना सूक्ष्म शरीर के बलबूते ही सम्भव होती है। जिस प्रकार शरीर में बहिरंग और अन्तरंग अवयव होते हैं उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर की संरचना के साथ गुँथे हुए अनेकों अदृश्य अवयव भी हैं और वे सभी अपनी-अपनी विशेषताओं से भरे हुए हैं। इनमें से कुछ का परिचय इस प्रकार है- (1) पंचकोश (अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोश), (2) षट्चक्र (मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूरित चक्र, अनाहत चक्र, आज्ञाचक्र, एवं सहस्रार चक्र), (3) त्रिग्रन्थि- (हृदय ग्रन्थि, नाभि ग्रन्थि, मस्तिष्क ग्रन्थि), (4) ब्रह्मरन्ध्र, (5) कुण्डलिनी (प्राण सर्पिणी), (6) तीन नाड़ी- (इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना)। इन सबके स्थानों और कार्यों का वर्णन करना यहाँ सम्भव नहीं। इसके लिए सूक्ष्म शरीर का पूरा ढाँचा बताना पड़ेगा और साथ ही यह विवेचन करना पड़ेगा कि इनमें प्रत्येक की क्या विशेषता और क्या साधना है। आवश्यक नहीं कि उनमें सभी की एक साथ साधना की जाय और सभी को बलिष्ठ एवं जागृत बनाया जाय। यह समूचा साधना विज्ञान समय साध्य है। इसमें से जिसकी जब आवश्यकता होती है तब उनका प्रयोग आवश्यक तप संयम अपनाने के बाद किया जाता है।

यह समस्त जानकारी शरीर विज्ञान से कहीं अधिक बढ़ कर है। एम.बी.बी.एस. करने में पाँच वर्ष लगते हैं। इसके आगे दो साल सीखे को पचाने व तीन वर्ष एम.डी. या एम.एस. की डिग्री प्राप्त करने में लगते हैं। कुल मिलाकर शरीर विज्ञान की पूर्णता के लिए नौ वर्ष चाहिए। इससे आगे सीखना हो तो कोई सीमा बन्धन वर्षों का नहीं। सूक्ष्म शरीर के अवयवों का स्वरूप वर्णन और कार्यक्रम समझने के लिए इससे कम नहीं वरन् और भी अधिक समय लगना चाहिए। चूँकि इस विषय पर अभी तक कोई साँगोपाँग अनुभूत ग्रन्थ नहीं छपा है। इसलिए प्रचलित परम्पराओं में से किसी का आश्रय लेकर आगे बढ़ने की ही प्रथा है। किसी पारंगत प्रवीण मार्गदर्शक के मिल जाने पर मार्ग सरल हो जाता है। अन्यथा भटकना पड़ता है और गलत रास्ते पर चल पड़ने से कई बाल उल्टी हानि होने की आशंका रहती है। यह परम्परागत शास्त्रीय निर्धारित मार्गों का संकेत है। गुरुदेव ने इन दिनों मार्ग अपनाया है उसे पंचकोशों और षट्चक्रों की साधना का सम्मिश्रण कहा जा सकता है। दुर्गम हिमालय स्थिति दादा गुरु के मार्गदर्शन में यह प्रक्रिया चल रही है। आरम्भ में 24 गायत्री महापुरश्चरणों की साधना 24 वर्षों में उन्हीं के निर्देश में हुई। इसके उपरान्त युग परिवर्तन की कार्य पद्धति पूरी करते रहने में 34 वर्ष लग गए। अब एक वर्ष की एकान्त साधना इस निमित्त है कि अपने प्रसुप्त पाँच वीर भद्रों को जागृत करके उन्हें अपने-अपने जिम्मे के क्रिया-कलाप सौंप दिए जायें। इसके उपरान्त वर्तमान स्थूल शरीर जब तक भी रखा जाना अभीष्ट है। तब तक एक घोंसले का काम करता रहेगा। एक बड़े घोंसले में कई अण्डे बच्चे रहते हैं। जब तक उसमें काम चलता है, निर्वाह करते रहते हैं। आवश्यकतानुसार हर पक्षी अपना अलग घोंसला भी बना सकता है।

शिवजी के पास कुछ वीरभद्र थे उनमें से एक ने निर्देशानुसार दक्ष का यज्ञ विध्वंस किया था। अन्य सभी निर्देश की प्रतीक्षा में रहते थे और अपने-अपने बताए कार्यों की आज्ञाएँ पालन करते थे। गुरुदेव अपने घोंसले में जिन वीरभद्रों को इस वर्ष पका रहे हैं, वे पाँच प्रमुख देवताओं से सम्बन्धित हैं- (1) सूर्य (2) इन्द्र (3) वरुण (4) अग्नि (5) पवन। कुन्ती ने भी दुर्वासा के मार्गदर्शन में अश्विनी कुमार सहित पाँच देवताओं की पृथक-पृथक साधना की थी और पाँच पाण्डवों एवं कर्ण को पुत्र रूप में जन्म दिया था। गुरुदेव के और कुन्ती के देवताओं में भी अन्तर है और साधना विधान में भी। प्रजनन की प्रक्रिया सरल और सर्वविदित है। पर बिना इस प्रक्रिया के जन्म देना हो तो कार्य कठिन जान पड़ता है।

शरीर में रक्त, माँस, अस्थि, नाड़ी, और चर्म यह पाँच प्रधान भाग हैं। इनमें से हर एक को अलग-अलग निकालना हो और उनका स्वतन्त्र समुच्चय खड़ा करना हो तो वह कठिन पड़ेगा। एक शरीर के टुकड़े किए जायें तो हर टुकड़े में उपरोक्त पाँचों वस्तुएँ सम्मिश्रित मिलेंगी। पर यदि हर एक को सर्वथा पृथक् करके उनकी सर्वथा स्वतंत्र संरचना करनी पड़े तो वह कठिन पड़ेगा। दधीचि को केवल अस्थियाँ निकालनी पड़ी थीं। उन्हीं का वज्र बनना था इसलिए उन्हें यह कार्य अधिक कठिन पड़ा।

शरीर में पाँच कोश और पाँच चक्र परस्पर उसी प्रकार गुँथे हुए हैं जिस प्रकार स्थूल शरीर में रक्त, माँस, हड्डी, नाड़ी और चर्म। हर एक को अलग करने की साधना अत्यधिक कठिन है। पाँच कोश और पाँच चक्र सर्वप्रथम अलग किए जायें फिर दोनों का नर-नारी जैसा युग्म बने, इनमें पाँच देवताओं की स्थापना की जाये और नियत अवधि तक इन्हें पकने दिया जाये तब पाँच वीर भद्रों के पकने की समर्थ होने की प्रक्रिया पूरी होती है। गुरुदेव को दादा गुरु के संरक्षण में यह सारी विधा उसी प्रकार एकाकी रहकर निपटानी पड़ रही है।

इसके लिए एक वर्ष नियत था जो समाप्ति की ओर है। इस अवधि में पूरा काम निपट जाय तो ठीक। अन्यथा अधूरा रह जाने पर अधूरे वीरभद्र ही काम करने लग जायेंगे और जो काम बचेगा उसे अगले किसी कलेवर में पूर्ण करेंगे। कोयल बच्चे नहीं पालती तो अपने अण्डे कौवे के घोंसले में रख जाती है। कौवा इन्हें अपने समझकर पाल लेता है। बच्चे बड़े होकर कोयल के झुण्ड में जा मिलते हैं।

साधना की दृष्टि से गुरुदेव के लिए यह एक वर्ष अत्यधिक कठिन रहा है। विघ्नकारी शक्तियाँ उद्देश्य को खण्डित करने के लिए विविध-विधि आक्रमण कर रही हैं। गत बसन्त से पूर्व ही आसुरी शक्तियों का एक आक्रमण हो चुका है। अभी अगला बसन्त आने में काफी समय है। इस बीच भीतरी और बाहरी कोई भी आक्रमण हो सकता है। इससे वीर भद्रों के पकने में नई अड़चन आ सकती है। ऐसी दशा में जो कच्चापन रह जायेगा वह दूसरे पक्षी के नीचे रखकर पका लिया जायेगा। हल हालत में जो काम हाथ में लिया है उसे पूरा करके ही रहा जायेगा। परिस्थितियाँ बदलने पर क्या परिवर्तन और क्या व्यवस्था क्रम अपनाना पड़ सकता है इसकी व्यवस्था और तैयारी समय रहते कर ली गई है।

अपने वीर भद्रों को पालना और निर्धारित कार्यों में जुटाए रहने का काम इतना बड़ा है कि गुरुदेव को उसी में व्यस्त रहना पड़ेगा। लोगों से मिलने जुलने का जैसा सिलसिला पहले चला करता था अब उसका अन्त ही समझना चाहिए। उनका वही पुराना शरीर अभी है, इसके प्रमाण स्वरूप इतना बन सकता है कि किन्हीं विशेष पर्वों पर दर्शन कभी भी हो जाया करें। कुछ कहना हो तो मानसिक संकेतों से कह लिया जाये। अरविन्द या रमण में से किसी की शैली अपनाई जा सकती है। किन्तु वार्तालाप की कहीं कोई गुँजाइश न होगी।

गुरुदेव को जन-साधारण का मार्गदर्शन करना है, इसके लिए लेखनी सतत् चलती रहेगी। इस सन् 2000 तक कौन लेखनी पकड़े रहेगा इसका प्रबन्ध भी कर दिया गया है। सन् 2000 तक अखण्ड ज्योति गुरुदेव के तात्कालिक सन्देश लेकर एवं उसके बाद भी यथा समय निकलती रहेगी। वाणी को विराम देने हेतु पहले से ही शान्ति-कुँज के कार्यकर्ता प्रशिक्षित कर दिए गए हैं। इस प्रकार भेंट मिलन का अभाव किसी को अखरेगा नहीं। जो कुछ सेवा सहायता चिरकाल से चलती रही है। उसमें कमी न आने देने का ऐसा प्रबन्ध किया गया है कि प्रस्तुत शरीर कैसी भी दृश्य अथवा अदृश्य स्थिति में रहेगा, किसी को भाव अभाव खटकेगा नहीं।


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