कबीर की उलटबांसियां

December 1984

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कबीर की उलटबांसियां बड़ी अचम्भे की रही हैं। उनको पढ़ने-सुनने से उनके पीछे लगे रहस्यवाद को जानने की सहज जिज्ञासा होती है, पर वह इतना सरल नहीं है। आन्तरिक ढाँचे की बनावट और नाथ सम्प्रदाय से सम्बन्धित हठयोग का जिन्हें गहरा ज्ञान है, वे ही उनका अर्थ और प्रयोजन समझने में किसी सीमा तक समर्थ हो सकते हैं।

कबीर का उद्देश्य इन उलटबांसियों के पीछे एक ही प्रतीत होता है कि इनके अर्थ कौतुक-कौतूहल को समझने के साथ-साथ साधना से सम्बन्धित रहस्यों को भी जानने और स्मरण रखने का प्रयत्न करते हुए साधक पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचे। उद्देश्य उत्तम है पर कठिनाई एक ही रही है कि रहस्यवाद का उद्घाटन करने के पीछे जो माथा पच्ची करनी पड़ती है और उस मार्ग पर चले हुए लोगों की सहायता लेनी पड़ती है उसकी ओर उदासीनता अपनाने के कारण रहस्यों को भुला देने की भूल होती रही है।

यहाँ कुछ उलटबांसियां दी जाती हैं और उनका शब्दार्थ तथा रहस्योद्घाटन का पक्ष भी दिया जाता है।

मँड़ये के चारन समधी दीन्हा, पुत्र व्यहिल माता॥

दुलहिन लीप चौक बैठारी। निर्भय पद परकासा॥

भाते उलटि बरातिहिं खायो, भली बनी कुशलाता।

पाणिग्रहण भयो भौ मुँडन, सुषमनि सुरति समानी,

कहहिं कबीर सुनो हो सन्तो, बूझो पण्डित ज्ञानी॥

शब्दार्थ- चारण का काम समधी ने किया। विवाहों में वंशावली तथा यश कीर्ति गाने वाले चारण आते हैं, पर जिस विवाह का उल्लेख कबीर कर रहे हैं। उसमें माँडवे के पास जाकर समधी ने चारण का काम किया समधी (लड़के या लड़की के बाप को कहते हैं) और पुत्र के साथ माता ने ब्याह का सरंजाम जुटाया। मण्डल के नीचे लीप, पोत कर दुलहन को बिठाया। यह बात छिपाकर नहीं रखी गई वरन् निर्भय होकर सबसे कह दी गई।

बरातियों के लिए जो भात बनी था उसने उलटकर बरातियों को ही खा डाला। व्यंग्य की भाषा में कहा गया है कि यह अच्छा कुशल क्षेम हुआ। जिस समय पाणिग्रहण होना चाहिए था उस समय मुण्डन हुआ- सिर मूड़ा गया। सुषुम्ना-सुरति में समा गई। कबीर सन्तों को सुना कर कहते हैं कि जो कोई इस पहेली को बूझे वह ज्ञानी पंडित है। अब इसके रहस्य पर विचार किया जाय।

आत्मा और परमात्मा के मध्य का द्वैत मिटाने के लिए दोनों को एक करने के लिए जिस मंडप की व्यवस्था की गई थी उसमें चित्त को दो काम करने पड़े। एक समधी का- दूसरा काम गाने वाले चारण का। योग साधना में समस्त वृत्तियों का उत्पादक चित्त है। वह निग्रहित न होने पर अपने क्रिया-कलाप का ढिंढोरा भी पीटता फिरता है। दो काम उसे नहीं करने चाहिए थे पर आश्चर्य है कि करता है। माता को पुत्र से ब्याह करना पड़ता है अर्थात् मन के साथ गठजोड़ करना पड़ता है। दोनों का संग न सधे तो कोई प्रयोजन ही पूर्ण न हो। इसके लिए मन तो सहज सहमत नहीं होता पर चौक को लीप-पोत कर विवाह के लिए पुते चौक के नीचे बिठाना पड़ता है। वह समझदार है इसलिए बैठ जाती है। मन नासमझ है सो आना-कानी और उछल-कूद करता है। इस तथ्य को गुप्त रखने में कोई लाभ नहीं। निर्भय होकर प्रकट करना पड़ता है कि दुलहन आत्मा को ही इस विवाह में उत्सुकता, आतुरता थी। मन तो बंधन में बँधने से अन्त तक आना-कानी ही करता रहता है।

कषाय-कल्मष- दोष-दुर्गुण बाराती हैं। वे तमाशा देखने बराती बनकर आते हैं और तरह-तरह के उपहार पाने की, सम्मानित होने की, अपेक्षा करते हैं, पर बात उल्टी ही हो जाती है। प्रीति-भोज में जो भात परोसा जाता है उसने ही उलट कर बरातियों को खा लिया। अध्यात्म के उपहार श्रेय के रूप में होते हैं। वे इस विवाह के फलस्वरूप जब ज्योनार में परोसे जाते हैं तो उलटकर बरातियों को ही खा जाते हैं अर्थात् उस दिव्य उपलब्धि के कारण दोष-दुर्गुणों का ही सफाया हो जाता है। यहाँ भी व्यंग्य है कि अच्छी कुशल क्षेम निकली। बराती अपने अस्तित्व को ही गँवा बैठे।

पाणिग्रहण संस्कार के समय केशों का शृंगार होता है, पर यहाँ बिलकुल ही उलटा हुआ। सिर मूंड़ा गया यह मुँडन संस्कार की रस्म पूरी की गई। विवाह में सभी को कुछ मिलने की आशा होती है, वह तो पूरी हुई नहीं उलटा शिर मूँड़ लिया गया। सिर मूँडने से तात्पर्य यहाँ त्याग, वैराग्य से है। जो कुछ कमाया हुआ था वह भी गँवा दिया गया। इस क्रिया कृत्य के करने पर सुषुप्त नाड़ी ध्यानयोग की गम्भीरता में- समाधि अवस्था में चली गई। इस प्रकार द्वैत-अद्वैत बन गया। दूल्हा-दुलहन का जोड़ा मिलकर एकाकार हो गया। भक्त और भगवान का अन्तर समाप्त हो गया।

कबीर अपने साथी साधु समुदाय से पूछते हैं कि उलटबांसी के रूप में जो रहस्य बताया गया है उसका अर्थ प्रकट करो तो तुम्हें ज्ञानी पण्डित समझा जाय?

एक दूसरी उलटबांसी और भी आकर्षक एवं रहस्यमय है। इसके शब्दार्थ कितने व्यंग भरे और तत्वार्थ कितने सारगर्भित हैं। यह देखने ही योग्य है-

देखि-देखि जिय अचरज होई यह पद बूझें बिरला कोई॥

धरती उलटि अकासै जाय, चिउंटी के मुख हस्ति समाय।

बिना पवन सो पर्वत उड़े, जीव जन्तु सब वृक्षा चढ़े।

सूखे सरवर उठे हिलोरा, बिनु जल चकवा करत किलोरा।

बैठा पण्डित पढ़े कुरान, बिन देखे का करत बखान।

कहहि कबीर यह पद को जान, सोई सन्त सदा परबान॥

शब्दार्थ- देख-देखकर जी में आश्चर्य होता है। इस रहस्य को कोई बिरले ही बूझ पाते हैं।

धरती ने उलट कर आकाश को खा लिया। चींटी के मुँह में हाथी चला गया। बिना पवन के पर्वत उड़ने लगे। सारे जीव जन्तु इस समय वृक्षों पर चढ़ गये।

सूखे सरोवरों में जल की हिलोरें उठने लगीं। पानी नहीं था तो भी चकवा कलोल करते देखा गया।

पण्डित कुरान पढ़ रहे थे और उसका बखान कर रहे थे जो देखा ही नहीं।

कबीर कहते हैं कि जो इस कथन का रहस्य जानता है, उसी की बात सदा प्रामाणिक मानी जायगी।

इस उलटबांसी में योगी की अन्तरंग और बहिरंग स्थिति का वर्णन है। गीता में कहा गया है कि जब संसार जागता है तब योगी सोता है। जब योगी सोता है तब संसार जागता है। अर्थात् मायाग्रस्त संसारी और माया मुक्त योगी की स्थिति एक दूसरे से सर्वथा उलटी होती है। उसका मायावी संसार सर्वथा हेय होता है, किन्तु जो मोह ग्रस्त हैं वे उसी में हर घड़ी तल्लीन रहते हैं। उनकी मनोवृत्तियाँ- प्रवृत्तियाँ भी ठीक उलटी चलती हैं। इसी तथ्य का इस पद में दिग्दर्शन कराया है। संसार की उलटी स्थिति देखकर आश्चर्य होता है, पर उसका कारण और रहस्य कोई बिरला ही जान पाता है।

धरती पर फैली हुई माया की मृग-मरीचिका ब्रह्माण्डव्यापी परब्रह्म को निगल जाती है। अर्थात् जो दृश्यमान है वही सब कुछ बन जाता है और अदृश्य की सत्ता ही दृष्टिगोचर नहीं होती। लेकिन योगीजन ब्रह्माण्ड-व्यापी ब्रह्म का दर्शन करते हैं और स्थूल पदार्थों के रूप में आकर्षक लगने वाली धरती की उपेक्षा कर देते हैं।

आत्मा सूक्ष्म है, चींटी से भी छोटी, अणुओं की भी परमाणु किन्तु जब वह ज्ञानवान बनती है तो महतो महीयान् यही दृश्य संसार उसके पेट में समा जाता है। तुच्छ रह जाता है। अविचल बन जाता है। चींटी इस हाथी को ज्ञान द्वारा निगल जाती है। सुरसा के मुँह में हनुमान उससे भी बड़े होकर घुसे थे पर मच्छर बनकर बाहर निकल आये थे। सुमेरु पर्वत सोने का बना है। देवताओं के स्वर्ग लोक का उस पर निवास है, किन्तु उसे नगण्य बना देने के लिए किसी आँधी तूफान की आवश्यकता नहीं पड़ती। विवेक दृष्टि ही उसकी सत्ता और महत्ता को समाप्त करके रख देती है। जीव-जन्तु ऊपर चढ़ने की कोशिश करते हैं। जिन योनियों में हैं उनसे ऊपर उठना चाहते हैं। एक मनुष्य का जीवन ही ऐसा है जो उच्च स्थिति में होते हुए भी नीचे गिरने, पाप पतन में घुसने की मूर्खता करता है। संसार का अस्तित्व नहीं, वह भ्रम जंजाल मात्र है। स्वप्नवत् है फिर भी अज्ञानी की उसमें कामनाओं की हिलोरें उठती दिखाई पड़ती हैं। मल-मूत्र के शरीर में आनन्द कहाँ? फिर भी मोह-ग्रस्त मन इन्द्रिय लिप्साओं में, तृष्णाओं और वासना में काल्पनिक किलोलें करता है। यह कैसे आश्चर्य की बात है कि जो जिसने समझा नहीं है, जिस बात का जिसे अनुभव नहीं है, वह उसका व्याख्याता, उपदेशक और निष्णात बनता है। पण्डित को अरबी तक तो आती नहीं पर कुरान का व्याख्याता बनकर अनजानों को झूठी प्रवंचना में बहकाता फुसलाता रहा है। जो रास्ता खुद तो देखा नहीं है, पर औरों को चलाने का ठेकेदार बनता है। धर्मोपदेशकों की यह कैसी विडम्बना है।

कबीर का कहना है कि जो तत्व ज्ञान से अवगत है, प्रमाणिकता को जो अपनाते हैं। ऐसे ही सन्त प्रामाणिक माने जाते हैं और उन्हीं की नाव पर बैठकर राहगीर पार उतरते हैं।

रहस्यों, अध्यात्म तत्वदर्शन के गुह्य तथ्यों से भरी ऐसी उनकी अनेकों उलटबांसियां हैं। स्थूल दृष्टि से देखने वाले उस तत्वदर्शन को हृदयंगम कर नहीं पाते जबकि समग्र धर्म शास्त्र का मर्म इनमें छिपा पड़ा है। ऐसी ही एक और रचना उनकी है जिसमें आत्मा के समर्पण की चर्चा प्रतीक रूपों में की गयी है।

एकै कुँवा पंच पनिहारी। एकै लेजु भरै नो नारी॥

फटि गया कुँआ विनसि गई बारी। विलग गई पाँचों पनिहारी॥

शब्दार्थ- एक कुएँ पर नौ पनिहारी पहुँची। रस्सी तो एक थी, पर नौ नारियाँ पानी भर रही थीं। कुँआ फट गया और बारी का खेत नष्ट हो गया। पाँचों पनिहारी अलग-अलग चली गईं।

तात्पर्य- अन्तःकरण रूपी कुआँ एक है। इसमें से नौ कषाय-कल्मष पनिहारी की तरह पानी भरती हैं।

आत्मा का भगवत् समर्पण होने पर वह मोह ग्रस्त अन्तःकरण फट जाता है। इस कुएँ में से पानी खींचकर पनिहारियों ने जो शाक-भाजी की क्यारी उगाई थी सो नष्ट हो जाती है। सारा खेल बिगड़ जाने पर पाँच पनिहारी पाँचों इन्द्रियाँ अलग-अलग चली जाती हैं।

(क्रमशः)


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