गीत उस घर का लिखो दीवार जिसकी ढह रही है। पीर गाओ उस नयन की धार जिससे बह रही है॥
क्या हुआ जो बौर फूले आम पर कोयल न बोली। क्या हुआ जो आँख कलिका ने सुबह होते न खोली।
फूल डरते हैं कि बाँटें गन्ध कैसे पवन को हम। लता ने भी वृक्ष का एहसान लेना कर दिया कम॥
गीत उस ऋतु का लिखो मधुमास में जो दह रही है॥ सत्य की साँसें रुकीं ईमान घटता जा रहा है।
आदमी का- स्वार्थ में अन्तर सिमटता जा रहा है॥ है बहुत लम्बी कहानी, द्वेष, हिंसा, वासना की।
धर्म डूबा, हो गयी अन्त्येष्टि सेवा- साधना की॥ गीत उस भू का लिखो जो भार ऐसे सही रही है॥
आज फूलों को नहीं अधिकार- प्रभु के चरण पायें। विष अमृत बनता नहीं- कैसे भजन मीरा सुनायें॥
साधना सहमी खड़ी है- प्रार्थना के पाँव ठिठके। बाँसुरी बजती नहीं है प्राण सिसके यमुन तट के।
गीत उस हवि का लिखो जो यज्ञ के बिन रह रही है॥ किन्तु कवि की कलम यह सब देखती कैसे रहेगी।
बेजुबानों की कहानी, लेखनी उसकी कहेगी॥ इसलिये ओ गीतकारों! इस व्यथा के गीत गाओ।
और युग के प्रति बड़ा दायित्व अपना तुम निभाओ॥ मौत संस्कृति की सदा अपने लिये दुःसह रही है।
*समाप्त*