झुरमुट की नम्रता (kahani)

December 1984

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

पहाड़ की चोटी पर एक बड़ा-सा बरगद का दरख्त था। मुसाफिर उसके नीचे सुस्ता कर आगे बढ़ गया। दरख्त के विस्तार वैभव की वह प्रशंसा करता गया। आगे चलकर बैंत का एक झुरमुट मिला। मुसाफिर व्यंग्य करता गया, कि कैसा है यह नाचीज। इसके पास न डालियाँ हैं, न पत्ते। कई दिन बाद मुसाफिर वापस लौटा। देखा तो बरगद का पेड़ नदारद था। लकड़ी काटने वालों से उसने पूछा- ‘माजरा क्या है? उस बड़े दरख्त का क्या हुआ?

लकड़हारों ने कहा- ‘बड़े बरगद की जड़ें खोखली हो गयी थीं, पर उसकी अकड़ कम न हुयी। आँधी के एक ही झोंके ने उसे उलट-पुलट कर रख दिया। राहगीर ने पूछा- ‘जब आँधी इतनी तेज थी, तो यह झुरमुट कैसे बच गया? लकड़हारों ने एक स्वर में कहा- उसकी जड़ें गहरी थीं, बोझ कुछ नहीं था, और आँधी के आते ही झुरमुट ने नम्रता से गरदन नीची कर ली।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles