सुधन्वा और अर्जुन (kahani)

December 1984

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महाभारत में सुधन्वा और अर्जुन के बीच भयंकर द्वन्द्व युद्ध छिड़ा। दोनों महाबली थे और युद्ध विद्या में प्रवीण-पारंगत भी। घमासान लड़ाई चली। विकरालता बढ़ती ही जा रही थी। निर्णायक स्थिति आ नहीं रही थी। अन्तिम बाजी इस बात पर अड़ी, कि फैसला तीन बाणों में ही होगा। या तो इतने में ही किसी का वध हुआ अन्यथा युद्ध बन्द करके दोनों पक्ष पराजय स्वीकार करेंगे।

जीवन-मरण का प्रसंग सामने आ खड़ा होने पर कृष्ण को भी अर्जुन की सहायता करनी पड़ी। उनने हाथ में जल लेकर संकल्प किया- “गोवर्धन उठाने और ब्रज की रक्षा करने के पुण्य को अर्जुन बाण के साथ जोड़ता हूं।” आग्नेयास्त्र और भी प्रचण्ड हो चला।

काटने का सामान्य उपचार हल्का पड़ रहा था, सो सुधन्वा ने भी संकल्प किया कि एक पत्नीव्रत पालने का मेरा पुण्य भी इस अस्त्र के साथ जुड़े।दोनों अस्त्र आकाश मार्ग से चले। दोनों ने दोनों के अस्त्र बीच में काटने का प्रयत्न किया। दोनों के अस्त्र मध्य मार्ग में कट गए।

दूसरा अस्त्र फिर उठाया। अबकी बार कृष्ण ने अपना पुण्य उसके साथ जोड़ा और कहा ग्राह से गज को बचाने और द्रौपदी की लाज बचाने का मेरा पुण्य अर्जुन के बाण के साथ जुड़े। दूसरी ओर सुधन्वा ने भी वैसा ही किया और कहा- ‘मैंने नीति पूर्वक ही उपार्जन किया है और चरित्र के किसी पक्ष में त्रुटि न आने दी है तो मेरा पुण्य इस अस्त्र के साथ जुड़े।

इस बार भी दोनों अस्त्र आकाश में टकराये और सुधन्वा के बाण से अर्जुन का बाण आकाश में ही कटकर धराशायी हो गया। तीसरा अस्त्र और शेष था। इसी पर अन्तिम निर्णय निर्भर था। कृष्ण ने कहा- ‘मेरे बार-बार अवतार लेकर धरती का भार उतारने का पुण्य अर्जुन-बाण के साथ जुड़े। दूसरी ओर सुधन्वा ने कहा- ‘यदि मैंने स्वार्थ का क्षण भर भी चिन्तन किये बिना मन को निरन्तर परमार्थ में निरत रखा हो, तो मेरा पुण्य बाण के साथ जुड़े।

इस बार भी सुधन्वा का बाण ही विजयी हुआ। उसने अर्जुन का बाण काट दिया। दोनों पक्षों में से कौन अधिक समर्थ है, इसकी जानकारी देवलोक तक पहुँची, तो सुधन्वा पर आकाश से पुष्प वृष्टि होने लगी। देवगण आकर सुधन्वा को सहर्ष स्वर्ग ले गए।


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