पारस्परिक सहकार ही सुव्यवस्था का आधार

December 1984

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कथा है कि एक बार देवता और असुर अपने बड़प्पन का निर्णय कराने ब्रह्माजी के पास पहुँचे। उन्होंने परीक्षा के उपरान्त अपना अभिमत बताने की बात सुरक्षित रखी। दूसरे दिन दोनों वर्गों को पृथक्-पृथक् स्थानों पर भेज दिया गया। जब खाने की घड़ी आई तो ब्रह्माजी ने दोनों पंक्तियों की कोहनियाँ न मुड़ने का मन्त्र पढ़ दिया। अब खाया कैसे जाय, मुँह से हाथ तो बहुत दूर होता है। असुरों ने हाथ ऊपर उठाकर मुँह में ग्रास पटके पर वे इधर-उधर गिरे, मुँह में एकाध ग्रास ही पहुँचा मुँह तथा कपड़े बुरी तरह खराब हुए। दूसरी ओर देवताओं ने इस स्थिति में सहयोग बरता। एक ने अपनी थाली का भोजन अपने हाथ से दूसरे को खिलाया। दूसरे ने तीसरे को इस प्रकार सभी का पेट भर गया। जबकि संकीर्ण स्वार्थपरता की आपाधापी में निमग्न सभी असुर भूखे उठ गये। निर्णय हो गया। पदार्थों देवता श्रेष्ठ घोषित हुए। यही सहयोग चक्र सदा सर्वदा से मनुष्यों के बीच कार्यान्वित होता रहा है। इसी आधार पर सार्वजनिक प्रगति सम्भव हुई है। इसमें व्यवधान पड़े तो फिर आदिमकाल की ओर लौटने के अतिरिक्त और कोई चारा न रहेगा।

कथा से सार यह निकलता है कि पारस्परिक सहयोग पर ही सुव्यवस्था निर्भर है। इस सहयोग तन्त्र को हम हर ओर क्रियाशील देख सकते हैं। प्रकृति की सन्तुलन प्रक्रिया का एक पक्ष कर्मफल भी है। क्रिया की प्रति क्रिया इसी को कहते हैं। परिश्रम करने पर पसीना निकलता है। दौड़ने पर दम फूलता है। विष खाने पर मरण संकट आ सकता है। यह क्रिया का प्रतिक्रिया का सामान्य क्रम है। भले-बुरे विचारों की परिणति भी उत्थान पतन के रूप में दृष्टिगोचर होती है। इतिहास के पन्ने-पन्ने पर ‘करना सो भोगना’ का प्रमाण विद्यमान है। बुरा करते हुए भी कोई यह नहीं चाहता कि उसे उस बुराई का प्रतिफल मिले। किन्तु नियति की विधि व्यवस्था हर किसी को उसके लिए विवश करती है। भले यदि भलाई के बदले का सत्परिणाम नहीं भी चाहें, नहीं भी माँगे तो भी वह उनके पल्ले अनायास ही बँध जाता है। जन्म और मरण का- दिन और रात का- जिस प्रकार युग्म है, उसी प्रकार इस संसार में करने और भोगने की क्रिया प्रक्रिया का निर्धारित क्रम यथावत् चलता रहता है।

कर्मफल की सुव्यवस्था में किसी बाहरी नियन्त्रण की आवश्यकता नहीं पड़ती, यह सब कुछ स्वसंचालित प्रक्रिया के आधार पर अनायास ही सम्पन्न होता रहता है। अनाचार का आरम्भ विकृत विचारों से होता है। मनोविकारों का चेतना क्षेत्र से विग्रह खड़ा करना- अंतर्द्वंद्व उभारना सर्वविदित है। इससे दुरावजन्य ग्रन्थियाँ बनती हैं। भय, लज्जा, संकोच की आत्म प्रताड़ना शरीर और मन के मध्य चल रहे व्यवस्था तन्त्र को लड़खड़ा देती है। फलतः चित्र विचित्र प्रकार के शरीर एवं मन के रोग असन्तुलन उत्पन्न करते हैं। इन आधि-व्याधियों के फलस्वरूप व्यक्तित्व भोंड़ा पड़ता है। न चिन्तन सही रहे पाता है न व्यवहार की शालीनता स्थिर रहती है। फलतः अविश्वास और असन्तोष का वातावरण भीतर भी दीखता है और बाहर भी। ऐसी दशा में मनुष्य के ऊपर दुःख दारिद्रय ही लदेंगे। मनोविकारों की इस परिणति का मनःशास्त्र पूरी तरह समर्थन करता है और अनेकानेक प्रमाणों से सिद्ध करता है कि सरल, सात्विक, सोम्य, सदाचारी चिन्तन चरित्र के सहारे ही व्यक्तित्व सुसंयत बना रह सकता है। उसे अपनाने में ही भलाई है। जो अनीति की राह पर चलेंगे वे अपने पैरों आप कुल्हाड़ी ही मारेंगे।

कर्मफल के दण्ड पुरस्कार का शासन तन्त्र में पूरा विधान है। समाज में भी निन्दा, प्रशंसा, सहयोग, असहयोग का दौर इसी आधार पर चलता है। प्रामाणिकों को समर्थन मिलता है और वे आगे बढ़ते हैं जबकि अनाचारी अप्रामाणिक व्यक्ति का तिरस्कार के भाजन बनते और असहयोग, प्रतिरोध के कारण गई गुजरी स्थिति में पड़े दिन गुजारते हैं। जिसका अहित किया है उसके द्वारा प्रतिशोध लिये जाने की सम्भावना जो रहती है। इस समूची व्यवस्था पर दृष्टिपात करने से सिद्ध होता है कि कर्मफल की सुव्यवस्था प्रकृति की कार्य पद्धति का एक सुनिश्चित अंग है।

रावण, कुम्भकरण, मेघनाद, मारीच, अहिरावण आदि की समर्थता चतुरता में कोई कमी नहीं थी। किसी विरोधी का सामना करने की उनमें शक्ति भी कम न थी। शरीर, बल, शस्त्र, बल वैभव बल की दृष्टि से भी वे कमजोर नहीं पड़ते थे। इतने पर भी उनकी अनीति उन्हें ले बैठी। कुकर्मों का प्रतिफल मिला। यह दण्ड व्यवस्था प्रकृति ने स्वयं की। रीछ वानर और सामान्य स्तर के मनुष्य तो उनके नित्य के आखेट थे। वे उन्हें क्योंकर परास्त करते। मत्स्य न्याय ही यहाँ सब कुछ रहा होता तो इन दुर्द्धर्ष लोगों की तूती बोलती, इस प्रकार परिवार समेत नष्ट होने का अवसर ही न आता।

इससे पूर्व भी समय-समय पर ऐसे दुर्दान्त महाबली हो चुके हैं जिनकी मनमानी को चुनौती देने वाला कोई नहीं था। हिरण्यकश्यपु, हिरण्याक्ष, वृत्रासुर, महिषासुर, भस्मासुर, रक्तबीज जैसे कितने ही नाम हैं जिनकी बलिष्ठता और क्रूरता असीम थी। उनके विनाश का उन दिनों कोई आधार या साधन भी नहीं था। फिर भी ऐसे निमित्त कारण बने जो देखने में नगण्य उपहासास्पद लगते थे पर उन्होंने अपराजय समझी जाने वाली शक्तियों को धराशायी कर दिया। हिरण्याक्ष को एक बाराह वेशधारी ने ही अपने दाँतों से क्षत-विक्षत कर दिया। दूसरी ओर के अमोघ अस्त्र एक कोने में रखे रह गये। यह विश्वव्यापी कर्मफल व्यवस्था ही है जो भले-बुरों को को यथोचित प्रतिफल देने की व्यवस्था इस या उस प्रकार बनाती रहती है।

गाँधी, बुद्ध, नानक, चाणक्य, विवेकानन्द आदि सत्पुरुषों के पास साधनों का अभाव था। पर समय ने उनको साधनों की कमी नहीं रहने दी, न सहयोग कम पड़ा, न अवरोध ही देर तक आड़े आये। वे जिस महान पथ पर बढ़ रहे थे उसमें कोई ऐसा व्यतिरेक उत्पन्न नहीं हुआ। जिसके कारण वे लक्ष्य तक पहुँच न पाते। उन्हें भरपूर सफलता मिली। जापान के गाँधी कागाबा, फ्लोरेंस नाइटिंगेल, बेडन पावेल आदि के उपयोगी प्रयास विश्वव्यापी बने और आश्चर्यजनक रीति से सफल हुए। विनोबा, बाबा साहब आमटे, हीरालाल शास्त्री, कमला, हास्पेट, कर्वे आदि के द्वारा आरम्भ किये गये छोटे-छोटे शुभारम्भ किस प्रकार अनायास सहायता के सहारे अग्रगामी बने और सफलता की मंजिलें पार करते हुए कहाँ से कहाँ जा पहुँचे, यह किसी से छिपा नहीं है। यह क्रिया की प्रतिक्रिया है जो सदाशयता का अविज्ञात सूत्रों से परिपोषण करती और उन्हें सफल बनाने में योगदान करती है।

व्यक्तियों की तरह भले-बुरे वातावरण का भी तद्नुरूप प्रभाव होता है। जिस प्रकार सड़न के ढेर से किसी क्षेत्र का वायुमण्डल दुर्गन्धित विषाक्त हो जाता है और वहाँ हैजा जैसी छूत की बीमारियों का दौर चल पड़ता है, उसी प्रकार व्यापक वातावरण की भी वैसी ही स्थिति होती है। जिन दिनों सज्जनता, सद्भावना, सहकारी शालीनता का प्रचलन होता है उन दिनों व्यापक वातावरण भी सर्वसाधारण के लिए सुख-शान्ति से भरा रहता है। प्रकृति अनुकूल रहती है और धन धान्य, वर्षा, ऋतु प्रभाव आदि में किसी प्रकार का व्यतिक्रम नहीं होने देती। सतयुग में सज्जनता का बाहुल्य था तब वृक्ष फलों से, खेत फसलों से, बादल विद्युत जल से भरे रहते थे और किसी को किसी प्रकार का अभाव या कष्ट अनुभव नहीं होने देते थे। न अकाल मृत्युएं होती थीं और न ही रोग, शोक, विग्रह जैसी विपत्तियाँ ही दृष्टिगोचर होती थीं।

पारस्परिक स्नेह सहयोग इस सृष्टि का स्वाभाविक क्रम है इसी आधार पर सारी विश्व व्यवस्था सुनियोजित ढंग से चल रही है। इसमें जहाँ भी व्यतिक्रम होता है वहीं सन्तुलन डगमगाता और व्यवस्था बिगड़ने पर विग्रह खड़े होते हैं। इस दृष्टि से शरीर चक्र, जलचक्र, वनस्पति चक्र, दृष्टव्य हैं। हाथ कमाता है। उस कमाई को भोजन रूप में मुँह को देता है। मुँह चबाने का श्रम जोड़कर उसे पेट के सुपुर्द करता है। पेट उसमें अपने पाचक रस मिलाकर आँतों की गुर्दों की और धकेलता है, वहाँ से वह उपार्जन, हृदय में रक्त बनकर पहुँचाता है।

जल चक्र भी ऐसा ही है। समुद्र से बादलों को- बादलों से धरातल को- धरातल से नदी नालों, कुँए तालाबों को मिलता है। इसके बाद वह घूमता फिरता फिर समुद्र में पहुँचता है। यह पारस्परिक स्नेह सहकार का भाव भरा आदान-प्रदान है।

जमीन से वृक्ष वनस्पतियों का परिपोषण। वनस्पतियों से प्राणियों का निर्वाह। प्राणियों के मलमूत्र से धरती की उर्वरता। उस उर्वरता के सहारे फिर वनस्पति उगने का उपक्रम। इस क्रम की कोई कड़ी बीच में टूटे तो समझना चाहिए कि वनस्पतियों और प्राणियों में से एक का भी जीवित रहना सम्भव न होगा। यह वनस्पति चक्र है। मनुष्य कार्बन गैस उगलता है, उसे वृक्ष खाते हैं। वृक्ष आक्सीजन उगलते हैं, उससे मनुष्यों को प्राण वायु उपलब्ध होती है।

इकॉलाजी के सारे सिद्धान्त इसी एक नाभिक के चारों ओर घूमते हैं कि प्रत्येक वस्तु का एक दूसरे से सघन सम्बन्ध है। जो देता है, वह पता है, जो जैसा करता है, वह वैसा भोगता है। प्रकृति जगत में मनुष्य द्वारा किया गया असन्तुलन विभीषिका के रूप में उसी के ऊपर संकट बनकर आता है। निर्वनीकरण, औद्योगीकरण से पर्जन्य-चक्र का जो असन्तुलन बना है, उसका प्रतिफल मनुष्य ने ही भोगा है। यही असन्तुलन जब व्यक्तिगत या सामाजिक जीवन में आ धमकता है तो अपनी प्रतिक्रिया उन्हीं पर दिखाता है जो इसके कर्त्ता होते हैं।

मनुष्य की स्वाभाविक प्रतिक्रिया कारणों को बहिरंग में ओर कहीं ढूँढ़ने की होती है। अपने शरीरगत रोगों व मनोविकारों के लिये जैसे वायरस एवं परिस्थितियों को दोषी ठहराया जाता है, उसी प्रकार प्रकृतिगत अव्यवस्था के लिये भी अन्तर्ग्रही असन्तुलन, दैवी विपत्ति को प्रमुख कारण बता दिया जाता है। वस्तुतः ये मनुष्य के दुष्कर्म ही हैं जो दुर्गति के रूप में असाध्य व्याधि, असमय जरा, अकाल मृत्यु के रूप में निकलते हैं। मनोरोगों का मूल कारण अपना ही दुष्चिन्तन है। समष्टिगत दुष्प्रवृत्तियों का प्रतिफल ही प्रकृति का रौद्र रूप है। यह इकॉलाजी सिद्धान्त की एक ऐसी शाश्वत नियम व्यवस्था है जो अटल, सुनिश्चित है। इससे मुक्त कोई नहीं। सुव्यवस्थित प्रकृति के अनुकूल निर्धारित जीवन क्रम जीते हुए हर कोई सुख-शान्ति का रसास्वादन लेते रह सकता है। यही विधाता को अभीष्ट भी है।


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