तृतीय युद्ध अब अन्तरिक्ष में लड़ा जाएगा

December 1984

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मध्यकालीन युग के युद्ध तीर, तलवार, फरमा और भाले जैसे भुजवल से चलाये जाने वाले शस्त्रों के सहारे लड़े जाते थे। मुगलकाल में तोपों और बन्दूकों का प्रयोग आरम्भ हुआ। वैज्ञानिक आधार पर बमों का, डायनामाइट का प्रयोग निकला। यह समय परमाणु अस्त्रों का है। जापान में दो बमों का प्रयोग होने के उपरान्त अब हरेक के दिमाग में उन्हीं के प्रयोग की बात है। जब तक रूस, अमेरिका के हाथों इन दो की निर्माण कला सीमित थी, तब तक दोनों के बीच समझौता हो जाने, एक-दूसरे से डरते रहने आदि के विकल्प थे, पर अब वह जानकारी अनेक देशों के हाथ लग गयी है। रूस, अमेरिका के अतिरिक्त अब वह आयुध फ्राँस, चीन, कनाडा, ब्रिटेन, इजराइल, दक्षिण अफ्रीका आदि ने भी हस्तगत कर लिये हैं। इसलिए आशंकाएँ और भी बढ़ गयी हैं। फिर दूसरी बात यह है कि उसकी विनाशलीला इतनी भयानक है कि एक स्थान पर प्रयोग करने के उपरान्त अन्यत्र उसका विकिरण दूर-दूर तक चिरकाल तक छाया रहेगा। उसे किसी क्षेत्र तक सीमित भी नहीं रखा जा सकता। शत्रु क्षेत्र पर प्रहार करने के उपरान्त उससे लगे हुए मित्र क्षेत्र भी चपेट में आयेंगे। मात्र जन हानि ही नहीं होगी भूमि, जल और वायु के प्रदूषण से यह पृथ्वी रहने लायक भी न रह जायेगी। फिर जितना भण्डार इन सब के पास एकत्रित हो गया है, वह इतना है कि समूचे भूमण्डल का अस्तित्व मिटा देने के लिए पर्याप्त है। विजेता को भी सोचना पड़ेगा, कि पराजित के साथ-साथ वह भी अपना अस्तित्व बचा सकेगा या नहीं।

इन कारणों से तीर-तलवारों की तरह, तोप-बन्दूक की तरह अब परमाणु बम भी बेकार जैसे हो चले हैं। उनका स्थान अन्तरिक्ष आयुध ग्रहण कर रहे हैं। प्रक्षेपास्त्रों का भी अब अतिशय विस्तार हो गया। इसलिए इस समय को उपग्रह-युग कह सकते हैं। इस घुड़दौड़ में अन्य देशों ने तो प्रवेश ही किया है, पर रूस, अमेरिका अभी भी सबसे आगे हैं। समूचे आकाश में लगातार 3 हजार उपग्रह इन दिनों भ्रमण कर रहे हैं। इनमें से अधिकाँश के पास पृथ्वी के चप्पे-चप्पे को भेद देने वाले खोजी उपकरण हैं पर अनेकों के पास ऐसे आयुध भी हैं जो बहुत ऊपर जाकर नीचे निशाने पर बिना किसी चूक के चोट कर सकते हैं और शत्रु को नुकसान पहुँचा कर खुद पाक-साफ बच सकते हैं।

इतना होते हुए भी इस क्षेत्र की जो प्रतिस्पर्धा चल रही है, उसे देखते हुए कहा नहीं जा सकता कि कौन बाजी जीतेगा। हार-जीत से पहले एक प्रश्न नया उठ खड़ा हुआ है कि पृथ्वी का निकटवर्ती अन्तरिक्ष क्षेत्र कितने उपग्रहों का मलबा अपने पेट में रोक सकेगा। उनके कारण मेघ-संचार, वायु प्रवाह आदि में बाधा पड़ती है। फिर इस बढ़ती भीड़ के कारण नये उपग्रहों के मार्ग में भी बाधा पड़ती है।

यह कचरा अधिक अशक्त होने पर पृथ्वी पर गिरने-बरसने की आशंका भी है। पाठक भूले न होंगे, कुछ समय पूर्व “स्काइलैब” नामक उपग्रह का कचरा जमीन पर गिरा था। किसी काम की जगह गिरा, तो हाहाकार मचा देगा, इस आशंका से सारे संसार को चिन्तित रहना पड़ा। जब वह आस्ट्रेलिया के समीपस्थ समुद्र में गिर गया तब चैन आया। यह समस्या अन्य छितराये हुए कचरा उपग्रह भी पैदा कर सकते हैं और उनमें से किन्हीं महत्वपूर्ण नगरों पर गिरे, तो उनको भी चौपट करके रख सकते हैं।

अब आकाश युद्ध की तैयारी है। अस्त्र के रूप में लेसर और उसी बिरादरी की दूसरी किरणें बरसायी जाने की तैयारी है। लेसर किरणें एक अन्तरिक्ष यात्री कितने ही बड़े क्षेत्र पर गिरा सकता है और उस क्षेत्र को भून कर रख सकता है। अब तक के विज्ञान और विनिर्मित आयुधों में प्रयोक्ता के लिए सबसे सुरक्षित और जिस पर प्रयोग किया जायेगा, उसके लिए सबसे भयानक ‘लैसर’ ही है। वह प्रत्यक्ष दीख भी नहीं पड़ती। इस लिए उससे बचाव करना भी आसान नहीं। परमाणु बमों की तुलना में यह सस्ती भी है। कम जगह घेरती है। कम वजन ढोना पड़ता है। फिर अभी इसका प्रयोग प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी रूस, अमेरिका के अतिरिक्त अन्य देशों में विदित भी नहीं हो पाया है। इतने द्रुतगामी और अतिविघातक लैसर आयुध बना भी नहीं पाये हैं। ऐसी दशा में प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी यह आशा करते हैं कि वे लैसर आयुधों की पहल करके नफे में रह सकते हैं।

यों यह सर्वथा गोपनीय जानकारियाँ हैं, पर जो बताया गया है, उसके अनुसार अमेरिका हर महीने तीन नये उपग्रह अन्तरिक्ष में छोड़ता है और रूस बीस। यह जरूरी है कि देर तक टिकने का लाभ अमेरिका को मिलेगा तो सामने उनके एक विशाल घटाटोप खड़ा कर देने की क्षमता रूस के हाथ में अधिक है। कोई व्यावसायिक प्रयोजन हो तो स्थायी का महत्व है, पर जब मारधाड़ करनी हो तो उसके लिए जो करना होगा, मिनटों में हो जायेगा। उसके लिए टिकाऊपन की आवश्यकता न होगी।

वास्तविकता क्या हे, इसकी जानकारी प्राप्त करना इतना सरल नहीं है कि गोपनीयता की सात परतें उखाड़ कर स्थिति को सही रूप में जाना जा सके। इतने पर जो पता चलता है, उससे स्पष्ट है कि महामरण का आयोजन निकट आता जा रहा है और वह पैंतरे भी बदल रहा है। थल युद्ध में काम आने वाले तीर-तलवार अब किस्से कहानी जैसी पुराने युग की बातें हो गयीं। अमेरिका तलाशने से लेकर ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना तक जलयानों का प्रभुत्व रहा। अंग्रेजी सेना अपने समय में सर्वसमर्थ इसीलिए मानी जाती थी कि उसके पास जलयानों की शक्ति अधिक थी। दूसरे युद्ध में पनडुब्बियाँ भी अपना कमाल दिखाने लगी थीं। अब अणु शक्ति चालित पनडुब्बियों पर लदे हुए प्रक्षेपणास्त्रों और छोटे अणु बमों ने नौ सेना को मालवाही काम के लिए छोड़ा है। वे कोई बड़ा युद्ध जीतने में कारगर नहीं हो सके। इसके बाद नभ युद्ध की चर्चा आती है। दूसरे महायुद्ध में वायुयानों ने प्रमुख भूमिका निबाही थी। अब समय इतनी तेजी से आगे बदल रहा और आगे बढ़ रहा है कि परमाणु अस्त्रों और प्रक्षेपणास्त्रों को मात्र डरावने खिलौनों की स्थिति में रख दिया गया है। जापान पर उनका प्रथम और अन्तिम प्रयोग हो चुका। उनकी विभीषिका का वर्णन तो होता रहता है कि अब तक इतने अणुबम बन चुके, इतने उनके पास हैं और इतने उसके पास। इनमें से इतनों का प्रयोग हो सका, तो इतने समय में समूची धरती का सफाया हो जायेगा। किन्तु समय को पहचानने वाले कहते हैं कि वह बात बहुत पुरानी हो गयी। जो बन चुके वे ही बहुत हैं। अपनी शेखी बघारने और शत्रु को डराने को कोई प्रयोजन इतने भर से सिद्ध होता होगा तो हो जायेगा, अन्यथा इनके प्रयोग की कोई सम्भावना नहीं है। लड़ने वाले लोग इतने मूर्ख नहीं हैं कि सामने वाले को नष्ट करने के साथ-साथ अपना अस्तित्व भी मटियामेट कर लें। अपनी सुरक्षा पहले शत्रु का विनाश बाद में, इस नीति को समझाने वाले कदाचित् ही अणुबम की छेड़खानी करेंगे।

समझा जाना चाहिए कि हम अन्तरिक्ष युद्ध के समय में आ गये। ‘लैसर’ और उसकी सहेली किरणें ही अबकी बार प्रमुख अस्त्र होंगे। इसके लिए एक उपग्रह में बैठकर जाने वाला इतना भण्डार लादकर ले जाएगा कि पृथ्वी से 15 मील ऊँचाई पर पहुँच की निर्धारित लक्ष्य पर प्रहार करेगा और नक्शे में जितने क्षेत्र को जलाने के लिए कहा गया होगा उतने को कुछ सेकेंडों में ही भून कर रख देगा। अस्तु सर्वसाधारण को तृतीय महायुद्ध की कल्पना करनी हो तो वह अन्तरिक्ष से होगा और लैसर किरणों का उनमें प्रयोग होगा यह अनुमान लगा लेना चाहिए।

विजय के आकाँक्षी सोचते हैं कि एक बार आकाश को उपग्रहों से साफ कर दिया जाय। सबको जला देने या गिराकर समुद्र में डुबो देने का प्रबन्ध किया जाय। इसके बाद पूरे आकाश पर आधिपत्य जमाकर जितने भूभाग का विनाश करना हो कर दिया जाय। चक्रवर्ती बनने के यही मनसूबे लोगों के दिमाग में हैं। समय बतायेगा कि भवितव्यता क्या है? पर इतना अनुमान लगाने में हर्ज नहीं कि थल और जल के युद्धों का समय चला गया। अब वे आकाश में लड़े जायेंगे।


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