वीरभद्रों का स्वरूप और उपक्रम

December 1984

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पंच ज्ञानेन्द्रियों, पंच कर्मेन्द्रियों तथा मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के अन्तःकरण चतुष्टय वाला स्थूल शरीर प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता और व्यवहार में आता है। इसके अधिष्ठाता को प्राणी कहते हैं। प्राणी तभी तक जीवित रहता है जब तक स्थूल शरीर सक्रिय है। लोक व्यवहार इसी के सहारे चलते हैं। दैनन्दिन जीवन व्यापार से आगे चलकर अन्य चार शरीर और रह जाते हैं। वे अध्यात्म प्रयोजनों में काम आते हैं। कहीं इन्हें तीन, कहीं पाँच माना गया है। तीन ग्रन्थियाँ, ब्रह्म ग्रन्थि, विष्णु ग्रंथि एवं रुद्र ग्रंथि हैं। इसके आधार पर भी ऋषियों ने स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर माने हैं। किन्तु दूसरे मत द्वारा पंचकोशों को प्रधानता दी गयी है और साथ ही हर कोश को एक स्वतन्त्र शरीर भी माना है। ये हैं अन्नमय कोश- प्राणमय कोश- मनोमय कोश- विज्ञानमय कोश एवं आनन्दमय कोश। इस मान्यता के अनुसार पाँच शरीर बन जाते हैं। यह पाँच तत्वों से भिन्न हैं, पाँच प्राण भी इनसे पृथक् हैं। यहाँ पाँच कोश पाँच दैव शक्तियों से अनुप्राणित होते हैं। सूर्य, इन्द्र, अग्नि, पवन और वरुण इन पंचकोशों के अधिष्ठाता हैं।

सूक्ष्मीकरण प्रयोजन में इन कोशों को ऐसी विशिष्ट विधि से जागृत किया जाता है कि छह चक्रों में से पाँच इन कोशों के साथ लिपट जाते हैं। इन गुंथित शरीरों को वीरभद्र कहा गया है। इनमें से पाँचों का एक स्वतंत्र शरीर भी है जिन्हें क्रमशः फिजीकल बॉडी, ईथरीक बॉडी (डबल), एस्ट्रल बॉडी, मेण्टल बॉडी एवं कॉजल बॉडी थियोसॉफी मान्यतानुसार कहा जाता रहा है। इन्हें पाँच लोक भी कहते हैं। जिनकी आत्मा सूक्ष्म शरीर की जिस स्थिति में स्व्यं को सक्षम एवं मजबूत बना लेती है, तब उस लोक में वास करने लगती है, ऐसा माना जाता है। हर लोक की शक्तियाँ, सिद्धियां और उनकी चमत्कारी फलश्रुतियाँ पृथक्-पृथक् हैं। भिन्न-भिन्न प्रसंगों में ये शक्तियाँ परस्पर मिलकर तीसरी अभिनव क्षमता को जन्म देती हैं। कब किस कोश को क्या पुरुषार्थ करना पड़ सकता है, इस क्रम से उनके सम्मिश्रण गुँथते और टूटते रहते हैं। यह प्रकृति की उसी विधि व्यवस्था के समान होता है जिसमें ऊर्जा एक, स्थिर, अविनाशी होते हुए भी भिन्न रूपों में होती है एवं परिस्थितियों के अनुसार अपना रूप बदलती रहती व कभी एक समुच्चय के रूप में विद्यमान होती है।

इन पाँच वीरभद्रों का कार्यक्षेत्र अत्यन्त व्यापक एवं सार्वजनिक है। अतीन्द्रिय क्षमताएँ व्यक्तिगत चमत्कार कर दिखाती हैं किन्तु कोशों की क्षमता एक ही समय में प्रकृति के हजारों व्यक्तियों को उनकी पात्रता के अनुरूप प्रभावित करती हैं, उन्हें एक जैसी प्रेरणा देती हैं और एक दिशा में- एक मार्ग पर चलाती हैं। जो वीरभद्र के साथ संपर्क साधने में समर्थ हो जाते हैं, वे अनुभव करते हैं कि उन्हें किसी विशेष प्रयोजन के लिये- किसी दिशा विशेष में बलपूर्वक धकेला जा रहा है। सामान्यतया लोक-शिक्षण, प्रवचन, परामर्श, दबाव, प्रलोभन एवं आतंक बल से ही किसी के विचार परिवर्तित किए जाते हैं और पुराना अभ्यास- निज का स्वभाव न होते हुए भी वह करा लिया जाता है जो सशक्त कराने वाला कराना चाहता है।

इसके लिए स्थूल शरीर वाली पाँच शक्तियाँ स्थूल शरीर में तो सामान्य रहती हैं परन्तु सूक्ष्म स्थिति में जाकर अपनी विशिष्टता दिखाने लगती हैं। इनके प्रभाव थोड़ी मात्रा में स्थूल शरीर में भी परिलक्षित होते हैं किन्तु सूक्ष्मशरीर में जब उनकी आवश्यकता अधिक पड़ती है तब वे प्रचण्ड हो जाती हैं। पाँच वीरभद्रों की ये पाँच स्वतन्त्र शक्तियाँ इस प्रकार हैं- बायोइलेक्ट्रीसिटी (जैव विद्युत), बायोमैग्नेटिज्म (जैव चुम्बकत्व), रेडिएशन (विकिरण), क्रिएशन-रिप्रोडक्शन (प्रजनन- नव निर्माण), इम्युनिटी (प्रतिरोधी क्षमता) सक्रिय होने पर सूक्ष्म शरीर द्वारा पाँचों का प्रयोग प्रभाव डालने में नियोजित होता है। युग परिवर्तन की इस प्रक्रिया में प्राणवान व्यक्तियों की जिन्हें महती भूमिका निभानी है, आन्तरिक परिवर्तन किया जाना है। उनके गुण, कर्म, स्वभाव में ऐसे तत्वों का प्रवेश कराया जाना है जो प्रचलन के हिसाब से तो अभ्यास में नहीं थे परन्तु महान् प्रयोजन के निमित्त उनकी अनिवार्य आवश्यकता पड़ती है। इसी प्रकार परिवर्तन टिकाऊ होता है।

स्वभाव बदलने में तो हल्के दबावों से भी काम चल जाता है किन्तु जब उन्हें किसी उच्चस्तरीय मोर्चे पर बढ़ाया जाता है और कुछ कर गुजरने की स्थिति तक पहुँचाया जाता है तो उन प्राणवानों की नसों में नए सूक्ष्म इन्जेक्शन दिये जाते हैं। यह प्रक्रिया कहाँ सम्पन्न हो? इसके लिये उपयुक्त स्थान है- सूक्ष्म शरीर में अवस्थित नाड़ी गुच्छक। यों गुच्छकों (प्लेक्सस) को चक्र भी कहते हैं, पर वे वस्तुतः दो अलग-अलग सत्ताएँ हैं। गुच्छक नजर आ जाते हैं। परन्तु सूक्ष्म विद्युतप्रवाह दृष्टिगोचर नहीं होता। लड़ने के लिये शराब पिलाकर मोर्चे पर भेजा जाता है तो वह सूक्ष्म सत्ता इतना पराक्रम दिखाती है कि आदमी अपने मरने-जीने की बात भूल जाता है। ठीक इसी प्रकार वीरभद्र क्षमता द्वारा किन्हीं से जटायु, हनुमान, जामवंत जैसे आवेश भरे कार्य कराने होते हैं तो उनके प्लेक्सस उत्तेजित किए जाते हैं। हर प्लेक्सस की प्रकृति अलग-अलग है। इसलिये किससे क्या कराना है, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए उनमें से अमुक की छेड़छाड़ की जाती है। ये प्लेक्सस हैं- सेक्रल, सोलर, कार्डियक, फेरिन्जियल एवं कैवर्नस। यदि इनकी संगति सूक्ष्म चक्र उपत्यिकाओं से बिठाई जाय जो इड़ा-सुषुम्ना-पिंगला के दोनों ओर होती हैं, तो इन्हें मूलाधार, मणिपूरित, अनाहत, विशुद्धि एवं आज्ञाचक्र से सम्बन्धित माना जा सकता है। ये पाँचों सूक्ष्म शरीर में प्रभावी होते हैं। स्थूलतः तो इनके चिन्ह मात्र नजर आते हैं। पर वे कोई महत्वपूर्ण कार्य करते दिखाई नहीं पड़ते। किन्तु जब भी किन्हीं के द्वारा महामानव स्तर के पराक्रम किए जाते हैं तो प्रतीत होता है कि वे उत्तेजित हो रहे हैं। महापुरुषों के किस मार्ग पर कौन चल रहा है या चलाया जा रहा है, इस संदर्भ में किस प्लेक्सस की तैयारी किस प्रकार की जाये, किस मात्रा में उन्हें उत्तेजन की आवश्यकता होगी, इसका नियन्त्रण वीरभद्र प्रणाली के विशेषज्ञों द्वारा बड़ी बारीकी से किया जाता है।

सामान्य प्रतिभा या व्यक्तित्व हर काम में विशिष्टता प्रमाणित करता है। शरीर से दुर्बल और आकार में छोटा, वजन में हल्का होते हुए भी कोई व्यक्ति प्रतिभावान हो सकता है। इसके विपरीत शरीर से हृष्ट-पुष्ट, बलिष्ठ भारी होते हुए भी कोई प्रतिभाहीन हो सकता है। कोई कठिन काम सामने आते ही घबरा जाता है और बुद्धि किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती है। प्रतिभावान होने के लिए स्थूल शरीर की बनावट या अच्छी तंदुरुस्ती ही सब कुछ नहीं है। इसके लिए सूक्ष्म शरीर में पाए जाने वाले एन्जाइमों की बड़ी भूमिका होती है। एन्जाइम अनेक हैं पर इस प्रसंग में जो कहने लायक भूमिका निभाते हैं वे मस्तिष्क से स्रवित न्यूरोह्यूमोरल रस स्राव हैं। इनमें डोपामिन, एण्डार्फिन, एनकेफेलीन, मात्रा एवं हिस्टामिन विशेष हैं। ये सीधा सम्बन्ध मन से रखते हैं एवं चिन्तन क्रिया को उत्तेजित करके मनुष्य को तेजस्वी, मनस्वी बनाते हैं। इस प्रक्रिया से सम्बन्धित मनःक्षेत्र को बलिष्ठ बनाने वाले पाँच न्यूरोलॉजिकल सिस्टम हैं- (1) रेटीकुलर एक्टीवेटिंग सिस्टम (2) कार्टीकल न्यूकलाई (3) थेलेमस (4) हाइपोथेलेमस (5) मेड्युला-स्पाइनल कॉर्ड। यों ये शरीर में ही पाये जाते हैं पर इनका संचालन ढर्रे में ही होता है। स्थूल प्रयासों से इन्हें प्रभावित नहीं किया जा सकता। जबकि सूक्ष्म सामर्थ्य के स्पर्श मात्रा से इनमें हलचल मच जाती है और प्रसुप्त की जागृति होते ही मनुष्य आध्यात्मिक क्षेत्र में भी अपनी विशेष बलिष्ठता का परिचय देने लगता है।

ये प्रयोग वे हैं जिनके सहारे सार्वजनिक हित प्रयोजन के लिए आदर्शों पर सुदृढ़ और महत्वपूर्ण कार्यों के लिए मनुष्य अपना पराक्रम दिखाने लगता है। इन गुह्य शक्तियों को थपथपाने और विशिष्ट बनाने के लिए महा बलशाली वीरभद्रों की आवश्यकता पड़ती है। इन प्रयोगों के सहारे कमजोर स्तर के परन्तु निष्ठावान्- सुपात्र भी बलवानों जैसी भूमिका निभा सकते हैं। इनका प्रयोग संक्षेप में एक छोटे स्तर पर पिछले दिनों सीमित मात्रा में किया जाता रहा है। पर समय की आवश्यकता अब उन वरिष्ठ लोगों का दरवाजा खटखटाने को विवश कर रही है।

इतिहास में ऐसे अनेकों घटनाक्रम देखने को मिलते हैं, जिनमें शक्ति, साधन और अवसर होते हुए भी व्यक्ति आदर्शवाद की, पराक्रम की परीक्षा होने पर सिटपिटा गए। दूसरी ओर ऐसी भी घटनाएँ हुई हैं कि शरीर सामान्य और अवसर समन होते हुए भी शारीरिक, मानसिक स्फूर्ति एवं सूझ-बूझ के बलबूते वे इतना कुछ कर सके जिसे देखकर दर्शकों को दंग रह जाना पड़ा। बुद्ध और गाँधी के दो उदाहरण ऐसे ही हैं, जिनमें उनके अनुयायी-पक्षधर सामान्य होते हुए भी असामान्य कर दिखा पाने में सफल हुए। इस भिन्नता का कारण बहिरंग में नहीं, अन्तरंग में है। ऐसे अन्तरंग हेतु दूसरों के द्वारा भी उत्पन्न किये जा सकते हैं। युग परिवर्तन जैसे अवसरों पर ऐसी विशिष्टता की तो विशेष रूप से आवश्यकता पड़ती है।

सामयिक परिवर्तन एक बात है और स्वभाव में स्थायी परिवर्तन ला देना नितान्त भिन्न प्रकरण है। वाल्मीकि, अंगुलिमाल, अजामिल आदि जन्मजात दुष्ट प्रकृति के थे पर उनमें असाधारण, आश्चर्यजनक और स्थायी परिवर्तन आया। ऐसे परिवर्तन ब्राह्मी चेतना चेतना की प्रेरणा से होते हैं एवं सीधे मनुष्य की सूक्ष्म विद्युत धाराओं पर प्रभाव डालकर उन्हें कुछ का कुछ बना देते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से बायोइलेक्ट्रीसिटी से सम्बन्धित इन परिवर्तनों को पाँच विद्युतक्षेत्रों में क्रियाशील देखा जा सकता है। ये हैं- प्लेक्स इलेक्ट्रीसीटी, न्यूरोलन इलेक्ट्रीसीटी, सेल्युलर इलेक्ट्रीसीटी, कण्डक्शन इलेक्ट्रीसीटी एवं फेशियल आक्युलन इलेक्ट्रीसीटी। सीधी सादी भाषा में समझना हो तो इन्हें क्रमशः चक्र-उपत्यिकाओं से सम्बन्धित विद्युत, स्नायु संस्थान में सतत् प्रवाहित, जीवकोशों में सक्रिय विद्युत, हृदय के विशिष्ट कोशों व पेसमेकर में क्रियाशील, विद्युत एवं चेहरे-आँखों से निस्सृत विद्युतप्रवाह माना जा सकता है। विशिष्ट उपकरणों द्वारा इन्हें बनाया भी जा सकता है। इन्हीं को साय या की एनर्जी कहते हैं एवं अध्यात्म क्षेत्र में यही ओजस्, तेजस्, मनस्, वर्चस् जैसे नामों से जानी जाती हैं। इनकी मात्रा का शरीर में होना- रक्त, माँस, आदि की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। इनकी क्षीणता ही व्यक्ति को प्रभावहीन, दुर्बल, निस्तेज बना देती है।

सद्गुणों, सत्प्रवृत्तियों, सन्मार्ग गमन के लिए आवश्यक पराक्रमों को जहाँ बढ़ाया जा सकता है वहाँ दुर्गुणों, दुष्कर्मों के प्रति बढ़े हुए उत्साह को घटाया और शान्त समाप्त भी किया जा सकता है। इसके लिए हारमोन चाबी का काम करते हैं। ये वे रसस्राव हैं जो ग्रन्थियों से सीधे रक्त में स्रवित होकर अपना प्रभाव परिचय देते हैं। वे बढ़ाने और घटाने के दोनों ही प्रयोजनों में काम आते हैं। शरीरगत हारमोन्स को प्रभावित करने वाली प्रधान ग्रन्थियाँ व उनसे स्रवित रस-द्रव्य इस प्रकार हैं- पीनियल (मेलेटोनिन), पिट्यूटरी (सोमेटोट्रापिक हारमोन), थाइराइड (थायरॉक्सिन), एड्रीनल (ए.सी.टी.एच.), मोनेड्स (टेस्टोस्टेरॉन-इन्ट्रोजन)। इनमें पाँचवीं अन्तिम का एक भाग पुरुषों से सम्बन्धित एवं दूसरा नारी सम्बन्धी है। इन हारमोन्स को ठण्डा कर देने से मनुष्य शारीरिक, मानसिक और प्रजनन की दृष्टि से निःसत्व हो जाता है। उसका उत्साह हर कार्य में ठण्डा हो जाता है। अन्यान्य हारमोन्स के सम्बन्ध में भी यही बात है। वे मूलतः मनुष्य को कर्मठ, ओजस्वी, स्फूर्तिवान, परिपक्व बनाने के निमित्त अपने क्रिया-कलाप चलाते हैं। मानव की किस दुष्प्रवृत्ति को शान्त करने के लिए कब किस हारमोन को, किस प्रकार छोड़ा जाये, वह कार्य अनुभवी प्रयोक्ता का है। आत्मिक चेतना की स्थिति के अनुरूप, पात्रता को देखते हुए वाँछित परिवर्तन किये जाते हैं।

जैसा कि पहले बताया गया मनुष्य में जो कुछ शक्ति दिखाई पड़ती है वह उसके रक्त-मांस एवं स्नायु संस्थान पर निर्भर नहीं है वरन् पाँच प्रकार की जैव विद्युत के सूक्ष्म प्रवाहों पर निर्भर है। इन्हीं पाँच विद्युतप्रवाहों पर मानवी प्रतिभा एवं व्यक्तित्व का निर्माण निर्भर करता है। शत्रु पक्ष का तेज हरण करने हेतु इन्हीं आकर्षण शक्तियों को खींच लिया जाता है। ताँत्रिक प्रयोगों में शत्रु की इन्हीं शक्ति धाराओं को दुर्बल कर दिया जाता है।

किसी को वंश परम्परा को समर्थ या दुर्बल बनाने के लिए उनकी जीन्स को प्रभावित किया जाता है। जीन्स में दो प्रमुख हैं। डी.एन.ए. एवं आर.एन.ए.। इन्हीं से मिलकर जीन्स बनते हैं। जीन्स क्रोमोसोम बनाते हैं। क्रोमोसोम ही वंश परम्परा का निर्धारण व पीढ़ी दर पीढ़ी संचालन करते हैं। लंका में इसी आधार पर एक ही प्रकार के अनेकों दानव बनाने का कार्य सम्पन्न हुआ था। कौरवों का जन्म गाँधारी के कोख से महर्षि व्यास द्वारा जीन याँत्रिकी के प्रयोग से ही किया गया था। शृंगी ऋषि द्वारा चरु के माध्यम से ही जीन्स के सूक्ष्म घटकों को प्रभावित कर राम, भरत एवं लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न के जन्म होने की क्रिया सम्पादित हुई थी।

वंशानुक्रम के आधार पर ही देश-देशान्तरों के व्यक्तियों की विशेषताएँ निर्भर करती हैं। उजबेकिस्तान के दीर्घायु, बलूचिस्तान के पठान एवं नीग्रो, मंगोल आदि नस्लें जीन्स जैसे सूक्ष्म घटकों पर ही निर्भर हैं। अगले दिनों युग परिवर्तन के निमित्त महामानवों की जब आवश्यकता पड़ेगी तो इस प्रक्रिया को जीन्स के स्तर तक ही ले जाना पड़ेगा।

मन और स्वभाव में परिवर्तन के लिए शिक्षण प्रक्रिया भर से ही काम नहीं चलेगा। सके लिए चेतना की पाँच परतों में आवश्यक उथल-पुथल करनी होगी। चेतना के ये पाँच आवरण हैं- चेतन, अचेतन, सुपर चेतन, अवचेतन एवं प्रसुप्त। किसी के चिन्तन की श्रेष्ठता-निकृष्टता, बुद्धिमत्ता, मूढ़ता का आधार बहुत कुछ इन पर निर्भर है।

स्थूल वस्तुएँ- दृश्यमान पदार्थ किस अनुपात में घटे बढ़े, इसका आधार है निखिल ब्रह्मांड के धरातल में संव्याप्त सूक्ष्म किरणों का संसार। ये भी पाँच प्रकार की हैं- अल्ट्रा वायलेट, इन्फ्रारेड, कॉस्मिक, रेडियो किरणें तथा इन्टरस्टेलर किरणें। इन्हीं के आधार पर वातावरण विनिर्मित होता, बनता-बिगड़ता है। युद्धोन्माद, शान्ति-सौजन्य, शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य, विभीषिकाएँ पदार्थों का आविर्भाव जैसी अनेकों वातावरण से सम्बन्धित पक्ष इन किरणों के अनुपात एवं प्रवाह पर निर्भर करता है। इन्हीं से सम्बन्धित ब्रह्मांडीय पाँच कण भी हैं- (1) न्यूट्रीनो (2) क्वार्क्स (3) पल्सार्ज (4) फोटॉन्स (5) लेप्टॉन्स। इनकी उथल-पुथल से पदार्थ जगत एवं वातावरण प्रभावित होता है, वस्तुओं के उत्पादन- अभिवर्धन में घट-बढ़ चलती है। जीव जगत भी उससे अप्रभावित नहीं रहता।

समझाने बुझाने में प्रचार तन्त्र बहुत थोड़ा ही काम आता है। वाणी, कान और दृश्य दिखाकर मनुष्य की मनःस्थिति बहुत थोड़े अंशों में प्रभावित की जा सकती है। सूक्ष्म ध्वनि तरंगें न केवल मस्तिष्कों को बदलने में वरन् और भी अनेकानेक प्रयोजनों में अपनी चमत्कारी भूमिका निभाती हैं। ध्वनि तरंगें पाँच प्रमुख हैं- (1) सोनिक (2) अल्ट्रा सोनिक (3) इन्फा सोनिक (4) हाइपर सोनिक (5) सुपर सोनिक। भौतिक विज्ञानी इनसे शक्ति परक काम लेते हैं। पर अध्यात्मवेत्ता इनसे समूचे वातावरण को प्रशिक्षित, परिवर्तित करने का काम ले सकते हैं। वे किस वेवलेंग्थ या फ्रींक्वेसी पर काम करते हैं, यह वैज्ञानिकों के लिये जान पाना तो कठिन है परन्तु सूक्ष्मीकरण साधना से आन्दोलित एक व्यापक जन समुदाय में परिवर्तन अवश्य देखा जा सकता है। परिणति को देखकर ही शक्ति का अनुमान लगाया जा सकना सम्भव है।

ध्वनि तरंगों के साथ-साथ ब्रह्मांडीय कण न्यूट्रीनो, क्वार्क्स, प्रल्सार्ज, फोटॉन्स, लेप्टान भी ब्रह्मांडीय शक्तियों के आकर्षण, अपकर्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पृथ्वी और ब्रह्मांड के बीच सौर मण्डल तथा अन्यान्य तारकों, निहारिकाओं का प्रत्यावर्तन चलता रहता है। उसे संतुलित बनाने के लिये इन्हीं को माध्यम बनाया जाता है।

दृश्य और अदृश्य वातावरण- प्रत्यक्ष लोक और सूक्ष्म लोक का स्थान पृथ्वी पर एवं पृथ्वी से ऊपर उन परतों से मिला-जुला अवस्थित है जिन्हें सफीयर नाम से जाना जाता है। पृथ्वी से सम्बन्धित वातावरण के- 5 अंग हैं लीथोस्फियर, हाइड्रोस्फीयर, बायोस्फीयर, पीडोस्फीयर एवं एटमॉस्फीयर। इनसे ऊपर आयन मण्डल है जो पृथ्वी सतह से 500 किलोमीटर ऊपर तक चला गया है। कोई भी बड़े और व्यापक परिवर्तन जब धरित्री पर करने होते हैं तो इन परतों में जमी गन्दगी को पूरी तरह साफ करना पड़ता है। आयन मण्डल की पाँच परतें इस प्रकार हैं- एण्डोस्फीयर, ट्रोपोस्फीयर, स्ट्रेटोस्फीयर, आयनोस्फीयर एवं एक्जोस्फीयर। बादल, धूलि किरणें, जेट स्ट्रीम, आदि स्ट्रेटोस्फीयर व पृथ्वी के बीच होते हैं जबकि ओजोन परत, रेडियो किरणें, कॉस्मिक किरणें, सूक्ष्म किरणें, कण व तरंगें इसके व एक्जोस्फीयर के मध्य फैले होते हैं। खगोल भौतिकविदों द्वारा छोटे-मोटे परिवर्तन ही इन परतों में सम्भव हो पाते हैं। पर जब विकृतियाँ प्रलय या खण्ड प्रलय जैसी बन पड़ें, अणु-आयुधों की व्यापक विषाक्तता जैसे संकट आ खड़े हों, जो इन परतों में उथल-पुथल मचाकर विभीषिका का दृश्य खड़ा कर दें तो उसका संशोधन सशक्त अध्यात्म विज्ञान के सहारे ही बन पड़ता है। उस स्तर के वैज्ञानिक वीरभद्र कहलाते हैं। इन्हें चेतन जगत की सशक्त क्षमता के रूप में ही जाना एवं माना जाना चाहिए।

मानव शरीर एक छोटा पिण्ड है किन्तु इसमें ब्रह्माण्ड का सार संक्षेप पूरी तरह समाहित है। शरीर की पाँचों सामर्थ्यों को जिनको पूर्व में वर्णित किया गया, ब्रह्माण्डव्यापी समष्टिगत शक्तियों का संक्षिप्त संस्करण माना जा सकता है। ये हैं जैवविद्युत, जैवचुम्बकत्व, सृजनात्मकशक्ति, विकिरण एवं प्रतिरोधी शक्ति। इन्हीं की पचाने योग्य विधेयात्मक सामर्थ्य को व्यक्ति-व्यक्ति में, समग्र समुदाय में सूक्ष्मीकरण साधना द्वारा पात्रता परखते हुए गुरुदेव विकसित कर रहे हैं। इन्हीं पाँचों को उन्होंने इस एक वर्ष की अवधि में विकसित पंच वीर भद्रों का नाम दिया है। यह जितने परिमाण में जागृत सशक्त हो सकेंगे, जिस अनुपात में उपयोगी पात्र उन्हें मिलते जायेंगे, उसी अनुपात में विश्व परिवर्तन के- युग परिवर्तन के अनेकानेक प्रयोजनों में इनका सुनियोजन हो सकेगा।

देवमानवों का सृजन, वातावरण का संशोधन, कषाय कल्मषों का उन्मूलन, नव सृजन के उपयोगी साधनों का उत्पादन, छाए हुए संकट- घटाटोपों से परित्राण जैसे कितने ही काम हैं जो जागृत वीरभद्रों के द्वारा समयानुसार आवश्यकतानुसार सम्पन्न होंगे। कब, किस प्रयोजन को, कितनी मात्रा में कर सकना सम्भव हो सकेगा, यह समय ही बताएगा।

अभी इस जागरण की साधना चल रही है। एक को पाँच में विभाजित किया जा रहा है। कार्य इतना कठिन है कि सब ओर से ध्यान समेट कर एकान्त एवं मौन का उपक्रम अपनाया गया है। आशा की गयी है कि आगामी बसन्त तक इतनी प्रगति सम्भव हो सकेगी कि उसके सहारे अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए कुछ कहने लायक कदम बढ़ सकें।


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