वंशानुक्रम निर्धारण हेतु उत्तरदायी अविज्ञात चेतना शक्ति

December 1984

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दृश्य रूप में मनुष्य का अस्तित्व देखने वाले यह नहीं जानते कि इस स्थिति तक आने में किसी अविज्ञात तंत्र द्वारा कितना प्रबल पुरुषार्थ किया है। शुक्राणु के मूल में छिपी गुण सूत्र की सत्ता किसी मनुष्य की आकृति-प्रकृति-स्वभाव का निर्धारण करती है एवं शुक्राणु-डिम्बाणु के साथ-साथ शरीर की विलक्षण हलचल एवं मिलन की आकाँक्षा इस प्रक्रिया में योगदान देती है, यह तथ्य अब सबको विदित है। आनुवाँशिकी, प्रतिक्रिया, भ्रूण विकास सम्बन्धी तथ्यों की भली-भाँति जानकारी होते हुए भी वैज्ञानिक अभी एक तथ्य के सम्बन्ध में अन्धेरे में भटक रहे हैं। वह है एक अविज्ञात चेतन शक्ति जो गर्भाशय में उपयुक्त पर्यावरण के होते हुए भी डी. एन. ए. (डिसॉक्सीरी बोन्यूकलीफ एसिड) को प्रेरणा देती है कि वह अमुक रीति से अमुक प्रकृति के जीवकोषों को अंगों के रूप में संजोएं। यह मूल प्रेरक बल क्या है? कहीं यह वही प्रेरणा प्रवाह तो नहीं जो संस्कारों को माँ से गर्भस्थ शिशु में संप्रेषित करता है, जो गर्भकाल की परिस्थितियों का गर्भस्थ बालक की मनःस्थिति एवं संरचना पर प्रभाव डालता है?

इस सम्बन्ध में एक नयी परिकल्पना कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के बायोकेमीस्ट्री एवं सेल बायोलॉजी विभाग के निदेशक डा. रुपर्ट शेल्ड्रेक ने प्रस्तुत करके वैज्ञानिकों के समक्ष एक चुनौती रख दी है। उनका मत है कि भ्रूण का विकास गुण सूत्रों के मौलिक घटक डी.एन.ए. जो आनुवाँशिकी के सन्देशवाहक एवं भ्रूण निर्माता माने जाते हैं, तथा गर्भाशय के भौतिक पर्यावरण में पारस्परिक सम्बन्धों से नियन्त्रित नहीं होता। इस प्रक्रिया के मूल में एक पराभौतिक सक्रिय बल कार्य करता है जिसे उन्होंने मार्फीजेनेटिक फील्ड नाम दिया है। जिस प्रकार एक चुम्बक की उपस्थिति के कारण आस-पास एक विशेष प्रकार का ऊर्जा क्षेत्र सक्रिय हो जाता है एवं वहाँ उपस्थित लोहे के कण परस्पर गुँथकर एक हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार रति क्रिया व भ्रूण की गर्भाशय में स्थापना के साथ ही एक चेतन प्रेरक बल गर्भाशय में सक्रिय हो जाता है जो शरीर एवं मन को वाँछित रूप एवं आकार दे सकने में सक्षम होता है। इस रहस्यमय अभौतिक ऊर्जा स्रोत के बारे में अपनी परिकल्पना प्रस्तुत करते हुए वे आगे लिखते हैं कि गर्भस्थ भ्रूण तथा माफोजेनेटिक बल के बीच जो लयबद्धता (मार्फिक रेजोनेन्स) विकसित होती है, वही शरीर के सूक्ष्म से सूक्ष्म अंगों की संरचना एवं मस्तिष्कीय बुद्धि कौशल, स्मृति तथा जन्मजात विलक्षण क्षमताओं के लिये उत्तरदायी है।

यह परिकल्पना एक प्रकार से जीन याँत्रिकी पर कार्यरत डी. एन. ए. गुण सूत्र इत्यादि में परिवर्तन लाने हेतु संकल्पित वैज्ञानिकों के लिए एक प्रहार है क्योंकि इससे उनकी मूलभूत मान्यता पर ही कुठाराघात हो जाता है। जीन की कलमों द्वारा नये विलक्षण प्रकृति के मनुष्यों को बनाने वाले वैज्ञानिकों के लिए सन्देश देते हुए यह चालीस वर्षीय वैज्ञानिक कहता है कि मनुष्यों और पशुओं में मौलिक अन्तर है। प्रयोग पशुओं में किए जा सकते हैं व सम्भवतः नयी भिन्न-भिन्न किस्म की आकृति प्रधान नस्लें उनकी बनायी भी जा सकती हैं पर यह कार्य मनुष्य में सम्भव नहीं क्योंकि उसके कई क्रिया-कलाप अभी भी अविज्ञात एवं रहस्यमय हैं।

अपनी मान्यता पर कुठाराघात होने से वैज्ञानिकों का सकपकाना स्वाभाविक है। यही कारण है कि एक वर्ग ने उनकी इस पुस्तक, जिसमें इस परिकल्पना को प्रस्तुत किया गया है- “ए न्यू साइन्स ऑफ लाइफ दी हाइपोथीसिस ऑफ फार्मेटिव काजेशन”, की जमकर आलोचना की है। जबकि एक वर्ग जो अपेक्षाकृत अधिक उदारवादी विचारकों ने इसे एक क्रान्तिकारी कल्पना कहा है। ग्लासगो विश्वविद्यालय के दार्शनिक- वैज्ञानिक डा. स्टीफन क्लार्क ने शैंल्ड्रेक की मान्यता का समर्थन करते हुए इसे पूर्वार्त्त दर्शन की उस मान्यता के अनुकूल बताया है जिसमें संस्कारों के माँ से बालक में गर्भकाल की अवधि में स्थानान्तरित होने का वर्णन किया जाता है। शारीरिक आकृति-प्रकृति का निर्धारण तो इस अवधि में होने वाले चिन्तन से प्रभावित होता ही है, बालक के चिन्तन, क्रिया-कौशल, प्रतिभा एवं भाव संवेदनाओं तक के लिये वह मार्फोजेनेटिक बल जिम्मेदार ठहराया जा सकता है जो परोक्ष रूप से माँ के गर्भाशय में चिन्तन व भावना के अनुरूप क्रियाशील रहता है, ऐसी उनकी मान्यता है। इसी प्रकार कैम्ब्रिज विश्व विद्यालय के भूतपूर्व उपकुलपति एवं जीव विज्ञानी सर एरिक एस्बी ने शैंल्ड्रेक के प्रतिपादन को गम्भीरता पूर्वक लिया है व कहा है कि “वनस्पति एवं प्राणी विकास सम्बन्धी परम्परागत मान्यताओं की दृष्टि से यह एक चुनौती भरा रहस्योद्घाटन है। हमें मानवी विकास, उसके चिन्तन एवं व्यवहार के लिये भ्रूण विज्ञान की गहराई तक जाकर ‘फार्मेटिव काजेशन’ के इस सिद्धान्त पर भली-भाँति मनन-चिन्तन करना चाहिए ताकि बाद में उत्पन्न होने वाली विकृतियों के लिए कारण को मूल रूप में ढूँढ़ा जा सके।”

शैंल्ड्रेक द्वारा प्रतिपादित मार्फोजेनेटिक ऊर्जा क्षेत्र न तो रासायनिक है, न ही विद्युतचुम्बकीय। यदि यह वास्तव में लेखक की मान्यता के अनुरूप एक पराभौतिक बल है तो यह प्रकृति में विद्यमान चार मूल बलों से नितान्त अलग एक नया ही विलक्षण बल होगा। आनुवाँशिकी की थ्योरी के अनुसार परम्परागत रूप में स्थानान्तरित होने वाले गुणों के लिए शैंल्ड्रेक के इस अभौतिक बल को उत्तरदायी ठहराना उचित होगा, जहाँ कोई भी कारण ऐसा नहीं मिलता जिसके लिए डी.एन.ए. को मूलभूत स्रोत माना जा सके।

कठिनाई यह है कि भ्रूण विज्ञानियों, जीवविज्ञानियों एवं व्यवहारवैज्ञानिकों में परस्पर समन्वय नहीं बैठ पाता। जहाँ पहला वर्ग आकृति एवं स्थूल प्रक्रियाओं को ही सब कुछ मानता है, वहाँ दूसरा वर्ग विचार करने की शक्ति एवं परिधि, मानसिक दक्षता, सीखने की क्षमता एवं संवेदनात्मक प्रतिक्रियाओं के व्यवहार रूप को अधिक महत्व देता है। दोनों ही प्रकार की प्रक्रियाएँ आनुवाँशिकी द्वारा ही माँ से पुत्र या पुत्री में आती हैं पर जहाँ आकृति के लिए माँ व पिता के क्रोमोसोम कुछ हद तक उत्तरदायी ठहराये जा सकते हैं, वहाँ प्रकृति एवं व्यवहार के लिये माँ का चिन्तन, भाव-सम्वेदना का स्तर, गर्भकाल में आस-पास का वातावरण अधिक उत्तरदायी है। पूर्वार्ध मनोविज्ञान एवं दर्शन इसी कारण गर्भकाल में माता के अहार, मानसिक स्वास्थ्य से लेकर उच्चस्तरीय भाव सम्वेदनाओं पर जोर देता रहा है। जैसा संकल्प बल इन दिनों माता के अन्दर विकसित होता है, वैसी ही सन्तति होती है। पुँसवन संस्कार के पीछे भी यही मूलभूत मान्यता है कि भ्रूण में वे संस्कार प्रविष्ट हों जो अभीष्ट हैं। गर्भस्थ भ्रूण पर इस अभौतिक बल के क्या प्रभाव पड़ सकते हैं, इसके कई उदाहरण मिलते हैं।

मिनीसोटा विश्वविद्यालय के डा. फाउलर ने गर्भावस्था में चिन्तन के बच्चे पर प्रभाव के अध्ययन हेतु कई माताओं का अध्ययन किया। एक घटना पत्रिका “न्यू साइन्टिस्ट” में उद्धृत करते हुए वे लिखते हैं कि एक स्त्री अपने बच्चे को बेचैन देखकर नींद लाने वाला सिरप देकर काम पर चली गयी। दुर्योगवश डोज कुछ अधिक हो गया, इस कारण बच्चा मर गया। लौटकर यह देखने पर उसके मन पर गहरा सदमा पहुँचा। इसी अवस्था में उसे दूसरा गर्भ ठहर गया। पहले बच्चे का दुःख तब तक बना रहा जब तक दूसरा उसकी गोद में न आ गया। यह दूसरा बच्चा मानसिक रूप से रोगी निकला। माँ का दुःख और बढ़ गया। तीसरा बच्चा जिद्दी व सनकी पैदा हुआ। चौथे बच्चे के जन्म के समय तक घर की आर्थिक स्थिति भी काफी ठीक थी व चिकित्सा की सुविधा भी उसे मिली। मनोवैज्ञानिकों ने उसका विश्लेषण कर उसे प्रसन्न रहने की सलाह दी व इसके लिये कई प्रकार के क्रियात्मक परामर्श दिये। चौथा बच्चा पूर्ण स्वस्थ, नीरोग एवं कुशाग्र बुद्धि का पैदा हुआ। इस केस का हवाला देते हुए डा. फाउलर लिखते हैं कि ऐसे मामलों में आनुवाँशिकी नहीं अपितु व्यवहार-चिन्तन को प्रधानता दी जानी चाहिए, जिसकी कि बहुधा उपेक्षा कर दी जाती है।

ऐसी अनेकों घटनाएँ मिलती हैं जिनमें जैसा पति-पत्नी ने चाहा, जैसी मनोभूमि विनिर्मित की, वैसी ही सन्तति जन्मी। एडमकोल्ट डेनमार्क का फ्रेडरिक 22 सन्तानों का पिता था। दोनों पति-पत्नी ने उन्हें गुणवान, चरित्रवान, प्रतिभाशाली बनाने हेतु कोई कसर नहीं छोड़ी व इसका अभ्यास गर्भस्थ स्थिति से ही आरम्भ कर दिया। फलतः 22 में से 4 बालक राजदूत, 2 सेनाध्यक्ष, 5 राज्यमंत्री तथा 11 राज्यपाल जैसे उच्च पदों पर आसीन हुए, उन्होंने पिता के गौरव को बढ़ाया। ट्यूक्सवरी के प्रसिद्ध चिकित्सक बेंजामिन किट्ज अपने व्यवसाय अपने व्यवसाय के प्रति अत्यन्त निष्ठावान थे। उन्होंने प्रत्येक सन्तान को चिकित्सक बनाने का लक्ष्य रखा, वैसा ही वातावरण बनाया। फलतः आठों सन्तानें जन्म से ही वे विलक्षणतायें लेकर जन्मीं जो उनके पिता ने चाही थीं। सभी चिकित्सक बने। वेल्स के लॉनपॉम्प सेण्ट के परिवार में जन्मे पाँचों बालक प्रसिद्ध सन्त बने। पाँच सन्तों के गिरजाघर उनके नाम से बने अभी भी प्रसिद्ध हैं। पाँचों भाई- सेण्ट ग्वाइन, सेण्ट सीथो, सेण्ट सेलाइमन, सेण्ट ग्वाइनो, एवं सेण्ट ग्वाईचीरो की समाधि वहाँ बनी है।

भारत में राणा साँगा व वीर हम्मीर का इतिहास भी कुछ ऐसा ही है। अन्य भाइयों में वैसी प्रतिभा न थी पर उनके जन्मकाल के पूर्व माँ के मन में जैसा संकल्प उभरा, वैसी ही सन्तति जन्मी।

वंशवाद की हठधर्मिता रखने वाले अंग्रेजों एवं जर्मनों में यह मान्यता जड़ जमाए बैठी है कि ये जातियाँ श्रेष्ठ वंश की हैं। इनमें रक्त सम्मिश्रण नहीं होना चाहिए। हिटलर इसी चिन्तन के परिणाम स्वरूप विकसित हुआ था। किन्तु भौतिक दृष्टि से वंश की श्रेष्ठता पर जोर देने वाले, आनुवाँशिकता को महत्व देने वाले उस मूल प्रेरक बल को भूल जाते हैं जो गर्भस्थ बालक की मनोभूमि बनाता है। सम्भवतः डा. रुपर्ट शैंल्ड्रेक की मार्फोजेनेटिक फील्ड वाली मान्यता क्रमशः वैज्ञानिकों के गले उतरने लगे एवं गर्भस्थ शिशु पर चिन्तन-भावना का विचार पड़ने का प्रतिपादन उन्हें विज्ञान सम्मत लगने लगे। तब फिर आकृति पर नहीं, प्रकृति पर-पीढ़ियों की श्रेष्ठता पर जोर दिया जाने लगेगा। अध्यात्म दर्शन की इस मान्यता को मानने पर वैज्ञानिक विवश होंगे कि जीन याँत्रिकी द्वारा श्रेष्ठ कलमें बनाने के स्थान पर उदात्त-उत्कृष्ट चिन्तन करने वाली भावना सम्पन्न सन्ततियाँ जन्म लें। इससे ह्यूमन जेनेटिक इंजीनियरिंग की वर्तमान मान्यताओं को तो चोट पहुँचेगी किन्तु उन्हें सही दिशा मिलेगी व भावी पीढ़ी श्रेष्ठ स्तर की होगी।


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