जिज्ञासु कात्यायन ने देवर्षि नारद से पूछा- भगवन्! आत्म-कल्याण के लिए विभिन्न शास्त्रों में विभिन्न उपचार उपाय बताये हैं। गुरुजन भी अपनी-अपनी मति के अनुसार कितने ही साधन विधानों के माहात्म्य बताते हैं। जप, तप, त्याग, वैराग्य, योग, ज्ञान, स्वाध्याय, तीर्थ, व्रत, ध्यान, धारणा, समाधि आदि के अनेक उपायों में से सभी को कर सकना एक के लिए सम्भव नहीं। फिर सामान्य जन यह भी निर्णय नहीं कर सकते, कि इनमें से किसे चुना जाय। कृपया आप ही मेरा समाधान करें, कि सर्वसुलभ और सुनिश्चित मार्ग क्या है? अनेक मार्गों के भटकाव से निकाल कर मुझे सरल अवलम्बन का निर्देश कीजिए।
उत्तर देते हुए नारद ने कात्यायन से कहा- ‘हे मुनि श्रेष्ठ! सद्ज्ञान और भक्ति का एक ही लक्ष्य है, कि मनुष्य सत्कर्मों में प्रवृत्त हो। स्वयं संयमी रहे और अपनी सामर्थ्यों को गिरों को उठाने और उठों को उछालने में नियोजित करे। सत्प्रवृत्तियाँ ही सच्ची देवियाँ हैं। जिन्हें जो जितनी श्रद्धा के साथ सींचता है, वह उतनी ही विभूतियाँ अर्जित करता है। आत्म-कल्याण और विश्व-कल्याण की समन्वित साधना करने के लिए परोपकाररत् रहना ही सर्वश्रेष्ठ है।
स्कन्द पुराण के इस वार्ता प्रसंग में कात्यायन की तरह अन्याय जिज्ञासु जनों का भी समाधान विद्यमान है।