एक बार एक धनी व्यक्ति ने एक ऊँची बल्ली पर रत्न जटित कीमती कमंडलु टाँग दिया और घोषणा की कि जो कोई साधु इस बल्ली पर सीधा चढ़कर कमंडलु उतार लेगा उसे यह कीमती पात्र ही नहीं बहुत दक्षिणा भी दूँगा। बहुत से त्यागी और विद्वान साधुओं ने भी प्रयत्न किया पर किसी को सफलता न मिली। अन्त में कश्यप नामक नट विद्या में बहुत-सा जीवन बिताकर साधु बने एक बौद्ध भिक्षु ने उस बल्ली पर चढ़कर कमंडलु उतार लिया। उसकी बहुत प्रशंसा हुई और धन भी मिला।
जब यह समाचार भगवान् बुद्ध के पास पहुँचा तो वे बहुत दुःखी हुए। उन्होंने सब शिष्यों को बुलाकर कहा- भविष्य में तुम में से कोई भिक्षु इस प्रकार का चमत्कार न दिखाये और न उन लोगों से भिक्षा ग्रहण करे जो साधु का आचार नहीं चमत्कार देखकर उसे बड़ा मानते हैं।
चमत्कार नहीं चरित्र और ज्ञान ही साधुता की कसौटी है।
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भगवन् बुद्ध एक बार आनन्द के साथ एक सघन वन में से होकर गुजर रहे थे। रास्ते में ज्ञान चर्चा भी चल रही थी।
आनन्द ने पूछा- देव! आप तो ज्ञान के भण्डार हैं। आपने जो जाना क्या आपने उसे हमें बता दिया।
बुद्ध ने उलटकर पूछा- इस जंगल में भूमि पर कितने सूखे पत्ते पड़े होंगे? फिर हम जिस वृक्ष के नीचे खड़े हैं उन पर चिपके सूखे पत्तों की संख्या कितनी होगी? इसके बाद अपने पैरों तले जो अभी पड़े हैं वे कितने हो सकते हैं?
आनन्द इन प्रश्नों का उत्तर देने की स्थिति में नहीं थे। मौन तोड़ते हुए तथागत ने स्वयं ही कहा- ज्ञान का विस्तार इतना है जितना इन वन प्रदेश में बिछे हुए सुखे पत्तों का परिवार। मैंने इतना जाना जितना ऊपर वाले वृक्ष का पतझड़। इसमें भी तुम लोगों को इतना ही बताया जा सका जितना कि अपने पैरों के नीचे कुछेक पत्तों का समूह पड़ा है।
ज्ञान की अनन्तता को समझते हुए उसे निरन्तर खोजते और जितना मिल सके उतना समेटते रहने में ही बुद्धिमत्ता है।