मनुष्य शरीर एक अच्छा खास बिजली घर

February 1983

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शरीर एक ऐसे बहुत बड़े उद्योग नगर की भाँति है जिसमें अगणित छोटी बड़ी मशीनों वाले कल कारखाने लगे हैं। यह सभी यन्त्र बिजली की शक्ति से चलते हैं। यदि उसका प्रबन्ध न हो तो सभी कलपुर्जे ठप्प हो जायं और शरीर की स्थिति निष्प्राण जैसी बन जाये।

इस विशालकाय फैक्टरी को चालू रखने में प्रायः एक लाख वोल्ट बिजली की आवश्यकता पड़ती है। इसका उत्पादन हृदय के वायलर द्वारा होता है। उत्पादन के साथ ही वह 70 खरब कोशिकाओं रूपी पुर्जों से बने कारखाने के कोने-कोने से भेज दी जाती हैं और सभी को गतिशील बनाये रहने में काम आती रहती है। आमतौर से इतनी ऊर्जा शरीर संचालन, मस्तिष्कीय चिन्तन एवं विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किये जाने वाले क्रियाकलापों में खप जाती है। कम पड़ती है तो शरीर ढीला-पोला पड़ जाता है। थका-हारा आलस्य सुस्ती से ग्रसित उदास परास्त जैसा दीख पड़ता है। यदि वह पर्याप्त मात्रा में हो तो चुस्ती-फुर्ती बनी रहती है और हँसती-हँसाती जिन्दगी कटती है। किन्तु यदि उत्पादन खपत से अधिक हो तो मनुष्य कुछ अतिरिक्त करने के लिए उमंगता रहता है। उत्साह देखते ही बनता है। नयी योजनाएँ बनाते, नये उत्तरदायित्व ओढ़ते और नये खतरे उठाते देखा जाता है। यह मानवीय विद्युत का चमत्कार है। वह पर्याप्त मात्रा में हो तो चेहरे पर आकर्षण शक्ति के रूप में फैली-फैली फिरती है। जो समीप आता है खिंचता चला आता है, प्रभावित होता और सहयोगी बनता है। यह विद्युत प्रवाह शरीर के चारों और एक तेजोवलय के रूप में छाया रहता है। उसकी तरंगों नेत्रों से उँगलियों के पोरवों से, तथा प्रजनन केन्द्रों से चुम्बकत्व की अतिरिक्त यात्रा की परिचय देती है।

पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव पर एक चुम्बकीय अन्धड़ प्रकाशवान देखा जा सकता है। इसे ‘अरोरा बेरिएलिस’ कहते हैं। काया एक पृथ्वी है उसके चेहरे को उत्तरी ध्रुव की संज्ञा दी जा सकती है। दक्षिण ध्रुव प्रजनन केन्द्र के इर्द−गिर्द बिखरा हुआ है। इन दोनों संस्थानों में तेजोवलय की मात्रा अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक पाई जाती है। प्रतिभावान लोगों में यही क्षमता उनके व्यक्तित्व को चमकाती है। अनेकों को मित्र सहयोगी बनाती है तथा हाथ में लिये हुए, कन्धों पर ओढ़े गये उत्तरदायित्वों को निभाने में पराक्रम पुरुषार्थ, साहस, संकल्प, उत्साह परिश्रम के रूप में काम करती दृष्टिगोचर होती है।

मानवी प्रयोजनों में काम आने वाली बिजली का चुम्बकीय पक्ष हृदय तथा ब्रह्मरंध्र से उत्पन्न होता है। यह चुम्बकत्व विश्वव्यापी विद्युत प्रवाह से अपने लिए आवश्यक क्षमता खींच लाता है और उपार्जन की तुलना में कई गुनी अनुदान सम्पदा का भण्डार जमा कर उसे आवश्यक प्रयोजनों में काम लाता है। पेड़ की बहुत कुछ खुराक जड़ों से प्राप्त होती है यह ठीक है, पर यह भी गलत नहीं कि पत्ते भी साँस लेते हैं और आकाश से हवा, गर्मी, नमी आदि को उसमें भी बड़ी मात्रा में खींचते रहते हैं। जितनी कि जड़ों से प्राप्त होती है। शारीरिक उत्पादन अधिक से अधिक इतना ही कर सकता है कि मनुष्य भी अन्य प्राणियों की भाँति जिन्दा रह सके और पेट प्रजनन के लिए आवश्यक क्षमता जुटाता रहे। यदि कोई बड़ी महत्वाकाँक्षा या जिम्मेदारी सिर पर लदी हो तो उसे वहन करने के लिए ब्रह्माण्डीय चेतना के विपुल भाण्डागार में आवश्यक ऊर्जा उपलब्ध करने के लिए योग साधना तपश्चर्या स्तर के विशेष प्रयोग पुरुषार्थ करने पड़ते हैं।

प्रश्नोपनिषद् में एक मन्त्र आता है- “प्राणाग्नय एवैतस्मिन्पुरे जाग्रति” अर्थात् मनुष्य काया रूप पुरी में पाँच प्रकार की प्राणाग्नियां जागती रहती हैं।

यह लोहा गलाने वाले विशालकाय कारखानों में लगी हुई प्रचण्ड अग्नि वाली ‘फरनिशों’ की तरह है, जिनमें प्राणाग्नि जलती ही नहीं वरन् बिजली को विपुल मात्रा भी उत्पन्न करती है। कहा जा चुका है कि शरीर में एक लाख वोल्ट प्रति सेन्टीमीटर का दबाव होता है। यह प्राण विद्युत झटका मारने वाली या प्राण लेने वाली नहीं है। उसकी प्रकृति दूसरे प्रकार की है फिर भी वह है बिजली ही। नियन्ता ने इस विद्युत को चक्रों, ग्रन्थियों उपत्यिकाओं, जीवकोश ऊतकों में कैद कर रखा है ताकि वह अनावश्यक रूप से बाहर निकलने और बर्बाद न होने लगे। कभी इन्सुलेशन हट जाय, या हटा लिया जाय तो ही चौक होने पर वह व्यक्तियों एवं पदार्थों को अनावश्यक रूप से प्रभावित करने लगती है।

फ्रांस की स्ट्रास वर्ग युनिवर्सिटी के प्रो फ्रेड ब्लेज का मानवी विद्युत सम्बन्धी शोध प्रबन्ध “दी वायोलाजिकल कन्डीसन्स क्रिएटेड वाय दि इलेक्ट्रिकल प्रापर्टीज आफ दि एटमाराफियर” ग्रंथ में विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। इसमें वे अपना निष्कर्ष व्यक्त करते हुए मनुष्य शरीर को चलता फिरता बिजली घर बताते हैं। साथ ही यह भी कहते हैं कि यदि इस उत्पादन को अन्य कार्यों में लगाया जा सके तो उसे भी किसी सशक्त हाइडल पावर स्टेशन की तरह बड़े टर्वाइन्स की तरह महत्वपूर्ण भौतिक प्रयोजनों में प्रयुक्त किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त भीतरी प्रयोजनों में उसे अति मानवी सामर्थ्यों को जगाकर मनुष्य को दिव्य पुरुष बनाने के लिए भी प्रयुक्त किया जा सकता है।

मनःशास्त्री विक्टर ई. क्रोमर मानवी विद्युत की चर्चा करते हुए कहते हैं यह ब्रह्माण्डीय ऊर्जा के साथ सम्बन्ध जोड़ने वाली ऐसी चाबी है जिनका सही उपयोग करने पर भौतिक जगत में भारी उथल पुथल उत्पन्न की जा सकती है और अपनी निजी क्षमता में विशिष्ट स्तर की अभिवृद्धि भारी मात्रा में की जा सकती है।

संसार में ऐसे अगणित प्रमाण उदाहरण समय-समय पर मिलते रहे हैं कि मनुष्य की विद्युत शक्ति का उभार यदि किसी विशेष दिशा में मोड़ा जा सकता तो उसका प्रभाव ऐसा प्रभाव देखने में आया कि लोग दाँतों तले उँगली दबाये रह गये। देव दानवों की चित्र विचित्र क्षमताओं का कथा पुराणों में उल्लेख मिलता है। उन वर्णनों में किंवदंती भी हो सकता है। किन्तु तथ्यतः यह सिद्धान्त सही है कि मनुष्य असाधारण है। इस असाधारण के बल पर वह वैसा कुछ कर सकता है जैसा कि किसी दैत्य के सम्बन्ध में कहा या सुना जाता है।

सौंदर्य, कला-कौशल, बल पराक्रम आदि का अपना महत्व और आकर्षण है। अस्त्र शस्त्र पद धन आदि के बलबूते भी मनुष्य बहुत कुछ करने में सफल होते हैं। किन्तु जिन क्षमताओं के बलबूते महामानव स्तर के काम बन पड़ते हैं उन्हें आत्म शक्ति के ऊपर आधारित माना जा सकता है। यह आत्म शक्ति और कुछ नहीं मानवी विद्युत का दिव्य संस्थानों के साथ जोड़ा गया सम्बन्ध अथवा किया गया आदान प्रदान ही है।

मनुष्य का मैगनेट घटता बढ़ता रहता है। घटने से उसे विस्मृति, भ्रान्ति, उदासी, थकान जैसी अनुभूति होती है। बढ़ने से प्रतिभा, स्मृति, स्फूर्ति जैसी उत्साह वर्धक विशेषताएँ उभरी हुई प्रतीत होती हैं। बड़े हुए चुम्बकत्व वाला अपने से हल्के वालों को प्रभावित करने में सफल रहता है।

जहाँ शरीर को कई प्रकार के खाद्य-पदार्थ एवं पोषण चाहिए वहाँ उसे वातावरण में संव्याप्त चुम्बकीय ऊर्जा की मात्रा भी उसी प्रकार चाहिए जैसे कि साँस के लिए हवा की जरूरत पड़ती है। इसी प्रकार मस्तिष्क को भी अपना बैटरी चार्ज करने वाला चार्जर चाहिए। अन्यथा वह डाउन होता चला जायेगा और मनुष्य अपनी प्रखरता गँवा बैठेगा।

शरीर का प्रत्येक कोशाणु एक विद्युत इकाई हे। उनके कंपन और दोलन क्रम उसी शक्ति के आधार पर संचालित होते हैं।

स्विट्जरलैंड के डाक्टर फिलिप्स आरोलस पैरा सेलसस ने अनेकों बीमारियों का कारण शारीरिक चुम्बकत्व की विकृति एवं विश्रृंखलता को सिद्ध किया है।

कुछ वर्ष पूर्व मेडिकल वर्ल्डन्यूज पत्रिका में शिकागो की ‘बायोमैगनेटिक रिसर्च फाउन्डेशन’ द्वारा किये गये शारीरिक चुम्बकत्व सम्बन्धी अनुसन्धानों का विस्तृत विवरण छपा था। हंगरी के डा. जीन बारगेथी ने विषाणुओं से निपटने और कोशाणुओं की अशक्तता को दूर करने में चुम्बक के प्रयोग से आश्चर्यजनक सफलता पाई। इस चिकित्सा पद्धति को ‘बायोमैगनेटिक्स’ के स्वतंत्र नाम से भी जाना जाता है।

डा. के. हिलाल ने मस्तिष्कीय मूढ़ता और विकार ग्रस्तता के लिए चुम्बकीय चिकित्सा को बहुत उपयोगी बताया है।

कुछ वर्ष पूर्व ‘फेट’ पत्रिका में डाक्टर के. ई. मेकलीन के निजी प्रयोगों की चर्चा करते हुए जी.सी. एफ. गुडवेज ने उल्लेख किया है कि वे प्रतिदिन 3600 गॉस शक्ति के चुम्बकीय क्षेत्र का अपने शरीर पर प्रयोग करने के कारण अपने स्वास्थ को अक्षुण्ण रखने में सफल रहे हैं। वे 64 वर्ष की आयु में भी 45 वर्ष जैसे लगते हैं।

सन् 1600 में स्काचमेन मैक्सवैल ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया था कि ब्रह्माण्डव्यापी जीवनी शक्ति का अस्तित्व मौजूद है। प्रयत्न करके उसकी न्यूनाधिक मात्रा अपने में भी भरी जा सकती है और उसे स्वयं के उत्कर्ष में मनचाहे ढंग से प्रयोग किया जा सकता है। मैक्सवैल से पहले, विद्वान गौक्लेनियस अनेक तर्कों और प्रमाणों से यह सिद्ध करता रहा था कि मनुष्य की अंतःशक्ति का प्रमुख आधार उसकी वह जीवन्त शक्ति है जिसे चुम्बकत्व के स्तर का समझा जा सकता है। वान हेलमान्ट ने मानवी चुम्बक शक्ति का शारीरिक ही नहीं मानसिक रोगियों पर सफल प्रयोग करने में अच्छी ख्याति प्राप्त की थी। उसे पीड़ितों का मसीहा या सिद्ध पुरुष कहा जाने लगा था।

फ्राँस के मनीषी ‘ला फान्टेन’ और डा. ब्रेण्ड ने हिप्नोटिज्म द्वारा रोगियों को कृत्रिम निद्रा में पहुँचा कर ऐसे कितने ही ऑपरेशन किये जिनमें रोगियों को किसी प्रकार की कष्ट अनुभूति नहीं हुयी।अमेरिका में न्यू आरलीन्स तो इन प्रयोगों का केन्द्र ही बन गया। मानवीय विद्युत की सिद्धि और उसके उपयोग की विधि को ‘इलेक्ट्रो वायोलाजीकल्स’ नाम दिया गया। सन् 1850 में अमेरिकी डा. ‘डार्लिंग’ और फ्राँसीसी डा. ‘द्रुरान्ड डे ग्रास’ ने जैव चुम्बकत्व के सफल प्रयोगों से अपने संसार भर के विज्ञान वेत्ताओं का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया।

डा. मेस्मर फ्रेडरिक का प्रतिपादन है कि मनुष्य के शरीर में चुम्बकत्व भरा पड़ा है। जो आँखों से एवं उँगलियों के पोरुओं से बाहर निकलता रहता है। इस प्रवाह से अपने निज के लिए तथा दूसरों के लिए उपयोगी लाभ उठाया जा सकता है। मोडायूज तथा काउण्ड पुलीगर ने इस संदर्भ में गहरी खोजें कीं और सिद्ध किया कि यह सामान्य समझे जाने वाली उपेक्षित मानवी विद्युत शक्ति बड़े काम की है और इसके प्रयोग से महत्वपूर्ण प्रयोजन सिद्ध हो सकते हैं।

जर्मनी के अधिनायक हिटलर का उसकी रुग्णावस्था में उपचार एक ‘क्रिस्टन’ नामक व्यक्ति करता था। उसकी उंगलियों में दर्द को भगाने की जादुई क्षमता थी, जिनके स्पर्श मात्र से वह रोगियों को चंगा कर देता था। दवादारू तो वह नाम मात्र की करता था।

उनका जन्म इस्टोनिया में सन् 1898 में हुआ था। मालिश करके रोगोपचार के कौशल को सीख कर उसने ऐसी जादुई क्षमता प्राप्त की थी। हिटलर के अन्तरंग मित्र हिमलर तक को कई बार उसने अपनी चिकित्सा से चमत्कृत कर दिया और भयंकर रुग्णता के पंजे से मुक्त किया। क्रिस्टन ने अपने प्रभाव एवं परिचय का उपयोग करके हिटलर की मृत्युपाश में जकड़े हुए लगभग एक लाख व्यक्तियों को छुटकारा दिलाया।

यूनानी चिकित्सा के आविष्कारकर्ता पैपिरस ने सिर पर हाथ फिराकर रोग चिकित्सा करने की पद्धति को शास्त्रीय रूप दिया है। बादशाह पाइरस और वैंस पैसियन को कठिन रोगों से मुक्ति ऐसे ही प्रयोगों से मिली थी। फ्राँस के सम्राटों में फ्राँसिस प्रथम से लेकर चार्ल्स दशम तक की चिकित्सा में जैव चुम्बक का प्रयोग शक्तिशाली प्रयोक्ताओं द्वारा होता रहा है।

प्रो. फोन्टान ने एक फ्रांसीसी नाविक का ऐसा ही उल्लेख किया है। वह अन्धा व्यक्ति उँगलियों से छूकर ऐसे विवरण बताता था जो साधारणतया आँखों के बिना नहीं बनाये जा सकते। कनाडा की एक अन्धी लड़की हाथ की कुहनियों के माध्यम से ऐसा ही अदृश्य दर्शन कर सकने में समर्थ थी ऐसे प्रमाण मिले हैं।

फ्राँसीसी कवि-जूल्स रोमेन्स की उन दिनों परोक्ष दृष्टि विज्ञान में बड़ी दिलचस्पी थी। उसने अपने साहित्य कार्यों के साथ-साथ इस विषय में भी शोध की थी और बताया है कि त्वचा में अगणित ‘कीट नेत्र’ विद्यमान हैं जो स्पर्श सम्वेदना के द्वारा निकटवर्ती वस्तुओं के बारे में निरन्तर जानकारी संग्रहित करते रहते हैं। आँखों की तरह ये छोटे नेत्र वस्तुओं की आकृति भले ही स्पष्ट रूप से न जान सकें पर उनकी प्रकृति के सम्बन्ध में नेत्र गोलकों से भी अधिक ज्ञान प्राप्त करते हैं।

मेरीलैण्ड (अमेरिका) के कॉलेज ऑफ फार्मेसी की सोलह वर्षीय छात्रा ‘लुई हैवर्गर’ वैज्ञानिकों के लिए अनबूझ पहेली बनी रही। उस लड़की की उँगलियों के अग्रभाग में चुम्बकीय गुण था। आधी इंच मोटी और एक फुट लम्बी लोहे की छड़ वह उँगलियों के पोरुओं से छूकर अधर में उठा लेती थी और वह छड़ बिना किसी सहारे के हवा में लटकती रहती थी। धातुओं की वस्तुएँ उसके हाथ में चिपककर रह जाती थीं पर किसी मनुष्य को जब वह छूती तो कोई झटका प्रतीत नहीं होता था।

स्टाक होम (स्वीडन) के निकट मोस्टेरीज नामक कस्बे की एक तेरह वर्षीय लड़की ल्कोरो फाइन को एक दिन ऐसी गहरी नींद आई कि वह फिर अनेक प्रयत्न करने पर खुली ही नहीं। डाक्टरों की सहायता से उसके शरीर में पतला आहार पहुँचाने और मलमूत्र विसर्जन का प्रबन्ध तो कर दिया गया पर नींद खोलने में तनिक भी सफलता न मिली। यह क्रम विशेषज्ञों के शोध का विषय बना और वे उसकी सुरक्षा तथा प्रतीक्षा में अपनी पूरी शक्ति लगाते रहे। पूरे 23 वर्ष बाद नींद खुली तब वह 39 वर्ष की थी, जागते ही उसने अपनी वे पुस्तकें माँगी जो जहाँ से पढ़ाई छोड़ी थी। शिक्षा का क्रम फिर वहीं से आरम्भ हुआ जहाँ से कि छूटा था।

आरमण्ड जैक्विस लुहरवेट नामक एक फ्रांसीसी वकील एक ऐसा अद्भुत व्यक्ति था जो लगातार 71 वर्ष तक एक क्षण भी नहीं सोया।

आरमाण्ड का जन्म सन् 1791 ई. में पेरिस में हुआ था। 21 जनवरी 1793 को जब उनकी माँ उन्हें लेकर सम्राट लुई सोलहवें का मृत्युदण्ड देखने गईं। वहाँ का वीभत्स दृश्य देखकर बच्चा ऐसा सहमा कि उसकी नींद सदा के लिए गायब हो गई।

ट्रेन्कुलाइजर्स से लेकर मालिश तक के विभिन्न उपचारों का कोई प्रभाव न पड़ा। विचित्रता यह रही कि आरमण्ड के स्वास्थ्य पर भी कोई विपरीत प्रभाव न पड़ा। 73 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु 1864 में हुई।

इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि शरीर में विद्युत तन्त्र की समर्थता विद्यमान है और वह यदा-कदा अपनी प्रखरता का परिचय भी देता रहता है। सामान्य जीवन क्रम उसी पर निर्भर है। प्रगति के विभिन्न पक्षों में प्रायः इस बिजली की ही खपत विशेष रूप से होती है। जो उसके उत्पादन की उपेक्षा करते हैं तथा अपव्यय की रोकथाम में सतर्कता नहीं बरतते वे पौष्टिक आहार लेते हुए भी दुर्बलता, रुग्णता, थकान और जराजीर्ण स्थिति की ओर तेजी से घिसटते जाते हैं।

बुढ़ापा क्यों आता है इसका उत्तर आमतौर से रक्त संचार में शिथिलता, माँस-पेशियों में दुर्बलता, अवयवों का वजन घट जाना आदि माना जाता है, पर यह दुर्बलता क्यों आती है इनका विश्लेषण नहीं किया जाता। वस्तुतः हमारी विद्युत उत्पादन और संचार प्रणाली लड़खड़ाती है और अवयवों को यथा समय पोषण मिलने का काम ढीला पड़ जाता है। इसके लिए वे उपाय ढूंढ़े जाने चाहिए थे जो शरीर को विद्युतीय व्यवस्था को समर्थ बनाये रहें। यह कार्य योग साधनों से अपेक्षाकृत अधिक अच्छी तरह हो सकता है और बुढ़ापा रोकने में हर व्यक्ति उस पर आधार पर एक बड़ी सीमा तक सफल हो सकता है।

कुछ समय पूर्व बम्बई के एक विद्वान बी.जे. रेले ने एक पुस्तक लिखी थी- दी वैदिक गार्डस एस. फिगर्स आफ बायोलॉजी। उसमें उन्होंने सिद्ध किया था कि वेदों में वर्णित आदित्य, वरुण, अग्नि, मरुत, मित्र, अश्नि, रुद्र आदि मस्तिष्क के स्थान विशेष में सन्निहित दिव्य शक्तियाँ हैं जिन्हें जागृत करके विशिष्ट क्षमता सम्पन्न बनाया जा सकता है।


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