विज्ञान और अध्यात्म में विरोध कहाँ?

February 1983

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मनुष्य की प्रवृत्तियाँ दो दिशाओं में गति करती हैं एक अंतर्मुखी और दूसरी बहिर्मुखी। जीवन निर्वाह के लिए कई एक भौतिक वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है। बहिर्मुखी प्रवृत्ति उन आवश्यकताओं को सरलता है पूरा करने का प्रयत्न करती है और किस प्रकार सरलतम ढंग से पूरी हो जायं इसके लिए प्रयत्न करती है। अन्तर्मुखी दिशा में अपनी वृत्तियों और प्रवृत्तियों का अन्वेषण, परिशोधन किया जाता है और किस प्रकार चरमलक्ष्य, अक्षय आनन्द की प्राप्ति हो सके इसके लिए यत्न किया जाता है।

जीवन निर्वाह की आवश्यकताओं को पूरा करने तथा सुख-शान्ति, सुव्यवस्था का सम्पादन करने के लिए किये गये प्रयास विज्ञान के अंतर्गत आते हैं। यों विज्ञान की परिभाषा किसी वस्तु या विषय का क्रमबद्ध, सुव्यवस्थित और तर्क व तथ्य संगत ज्ञान है। फिर भी विज्ञान का क्षेत्र अभी मुख्यतः स्थूल जगत, भौतिक संसार ही है। वह जीवन समस्याओं को सुलझाने के लिए अपने ढंग से आप करता है। अध्यात्म दूसरी दिशा से मनुष्य को सुखी और आनन्दित बनाने की व्यवस्था देता है। वह मनुष्य के स्वभाव, प्रकृति, संस्कार और अन्तश्चेतना को परिष्कृत करने पर जोर देता है तथा उसी आधार पर मनुष्य को शाँत, ज्ञानी तथा आनन्दित बनाने की कला सिखाता है। इस अन्तर्मुखी दृष्टि को अध्यात्म कहा जा सकता है और बहिर्मुखी प्रयोजनों को विज्ञान का नाम दिया जा सकता है। दीखने में अध्यात्म और विज्ञान अलग-अलग दिखाई देते हैं। उनके प्रयोग प्रयोजन भी भिन्न-भिन्न रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं। दोनों की दिशाएँ भी अलग-अलग दिखाई देती हैं। एक बहिर्जगत में अनुसंधान करता है तो दूसरा आन्तरिक उत्कर्ष को महत्व देता है।

स्थूल दृष्टि से देखने पर विज्ञान और अध्यात्म सर्वथा भिन्न तथा एक-दूसरे के विरोधी दिखाई देते हैं, लेकिन वस्तुतः ऐसा है नहीं। दोनों एक दूसरे के साथ इतने घुले मिले हैं कि एक को दूसरे से अलग कर पाना उतना ही कठिन है जितना कि रक्त के जलीय तथा शुष्क अंशों को पृथक करके उन्हें अपने मूल में बनाये रखना। दोनों की दिशाएँ भिन्न-भिन्न दिखाई देती हैं लेकिन वास्तव में दोनों एक ही दिशा में चल रहे हैं। वह दिशा है- मनुष्य को अधिकाधिक सुख-शान्ति सम्पन्न बनाना।

कहा जा चुका है कि एक बाह्य दृष्टि से मनुष्य की सुख-शान्ति के लिए प्रयत्नशील है और एक उसे आँतरिक दृष्टि से समृद्ध व सम्पन्न बनाने का उपक्रम रचता है। आँतरिक और बाह्य कार्यक्षेत्र की दृष्टि से अध्यात्म और विज्ञान में यह दो ही भिन्नताएँ हैं अन्यथा दोनों का लक्ष्य एक ही होने से वे एक ही दिशा में बढ़ने वाले दो पग हैं। अज्ञान से छूट कर ज्ञान की धूमिका में प्रवेश करने वाला दोनों का लक्ष्य है। दोनों सत्य की, परम सत्य की खोज में निरत हैं और दोनों एक साथ जन्मे, पले बढ़े और विकसित हुए दो भाई हैं।

विज्ञान और अध्यात्म कई स्तर पर एक समान कार्यपद्धति अपनाते हैं। उदाहरण के लिए दोनों ही पिछली मान्यताओं के गलत सिद्ध होने पर उन्हें अस्वीकार कर देते हैं। दोनों ही इस तथ्य से सहमत हैं कि मनुष्य निरन्तर विकसित हो रहा है। दोनों मनुष्य के कल्याण को लक्ष्य बनाकर गतिशील हैं। दोनों सत्य की खोज में निरत हैं। जब दोनों में इतनी समानता है तो उनमें विरोध कैसा?

विरोध वहाँ उत्पन्न हुआ जहाँ दोनों क्षेत्र के अधिकारी विद्वानों ने पूर्वाग्रहों को पकड़ कर दूसरे की उपेक्षा आरम्भ कर दी। यह विरोध अधकचरे अध्यात्मवादियों और विज्ञानवादियों में ही है अन्यथा विज्ञान भी उन्हीं तथ्यों की पुष्टि करता है जिनकी अध्यात्म। बल्कि कई बार तो दोनों ने एक-दूसरे का सहयोग लेकर काम चलाया। जब तक विज्ञान और अध्यात्म एक-दूसरे के सहयोगी, पूरक बन कर काम करते रहे तब तक समाज में सुख-शाँति और समृद्धि, आनन्द की स्वर्गिक परिस्थितियाँ बनी रहीं। प्राचीन काल में सभ्यता और संस्कृति के चरम शिखर पर पहुँचने का यही कारण था कि विज्ञान और अध्यात्म एक-दूसरे के पूरक बनकर काम करते रहे। अन्तश्चेतना के क्षेत्र में गूढ़ सत्यों की शोध के लिए प्रयोग, अनुभूति और पक्षपातपूर्ण आग्रह से मुक्त नीति अपनाई गई। ईश्वर सर्वव्यापी है, कण-कण में प्राणिमात्र में विद्यमान है, सृष्टि जड़-चेतन का समुच्चय है आदि मान्यताएँ ऐसी हैं, जिन्हें स्थापित और सिद्ध करने के लिए विज्ञान का सहयोग लिया गया और आधार पर मनुष्य को आदर्शवादिता की दिशा में अग्रसर किया गया।

इस प्रकार अध्यात्म ने मनुष्य की आत्मा को, उसकी चेतना को विकसित बनाकर उसे आन्तरिक उल्लास और आनन्द प्रदान करने का उपक्रम रचा। विज्ञान ने अपने प्रयास दूसरे छोर से आरम्भ किये थे। उसी छोर से वह आज भी बढ़ रहा है। वह छोर है मनुष्य को बाह्य दृष्टि से सुविधा सम्पन्न बनाना। अध्यात्म अपनी लम्बी अनुसंधान यात्रा सम्पन्न करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँच गया है कि ईश्वर एक शक्ति है और शक्ति के स्फुल्लिंग जगत में प्राणियों की चेतना के रूप में विद्यमान है। इस तत्वदर्शन को अपनाकर कोई भी व्यक्ति आँतरिक दृष्टि से सुखी व सम्पन्न बन सकता है। अध्यात्म दर्शन को जीवन क्रम में उतार कर कोई भी व्यक्ति आनन्दित और उल्लसित जीवन व्यतीत कर सकता है।

विज्ञान भी उस स्थिति में पहुँच गया है कि मनुष्य की जीवनयापन के लिए, अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बहुत अधिक मरना-खपना न पड़े। उसने इतने यन्त्र, उपकरण जुटा दिये हैं कि मनुष्य को कम से कम श्रम करना पड़े, वहीं उसने मनुष्य की दुनिया को इतना विस्तृत बना दिया है, उसका अपना आपा स्वयं तक या परिवार तक ही सीमित न रहकर मुहल्ले, गाँव, नगर प्रदेश और राष्ट्र की सीमाओं को लाँघ कर पूरे विश्व तक फैल गया है। आज यदि हजारों मील दूर किसी स्थान पर कोई दुर्घटना घटती है तो सारे विश्व को उसका तुरन्त पता लग जाता है। कहीं कोई प्राकृतिक विपदा आती है तो पूरे विश्व का मनुष्य समाज विपत्तिग्रस्त क्षेत्र के लिए चिंतित हो उठता है। चिंतित नहीं भी हो तो कम से कम सहानुभूति उमड़ती हुई अवश्य अनुभव करता है। यह मनुष्य का आपा विस्तृत होना कहा जाय अथवा दुनिया का छोटा हो जाना, बात एक ही है। अब मनुष्य संसार में घटने वाली किसी भी घटना क्रम या परिवर्तन से अप्रभावित नहीं रह सकता।

अध्यात्म की प्रेरणा भी पूरी वसुधा को एक परिवार मान कर चलने की है। “वसुधैव कुटुंबकम्” सर्व खल्विदं ब्रह्म” “आत्मैवेदं सर्व” आदि उक्तियों में अपनी चेतना और भावना को विश्वव्यापी मानकर चलने तथा उसी तरह रहने का सन्देश निहित है। बहिर्जगत में विज्ञान ने दुनिया को एक सूत्र में आबद्ध करने का आधार प्रस्तुत किया है तो अंतर्जगत में वही प्रयोजन अध्यात्म पूरा करता है।

इस प्रकार अध्यात्म और विज्ञान का लक्ष्य एक रहा, दिशा एक रही, जन्म एक साथ हुआ। विकास, परिवर्तन और निष्कर्षों की गति एक रही। इतिहास भी लगभग दोनों का एक समान ही है तो किस आधार पर कहा जा सकता है कि विज्ञान और अध्यात्म एक-दूसरे के विरोध हैं। वस्तुतः तो दोनों एक-दूसरे के पूरक, सत्य की खोज में एक ही अस्तित्व को बढ़े हुए दोनों हाथ हैं। दोनों में तात्विक दृष्टि से कोई विरोधाभास नहीं है, बल्कि अलग-अलग भाषा में दोनों एक ही बात कहते रहे हैं। अगले दिनों यह एकता मनुष्य के भविष्य को और अधिक उज्ज्वल बनायेगी, इससे कोई सन्देह नहीं है।


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