मोटी दृष्टि से यह सृष्टि अनगढ़, अव्यवस्थित और निष्प्रयोजन जान पड़ती है, पर गहराई से पर्यवेक्षण- अध्ययन करने वाले जानते हैं कि सर्वत्र सुव्यवस्था, सुगढ़ता का साम्राज्य है। अनगढ़, निष्प्रयोजन दीखने वाले घटकों की भी अपनी महत्ता उपयोगिता है। विशालकाय समुद्र को देखकर यह प्रतीत हो सकता है कि उसने बेकार में भूमण्डल का एक बड़ा भाग घेर रखा है। पर इकॉलाजी शास्त्र के विशेषज्ञ जानते हैं कि समुद्र का अस्तित्व न होता तो समय पर वर्षा, मौसम आदि की प्रकृति सुविधाएँ नहीं उपलब्ध होती। इस विराट सृष्टि में जो कुछ भी है, उपयोगी है। उन घटकों में एक अद्भुत तारतम्य, एवं सामंजस्य देखने को मिलता है। ऐसा लगता है, जिसने भी सृष्टि बनायी, बड़ी सोच-समझकर बनायी होगी।
गढ़ने एवं परस्पर एक दूसरे से तारतम्य स्थापित करने वाले सृष्टा कलाकार की कलाकृति एवं व्यवस्था बुद्धि को देखकर हैरत में पड़ जाना पड़ता है। गर्भ काल में जीवन को परिपोषित करने वाली एक तरह की परिस्थितियाँ उपलब्ध थीं। जन्म होने पर समूची सत्ता ही बदली हुई थी, पर तद्नुरूप दूसरे तरह की अनुकूल परिस्थितियां पहले से ही मौजूद थी। शरीर को विभिन्न प्रकार की इंद्रियां मिली, तो उनकी उपयोगिता को सार्थक करने वाले अनेकों विषयों का भी अस्तित्व विद्यमान था। शरीर को दो छोटी आंखें मिलीं, तो उन आंखों को सार्थकता प्रदान करने वाला लाखों मील दूर प्रचण्ड सूर्य था, उससे भी दूर टिमटिमाते हुए नन्हे-नन्हें तारे थे। उनसे निस्सृत प्रकाश को हमारी आंखों ने देखा। प्रकाश का अस्तित्व न होता तो ये आंखें बेकार थी। एकाकी वे देख पाने में कुछ भी समर्थ न हो पातीं। दांये बांये कानों को सुनने के लिए ध्वनि की सत्ता मौजूद थी। तभी तो कर्णेंद्रियां उसे सुनने में समर्थ हो सकीं। ऐसा लगता है कि जिसने इन कानों की रचना की, मानो उसी ने ध्वनि उत्पादक स्रोतों में ध्वनि आविर्भाव की क्षमता भी प्रदान की। जिसने स्वादानुभूति के लिए जिह्वा दी उसी ने फलों, शाकों एवं खाद्यान्नों में रस उत्पन्न किया। यही स्थिति घ्राणेंद्रियों की है। इसकी सार्थकता के लिए ही पुष्पों एवं वनस्पतियों की सुगन्ध सम्भवत अभिव्यक्त हुई। इस विलक्षण तादात्म्य को देखकर यह भान होता है कि गर्भावस्था की घोर अन्धकार तमिस्रा में बैठा जो इंद्रियों की रचना कर रहा था, वह अवश्य ही कुशल तत्वदर्शी सृष्टि का दृष्टा रहा होगा, जिसे बाह्याभ्यन्तर जगत का परिपूर्ण ज्ञान था। जिसे इंद्रियों को मात्र गढ़ना ही अभीष्ट नहीं था, वरन् उनका सुनिश्चित प्रयोजन भी उसके समक्ष स्पष्ट था।
सुनिश्चित प्रयोजन और सुव्यवस्था का प्रमाण भूमण्डल पर उपलब्ध परिस्थितियां भी देती हैं। उन्हें देखकर लगता है कि किसी सर्वज्ञ द्वारा ही जीवन को परिपोषित करने के लिए हर तरह की अनुकूलताओं का सृजन किया गया है। भौतिकीविदों के वह प्रतिपादन तर्क पूर्ण नहीं लगते कि पृथ्वी सृष्टि की आदि में जलता हुआ एक आग का गोला था जो कालान्तर में अनेकानेक परिवर्तनों से गुजरने के बाद अपने आप इस योग्य बन गया कि जीवधारी जीवनयापन कर सकें। जीवन धारण करने योग्य बनने के लिए पृथ्वी ने जितने रूप बदले हैं वे इतने अधिक एवं सुव्यवस्थित हैं कि उन्हें आकस्मिक नहीं माना जा सकता। एक निश्चित गति एवं कक्षा में पृथ्वी सतत् परिभ्रमणशील है। पृथ्वी सतत् अपनी धुरी पर घूमती रहती है, जिससे एक दिन और रात बनते हैं। सूर्य के चारों ओर पृथ्वी का घूमना एक दूसरे प्रकार की गति है। गैलीलियो तथा ग्रूनों ने इन्हीं दो गतियों की खोज की थी पर भारत के प्रख्यात ज्योतिर्विद् आर्यभट्ट ने सदियों पूर्व इन दोनों ही तरह की गतियों का वर्णन ‘आर्य गौः पृश्निर कमीदसदन्मातरं पुरः’ मन्त्र में किया है। इन दोनों गतियों के कारण ही पृथ्वी के परिभ्रमण में स्थिरता आती है। वह अपने ध्रुवीय अक्षों पर घूमते हुए 23 अंश पर झुकी हुई है। ऋतुओं में नियमितता का कारण यह झुकाव ही है उल्लेखनीय है कि यदि झुकाव एवं गति विशेषताएं न होतीं तो पृथ्वी पर विविध प्रकार की वृक्ष वनस्पतियों का अस्तित्व भी न होता। पृथ्वी की स्थिरता जड़ता को जन्म देती और वह ‘सत्य श्यामला’ नहीं दिखायी पड़ती। ध्रुवीय अक्ष पर पृथ्वी के झुकाव में पड़ने वाले थोड़े अन्तर से भी गम्भीर संकट उत्पन्न हो सकते हैं।
जीवन धारण करने योग्य परिस्थितियों के निर्माण में भूमण्डल के वातावरण की सहायक गैस परतों का विशेष योगदान है। खगोल विज्ञानियों के अनुसार प्रतिदिन लगभग दो करोड़ उल्काएँ तीस मील प्रति सेकेंड की गति से गिरती हैं। इनकी गति एवं प्रचंड ऊर्जा पृथ्वी को तहस-नहस करने के लिए पर्याप्त है। इनके अतिरिक्त सूर्य आदि पिंडों से पोषक जीवन तत्वों के साथ-साथ घातक किरणें भी आती हैं। सोलह सौ कि. मी. की मोटी गैस परतें उन हानिकारक प्रभावों से पृथ्वी की रक्षा करती हैं। टोपोस्फीयर, स्ट्रैटोस्फीयर, मीजोस्फीयर, थर्मोस्फीयर, आयनोस्फीयर जैसी विभिन्न परतें रक्षा कवच की भूमिका निभाती हैं। सूर्य की प्रचण्ड गर्मी का उपयोगी अंश पृथ्वी के जीवधारियों के लिए इन परतों से छनकर आता है। साथ ही समुद्र की विशाल जलराशि को वाष्पीकृत करने में भी इन परतों की महत्वपूर्ण भूमिका है। वायुमण्डल के साथ मिलकर महासागर भी प्रकृति के सन्तुलन चक्र में सहयोग देते हैं।
मूलतः जलवायु और प्रकाश पर सभी जीवधारियों का अस्तित्व टिका हुआ है। वृक्ष, वनस्पतियां जो प्राणियों की आहार हैं, भी इन्हीं तीनों के सहयोग से उगती, बढ़ती, फूलती और फलती हैं। ये तीनों ही जीवनदायी तत्व पृथ्वी पर प्रचुर परिमाण में मौजूद हैं। न केवल मौजूद हैं वरन् उनका एक सुनिश्चित चक्र एवं सन्तुलन है जिसके डगमगाते ही भारी संकट उत्पन्न हो सकता है। अन्यान्य ग्रहों पर ऐसी अनुकूल परिस्थितियाँ नहीं हैं कि जीवधारी वहाँ जीवित रह सकें। लम्बी खोज-बीन के वाद भी ऐसा कोई प्रमाण अब तक नहीं मिल सका है कि जीवन का अस्तित्व अन्य ग्रहों पर भी है। ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करके अन्यान्य ग्रहों पर बसने की योजनाएँ तो बन रही हैं, पर वे व्यावहारिक कम काल्पनिक अधिक हैं।
न केवल जीवित रहने बल्कि प्रगति की दिशा में अनवरत बढ़ते रहने के लिए भी किसी दूरदर्शी सत्ता ने समस्त संसाधन प्रदान किये हैं। वन सम्पदा, खनिज सम्पदा, पेट्रोलियम आदि का सभ्यता के विकास में विशेष सहयोग है। वे मनुष्य को हाथ नहीं लगी होतीं तो उसकी बुद्धि की प्रखरता एक किनारे रखी रह जाती और आज भी वह आदिम युग की भाति पत्थरों से खेलता होता पर धन्यवाद उस सृष्टा को- उस कलाकार को जिसने कि भूमण्डल की अनुकूलताएं देकर अपनी महानता का परिचय दिया। पृथ्वी पर भी यदि चन्द्रमा, सूर्य अथवा मंगल जैसी दुरूह परिस्थितियाँ होतीं तो जीवन का अस्तित्व कभी का समाप्त हो गया होता और सर्वत्र श्मशान जैसी नीरवता का साम्राज्य होता।
पृथ्वी की आकृति एवं प्रकृति को देखने से भी लगता है कि उसे सोच समझकर इस योग्य बनाया गया है कि जीवधारी निवास कर सकें। यदि पृथ्वी का आकार अब की तुलना में छोटा, चंद्रमा जितना होता तो उसका व्यास भी एक चौथाई होता। प्राप्त निष्कर्षों के अनुसार पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से चन्द्रमा की गुरुत्व शक्ति छह गुनी कम है। पृथ्वी का आकार चन्द्रमा जितना हो जाने पर उसकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति भी अत्यन्त कम हो जाती। उल्लेखनीय है कि धरती के वायुमण्डल, जल एवं खनिज सम्पदा को सम्भालने, सुरक्षित रखने में गुरुत्व बल का विशेष सहयोग है। उसमें कमी होते ही अनेकों प्रकार के असन्तुलनों का सामना करना पड़ता है। वायु मण्डल की रक्षा परतों में व्यतिरेक से ताप की मात्रा इतनी अधिक हो जाती कि जीवित रहना कठिन पड़ता। यदि पृथ्वी का व्यास वर्तमान व्यास से दुगुना होता तो भी अनेकों प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न होतीं। व्यास दूना होने से धरातल चौगुना हो जाता तथा पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति भी दुगुनी हो जाती। परिणाम स्वरूप 16 सौ कि.मी. की ऊंचाई तक फैला वायु मण्डल खतरनाक रूप से सिकुड़कर कम हो जाता। वायु मण्डलीय गैसों का दबाव भी 15 से 20 पौण्ड प्रति वर्ग इंच तक बढ़ जाता, जिसका दुष्प्रभाव जीवन पर भी पड़ता। उतरी एवं दक्षिणी ध्रुव जैसी भीषण ठण्ड अधिकांश क्षेत्रों में पड़ती। फलतः जीना दूभर हो जाता।
उपरोक्त वैज्ञानिक तथ्यों पर विस्तृत प्रकाश डालने वाले मानिटोवा (कनाडा) विश्व विद्यालय के जीव भौतिकीविद् फ्रेंक एलेन ‘दी एवीडेन्स ऑफ गाड इन एक्सपेंडिग यूनीवर्स पुस्तक में लिखते हैं कि- “यह पृथ्वी किसी समर्थ सत्ता द्वारा बड़ी सोच समझकर सत्प्रयोजन के लिए बनायी गयी है ताकि जीवों एवं पादपों का निर्वाह होता चले। यदि हमारी पृथ्वी का आकार सूरज जितना बड़ा होता तथा उसकी क्षमता यथावत् कायम रहती तो उसकी गुरुता 150 गुनी बढ़ जाती। फलस्वरूप वायुमंडल की ऊँचाई घटकर मात्र चार मील रह जाती। यदि ऐसा हो तो यह एक ऐसी स्थिति होगी जिसमें पानी का भाप बनकर उड़ना बन्द हो जायेगा। तब एक पौंड के प्राणी का वजन बढ़कर 150 पौण्ड हो जायगा तथा मनुष्य, हाथी, शेर आदि का आकार घटकर अत्यन्त कम हो जायेगा।” फ्रेंक एलेन का मत है कि गिलहरी जैसी इस छोटी आकृति वाले मनुष्य में बौद्धिक क्षमता भी प्रायः समाप्त हो जाती। पर सचमुच ही वह सत्ता अत्यन्त महान है जिसने उन प्रतिकूलताओं से धरती को बचाये रखा तथा अनुकूलताओं को जन्म देकर समस्त जीवों को विकसित होने का अवसर प्रदान किया।”
आकार का ही नहीं पृथ्वी की अन्य ग्रहों की दूरी से भी धरती पर अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण में घना तारतम्य एवं सम्बन्ध है। सूर्य को ही लें। उसकी दूरी पृथ्वी से इस समय जितनी है उससे यदि बढ़कर दूनी हो जाय तो सूर्य से मिलने वाला ताप घटकर चौथाई हो जायेगा। सदियों के मौसम की अवधि दुगुनी हो जायेगी। यह स्थिति हिमयुग को आमंत्रित करेगी। इसके विपरीत यदि सूर्य से पृथ्वी की दूरी वर्तमान दूरी से घटकर आधी हो जाय तो सूर्य से मिलने वाली गर्मी चार गुनी बढ़ जायेगी। फलतः ऋतुओं की लंबाई आधी रह जायेगी। धरती इतनी अधिक गरम हो जायेगी कि प्राणी वृक्ष पादप सभी जलकर खाक बन जायेंगे। इस समय पृथ्वी का जो आकार है, सूर्य से जितनी दूरी है, अयन में घूमने का उसका जो वर्तमान वेग है, वे सभी जीवन धारण करने के अनुकूल है। मनुष्य जाति अनेकानेक सुख-सुविधाओं का उपभोग करती हुई आमोद-प्रमोद कर रही है वह उन अनुकूलताओं का ही परिणाम है।
जड़ परमाणुओं के संघात से सृष्टि के अकस्मात बनने जैसे निराधार तथ्यों का प्रतिपादन करने वाले तथाकथित अल्प बुद्धि संपन्नों के लिए सदियों पूर्व प्रसिद्ध दार्शनिक फ्रासिस बेकन ने कहा था कि “थोड़ी वैज्ञानिक बुद्धि तथा दार्शनिकता आदमी को नास्तिकता की ओर ले जाती है पर गम्भीर शोध बुद्धि एवं दार्शनिकता मनुष्य को आस्तिकता की ओर ले जाती है। अतएव सृष्टि के नियामक सत्ता के संदर्भ में इन्कार करने के पूर्व गम्भीरता से विचार करना चाहिए।”
सचमुच ही वह अन्वेषक दृष्टि विकसित हो जाय तथा गहराई से मनुष्य खोज-बीन करे तो अपने ही चारों ओर उसे समर्थ अदृश्य सत्ता के अनेकों प्रमाण मिल जायेंगे। तब वह चाहे वैज्ञानिक ही क्यों न हो, रसायन शास्त्री ‘थामस डेविड पार्क्स’ की भांति अपनी भाषा में कह उठेगा “मेरे चारों जितना भी यह दृश्य जगत है, मैं उसमें नियम और प्रयोजन देखता हूं। मुझे वह मान्यता निराधार जान पड़ती है कि सभी पदार्थ एवं पदार्थों से युक्त यह सृष्टि अकस्मात- मात्र परमाणुओं के संघात से बनी है। मैं तो सर्वत्र कण-कण में बुद्धि व्यवस्था का साम्राज्य देखता हूं। एक ऐसी बुद्धि जो सुपर है, अचिन्त्य, अगोचर है। उस महती बुद्धि को ही मैं “परमात्मा कहता हूँ।”
डेविड पार्क्स के अनुसार “एक रसायनविद् के लिए तत्वों की नियत कालिक व्यवस्था सबसे महत्वपूर्ण एवं आकर्षण अध्ययन का विषय होना चाहिए न कि मात्र तत्वों के गुण-दोषों का अध्ययन- विश्लेषण। कारण कि समाहित नियमबद्धता किसी निर्माणकर्ता ‘सर्व समर्थ’ का प्रमाण स्वयं दे देगी।” पानी का उन्होंने एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है। फार्मूला के अनुसार पानी का परमाणु भार 28 होता है। रसायन शास्त्र के सिद्धांतानुसार सामान्य तापमान एवं दबाव पर इसे गैसीय अवस्था में होना चाहिए। कारण कि तत्वों की कालक्रम तालिका से यही निष्कर्ष निकलता है। अमोनिया का परमाणु भार 27 तथा वह ऋण 33 सेन्टीग्रेड जितने कम तापक्रम पर भी वायु मण्डल के दबाव में गैस है। कालक्रम तालिका में तत्वों की स्थिति के हिसाब से हाइड्रोजन सल्फाइड का पानी से घनिष्ठ सम्बन्ध है। उसका परमाणु भार 34 तथा ऋण 59 सेन्टीग्रेड पर भी वह गैस ही है किंतु आश्चर्य यह कि सामान्य तापमान पर भी वह सर्वथा द्रव्य अवस्था में रहता है यह एक ऐसी विलक्षण स्थिति है जो हर विचारशील को सोचने पर बाध्य करती है। पर कोई कारण समझ में नहीं आता है, सिवाय इसके कि पानी की उपयोगिता पृथ्वी पर सर्वाधिक है। वृक्ष-वनस्पतियों तथा प्राणियों सभी के लिए वह अत्यन्त उपयोगी है। सम्भव है उसे अन्य पदार्थों से अलग विशिष्ट स्थिति सृजनकर्ता ने इसीलिए प्रदान की है।
थोड़ी और गहराई में चलें तो पानी के इस विशिष्ट गुण की महत्ता और भी स्पष्ट होती है। भूमण्डल का तीन चौथाई हिस्सा पानी से ढका है। ऋतु चक्र एवं तापमान के सन्तुलन में इस विपुल जल सम्पदा का विशेष सहयोग है। तत्वों की क्रम तालिका के अन्य तत्वों से अलग हटकर पानी की अपनी अलग विशेषताएँ न हों तो वायुमंडलीय तापमान एवं प्रकृति सन्तुलन चक्र में भारी व्यतिरेक उत्पन्न हो सकता है। पानी को पिघलने के लिए अधिक गर्मी चाहिए। चिरकाल तक वह द्रवावस्था में बना रहता है। भाप के रूप में परिवर्तित होकर उड़ने के लिए उसे भी अधिक 200 अंश सें.ग्रे. तापक्रम चाहिए। तापक्रम के सामान्य परिवर्तनों में पानी अपनी अवस्था नहीं बदलता। यह उसकी महत्वपूर्ण विशेषता है। थोड़े तापक्रम पर यदि भाप बनकर उड़ने लगे अथवा ताप की थोड़ी कमी होने पर बर्फ के रूप में जमने लगे तो गम्भीर संकट पैदा होने लगेंगे। सर्वत्र पानी का अभाव पड़ जायेगा। ऐसी स्थिति में जीवन संकट में पड़ जायेगा। यदि पानी के अन्दर तापमान रोधक विशिष्ट क्षमता न होती तो पृथ्वी जीवन के लिए उतनी अनुकूल न होती।
यह भी एक विलक्षण बात है कि जितने भी ज्ञात पदार्थ हैं उनमें एक मात्र पानी ही ऐसा द्रव है जो जमने पर हल्का हो जाता है। अन्यान्य द्रवों की स्थिति इसके विपरित है। यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि जमने के बाद नदियों अथवा झीलों में डूब जाने के बजाय वह ऊपर सतह पर तैरती है और कठोर पिण्ड के रूप में बदल जाती है। पानी के सबसे ऊपरी सतह पर यह इन्सुलेशन की एक ऐसी सतह बना लेती है जिसके कारण नीचे का पानी जमने नहीं पाता, उसका तापक्रम जमाव बिन्दु से ऊपर बना रहता है। जलचर जीव तथा जलीय वनस्पतियाँ इसी कारण सुरक्षित जीवित बने रहते हैं।
पानी ही नहीं सृष्टि के ऐसे अनेकों घटक हैं जो मस्तिष्क को हतप्रभ करते हैं। उनकी रचना अध्ययन विश्लेषण तो भौतिक विज्ञान द्वारा किया जा सकता है। पर इसका कोई उत्तर नहीं मिलता कि उनमें वे आवश्यक विशेषताएँ क्योंकर उत्पन्न हुईं। विशेषकर भू-मण्डल के लिए ही क्यों? उत्तर एवं समाधान के लिए डेविड थामस जैसे अनेकों मूर्धन्य वैज्ञानिकों की भाँति सोचना होगा कि “यह समूची सृष्टि किसी सर्वोच्च बुद्धिमान कुशल कलाकार की अद्भुत कलाकृति है जो किसी प्रयोजन हेतु बनायी गयी है। वह परम सत्ता अभिनन्दनीय वरणीय एवं श्रद्धा करने योग्य है। उससे सम्बन्ध जोड़कर सहयोग प्राप्त कर मनुष्य अपनी सत्ता को भी समीम से असीम, लघु से महान बना सकने का सौभाग्य प्राप्त कर सकता है।”