महानता भीतर से उभरती है, ऊपर से नहीं टपकती

February 1983

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आदिकाल से मानवी व्यक्तित्व दार्शनिकों, मनोवैज्ञानिकों के लिए चिन्तन का विषय रहा है। पूर्वार्त्त मनोविज्ञान इसकी संरचना, विकास के स्वरूप एवं लक्ष्य प्राप्ति की संभावनाओं पर पाश्चात्य चिन्तकों से अलग विचार प्रकट करता रहा है। जहाँ पाश्चात्य विद्वानों ने व्यक्तित्व की प्रौढ़ता-परिपक्वता पर नहीं के बराबर विचार व्यक्त किये हैं, वहाँ भारतीय विद्वान व्यक्तित्व को ब्रह्म का ही एक अंश मानकर उसके विकास की असीम संभावनाएँ बताते हैं। प्रवृत्तियों पर ही केन्द्रित पाश्चात्य मनोविज्ञान के अध्येताओं में से कुछ विद्वान ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने इस विषय पर ढर्रे से अलग चिन्तन किया है। ऐसे विद्वानों में आलपोर्ट, मेस्लोव, एडलर, जुग, काण्ड एवं ग्रीन का नाम लिया जा सकता है।

श्री.जी. डब्ल्यू आलपोर्ट परिपक्व व्यक्तित्व की तीन स्थितियाँ बताते हैं। आत्मविस्तार के लिये सतत् क्रियाशील बने रहना, आत्म केन्द्रित रहकर ही लक्ष्य प्राप्ति का प्रयास करना, जीवन आदर्शों से परिचित बने रहकर प्रतिक्षण उनका ध्यान बनाये रखना।

अपनी पुस्तक ‘पर्सनालिटी’ में वे लिखते हैं कि परिपक्व एवं प्रौढ़ व्यक्तित्व का धनी व्यक्ति अहं केन्द्रित, स्वार्थी नहीं होता। वह परमार्थ के कार्यों में, सब के कल्याण के कार्यों में समान रूप से रस लेता है। दूसरों के कार्यों में अभिरुचि का होना व्यक्ति के लिये उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि स्वयं के कार्यों में। महानता ही प्रौढ़ता का पर्यायवाची मानी जा सकती है। यह क्रमिक रूप से उभरने, विकसित होने लगती है, ज्यों-ज्यों व्यक्ति का आपा विस्तृत होता चला जाता है।

आत्म केन्द्रित स्थिति से विद्वान लेख का तात्पर्य है बाह्य परिस्थितियों से अप्रभावित बने रहकर आत्मचिन्तन में रस लेना, अपने आपको- अपने लक्ष्य को अधिक अच्छी तरह जानने का प्रयास करना। ऐसी स्थिति में व्यक्ति परमार्थरत रहते हुए भी लोक प्रवाह में नहीं बहता। सदैव स्वयं को व अन्यों को गिराने वाले परामर्शों से बचाता एवं लक्ष्य का बोध कराता रहता है। अन्तिम है जीवन आदर्शों का सदैव ध्यान रख अपने आपको कभी दिग्भ्रान्त न होने देना। प्रौढ़ व्यक्ति की सारी चेष्टाएँ एवं चिन्तन आदर्शों से ही अभिप्रेरित एवं संचालित होती हैं।

प्रसिद्ध नीतिशास्त्री ग्रीन महोदय ने मनुष्य की नैतिक प्रगति को दो प्रमुख लक्षण बतलाये हैं- सामंजस्य एवं व्यापकता। इनको जीवन क्रम में समाविष्ट कर मनुष्य अधिकाधिक महान बनता जाता है। वे कहते हैं- “महानता के लक्ष्य को प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्ति के जीवन में विभिन्न क्रियाओं में सामंजस्य रहना अनिवार्य है। उसके स्वयं के सिद्धान्तों एवं आचरण के मध्य विरोध नहीं होना चाहिए। कथनी-करनी में एकरूपता हो। ऐसा तो हो सकता है कि परस्पर विरोधी दीखने वाले नियम मन के विकास के स्तर हों, तब उन्हें विरोधी नहीं कहा जा सकता।” व्यापकता, नैतिकता का शाश्वत सिद्धान्त है। मनुष्य के आचरण का उद्देश्य जितना व्यापक होता है उतने ही अंशों में वह महान् होता है। वैयक्तिक लाभ की अपेक्षा पारिवारिक हित ही अधिक श्रेष्ठ है। परिवार की अपेक्षा गाँव, गाँव की अपेक्षा जिला, प्रदेश राष्ट्र एवं समस्त मानव समाज के कल्याण का लक्ष्य अधिक महत्वपूर्ण है। जिस व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य सम्पूर्ण मानव-समाज का हित साधन करना है, नैतिक दृष्टि से वह संसार का सबसे महान व्यक्ति है। संकीर्ण मनुष्य में न तो सामंजस्य ही होता है और न ही व्यापकता। वह नैतिकता की दृष्टि से हेय समझा जाता है।

नैतिकता जीवन का लक्ष्य वैयक्तिक सुखों से ऊपर सामाजिक हितों के कार्यों में भाग लेना है। ऐसा करने से व्यक्ति अपने को एक महान संज्ञा का अंग अनुभव करने लगता है। यह अनुभूति ही उसे महानता के पथ पर बढ़ने के लिए प्रेरणा देती रहती है और व्यक्ति सामाजिक एवं आध्यात्मिक इच्छाओं की तृप्ति में आनन्दित होता है। धीरे-धीरे वह ‘स्व’ की पूर्णता की अनुभूति करने लगता है। मानव के नैतिक आदर्श का विकास अनायास नहीं हो जाता। यह धीरे-धीरे होता है बीज से वृक्ष बनने की तरह यह लम्बे समय तक चलने वाली प्रक्रिया है। साँसारिक जीवन में कोई व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि उसने अन्तिम नैतिक आदर्श की उपलब्धि कर ली। एक स्तर पर पहुँचने पर उसे अगले स्तर पर चलने की अन्तःप्रेरणा मिलती है। इसी प्रकार उसके कर्तव्य एवं आदर्श भी उसके विकास के अनुसार परिवर्तित होते रहते हैं।

कार्ल युग ने मानवी विकास की वास्तविकता और उत्कृष्टता को व्यक्ति की अन्तर्मुखी चेतना के साथ जोड़ा है। वे कहते हैं- “बहिर्मुखी चिन्तन अविकसित व्यक्तित्व का परिचायक है। छोटे प्राणिमात्र परिस्थितिजन्य संवेदनाओं से ही प्रभावित होते हैं और उन्हीं के साथ तालमेल बिठाने, बदलने या बढ़ाने में लगे रहते हैं। उन्हें आत्म चिन्तन की न तो आवश्यकता अनुभव होती है और न ही उस क्षेत्र में प्रवेश करने का अनुभव अभ्यास। अतएव उनके लिए यह समझना कठिन पड़ता है कि अपना चिन्तन, स्वभाव, दिशा निर्धारण या कार्य प्रयास भी कठिनाइयों का कारण, अनुकूलता में अवरोध बन सकता है। आत्म समीक्षा कर सकने के क्षेत्र में जो भी पिछड़े होंगे, वे मात्र परिस्थितियों से उलझे रहेंगे। अपने प्रवाह में हरे फेर करने की बात वे विवेक पूर्वक नहीं सोच सकेंगे। ऐसी दशा में उनकी सफलता उसी सीमा तक की होगी जितनी कि अनुकूलता शक्य हो सके।”

प्रगतिशीलों की विशेषता रही है कि वे मनःस्थिति के महत्व को भी स्वीकार करते हैं और परिस्थितियों के लिए उसे भी एक बड़ी सीमा तक निमित्त कारण स्वीकार करते हैं। ऐसे लोग अपने को सुधारने या समर्थ बनाने पर भी उतना ही ध्यान देते हैं जितना कि परिस्थितियों का उलझने में। आत्म समीक्षा, आत्म निर्माण, आत्म विश्वास और आन्तरिक उल्लास ही वे विभूतियाँ हैं, जो मनुष्य को सच्चे अर्थों में प्रगतिशील बनाती और अभीष्ट सफलता के मार्ग पर द्रुत गति से अग्रसर करती है। जबकि बहिर्मुखी व्यक्ति परिस्थितियों के झकोरों में तिनके की तरह इधर-उधर अनिश्चित दिशा में भटकते रहते हैं।

नितिशास्त्री एच.ए. मरे ने ‘एक्सप्लोरेशन इन पर्सनालटी’ में लिखा है- व्यक्तित्व के विकास के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति अपने रुझान को अपने से हटाकर दूसरों की ओर ले जाय। कारण कि समाज में सभी व्यक्ति एक दूसरे से जुड़े हैं और सामाजिक समस्याएँ वास्तव में व्यक्ति की समस्याएँ हैं। इसी को परोपकार या पर सेवा, दूसरों के प्रति सहानुभूति आदि नामों से कहा गया है। सामाजिक अभिरुचि जागृत होते ही व्यक्ति की बुद्धि भी विकसित होने लगती है।”

बुद्धिमत्ता एक बात है और विवेकशीलता या दूरदर्शिता दूसरी। बुद्धि के निर्णय स्वार्थ परक होते हैं। इसे यह देखना होता है कि अपनी भौतिक आवश्यकताओं एवं इच्छाओं की पूर्ति होती है या नहीं। यदि होती हो तो ही उसे अपनाया जाय। बुद्धिमत्ता का दूसरा चरण यह है कि अनुकूलता प्राप्त करने के लिए जल्दी किस तरह हो सकती है और परिमाण में उसे किस प्रकार अधिक मात्रा में हस्तगत किया जाता है। यह दोनों ही आधार ऐसे हैं जो नीति निष्ठा की परवाह नहीं करते, गुंजाइश दीखते ही उसे उखाड़ फेंकने में भी संकोच नहीं करते। दूसरों को इस निर्णय या प्रयास से क्या लाभ-हानि पहुँचती है- उस ओर से भी वहीं आंखें बंद किये रहती है। बुद्धिमता प्रत्येक प्राणी में पाई जाती है। आहार खोजने, ऋतु प्रभाव के अनुकूल सुविधा ढूंढ़ने, आत्म रक्षा के उपाय खोजने, प्रजनन का ताना बाना बुनने में वे सभी प्रवीण होते हैं। इन कार्यों में परिस्थिति की विषमता से टकराने में उनकी छोटी सी चेतना कितना बड़ा काम करती है यह देखते ही बनता है। हिंस्र पशु तो जीवधारियों को शिकार बनाने में उनकी बुद्धि से भी जूझते हैं जबकि शाकाहारियों को सीधी साधी वनस्पतिओं से ही पाला पड़ता है। यही कारण है कि माँसाहारी, शाकाहारियों की तुलना में अधिक चतुर और दक्ष होते हैं। बुद्धि वैभव का यही चमत्कार है जो मनुष्यों में उनकी स्थिति के अनुरूप और भी अधिक पाया जाता है। संक्षेप में बुद्धिमत्ता को स्वार्थ साधन की सहधर्मिणी कह सकते हैं।

बुद्धिमत्ता मात्र शरीर सुविधा के लिए अपनी तीक्ष्णता द्वारा अधिक सुविधा साधन इकट्ठे कर सकती है। उसके द्वारा उपार्जित सभी उपलब्धियाँ उसी स्तर की हो सकती हैं। इस प्रकार बुद्धिमान व्यक्ति अधिक बलवान वैभववान् भर हो सकता है। इतने पर भी उसे असामान्य स्तर की प्रगति के लिए सामान्य नीति मर्यादा को उल्लंघन करके अपनी तीव्रता को ऐसी बनाना पड़ेगा जिसे पराक्रम स्तर की- चमत्कारी असाधारण कहा जा सके। इस प्रयास में उसे नीति मर्यादाओं की उतनी ही अधिक उपेक्षा अवज्ञा भी करनी पड़ेगी।

इतने भर से कोई व्यक्ति श्रेष्ठता अपनाकर श्रद्धास्पद नहीं बन सकेगा और सर्वजनीन हित साधन के लिए महत्वपूर्ण कर सकने की न तो मनःस्थिति में ही रहेगा न परिस्थिति ही हाथ लगेगी। ऐसी दशा में उन सद्गुणों और सद्भावों को व्यवहार में उतारने का कभी अभ्यास ही नहीं मिलेगा जो विवेकशीलता को जानकारी मात्र न रहने देकर व्यक्तित्व का अविच्छिन्न अंग बनाते हैं। सदाशयता ऐसी ही स्थिति का नाम है जो सद्भावों के सद्व्यवहारों में परिणत होने के कारण ही विकसित एवं परिपुष्ट होती है। कहना न होगा कि विवेकशील दूरदर्शिता ही वह उच्चस्तरीय भावशक्ति है जो दूसरों पर असाधारण छाप छोड़ती और अपनी निजी सत्प्रवृत्तियों को उभारने में सफल होती है। इतनी सफल जिसे गरिमाशील व्यक्तित्व की अधिष्ठात्री भी कहा जा सके।

अब्राह्म मॉस्लोव ने मानव समाज को दो भागों में विभक्त किया है। वे निर्वाह चक्र में परिभ्रमण करने वाले मनुष्य शरीर धारियों को ‘नीडडिपेण्डेन्ट’ वर्ग में गिनते हैं और आदर्शवादिता के पक्षधर लोगों की गणना ‘सेल्फ एक्चुअलाइजेशन’ श्रेणी में करते हैं। दोनों की विभाजन रेखा जो उनने बनाई है वह इस प्रकार है। “जो सुविधा साधनों के उपार्जन में संलग्न रहने और उन्हीं के उपयोग संचय में मोद मनाते हैं। व्यथायें भी जिन्हें वही सताती हैं, जिन्हें शरीर पीड़ा, धन हानि या अपमान के रूप में जाना और कष्टकर माना जाता है। उन्हें निर्वाह चेतना वाले ‘नीड डिपेण्डेन्ट’ स्तर का कहा जायेगा।

आदर्शवादी अथवा ‘सेल्फ एक्चुअलाइजेशन’ वर्ग के वे हैं जिनकी आकाँक्षाएँ एवं प्रवृत्तियाँ महानता के उच्चस्तरीय निर्धारणों के साथ जुड़ी होती हैं। ऐसे लोग पूर्वाग्रहों की परवाह न करके सत्य और तथ्य को खोजते तथा उसी निष्कर्ष को अपनाते हैं। वे सफलता को आदर्शवादिता की दृढ़ता के रूप में देखते हैं न कि लाभ-हानि का बही-खाता देख कर।

वे सादगी अपनाते, विनम्र रहते और सज्जनोचित व्यवहार का स्वभाव बनाते हैं। वे कर्तव्य को प्रधान और अधिकार को गौण मानते हैं। मित्रता केवल उन्हीं से करते हैं जिन्हें प्रामाणिक, दूरदर्शी एवं उदार हृदय जाना जा सके। आत्म निर्भरता उनमें कूट-कूट कर भरी होती है। वे दूसरों के सहयोग का स्वागत तो करते हैं पर उसको प्रधान मानकर कोई योजना नहीं बनाते। कठिनाइयों में संतुलन नहीं गंवाते और दूरदर्शी सूझबूझ का परिचय देते हैं। वे आशावादी होते हैं, तथा ईमानदारी का किसी परिस्थिति में परित्याग नहीं करते।

निर्वाह चक्र में संलग्न व्यक्ति सम्पन्न तो हो सकते हैं और दूसरों की तुलना में अधिक कुशल पुरुषार्थ होने का गर्व भी कर सकते हैं किन्तु न उनके पल्ले आत्म संतोष पड़ता है और न आत्म विकास का वह लाभ वे उठा पाते हैं जिसके कारण लोग श्रद्धास्पद बनते मानवता की महती सेवा करते हैं तथा इतिहास के पृष्ठों पर अपने प्रकाश भरे अविस्मरणीय चरण चिन्ह छोड़ते हैं।


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