उपचार या परिष्कार

February 1983

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चरक के निदान में एक कथा आती है महर्षि चरक रचित उस महान ग्रन्थ के प्रणेता पुनर्वसु अपने शोध प्रयासों के लिए सघन वनों में परिभ्रमण कर रहे थे। साथ में थे उनके पट्ट शिष्य अग्निवेश।

चलते चलाते पुनर्वसु ने अन्तरिक्ष की ओर देखा और किसी अप्रत्याशित आशंका से स्तब्ध होकर लम्बी सांसें भरने लगे। खड़े ऐसे थे जैसे काठ मार गया हो। आंखें ऐसी फट रही थीं मानो वे किसी विभीषिका का दर्शन कर रहे हों।

शिष्य अग्निवेश गुरुदेव के इस अकस्मात परिवर्तन को देखकर चिन्तातुर हो चला। समाधान के लिए उसने साहस बटोर कर डरते-काँपते प्रश्न किया- देव! क्या विग्रह उत्पन्न हुआ? क्या असमंजस सामने आया?

पुनर्वसु ने लम्बी साँस खींचते हुए कहा- “मैं तो जन साधारण को स्वस्थ बनाने की बात सोचता था, पर होता इससे ठीक विपरीत जा रहा है- देखता हूँ सर्वनाश की घटाएँ घुमड़ती चली आ रही हैं। मनुष्य भयंकर विपत्ति में फंसेंगे। पाँचों तत्व देवता कुपित होंगे और विनाश की वर्षा करेंगे। प्रकृति विपर्यय से अनेकों संकट खड़े होंगे। औषधियाँ अपना प्रभाव छोड़ देंगी और जिस मनुष्य के लिए हम इतना प्रयत्न पुरुषार्थ कर रहे हैं, वह स्वयं आत्मघात करेगा। यह भवितव्यता मेरे अन्तराल को विदीर्ण किये दे रही है।”

शिष्य अवाक् रह गया। उसने फिर हिम्मत की और विनयावनत होकर पूछा- ‘देव! आपने इतना महान ग्रन्थ रच दिया। इतना शोध प्रयत्न करके जनसाधारण के हाथ में अमृत कलश थमा दिया। फिर लोग क्यों रोगी पड़ेंगे? क्यों विपत्ति में फँसेंगे और जो फंसेंगे वे क्यों न उबरेंगे?

पुनर्वसु की उद्विग्नता में तनिक भी कमी नहीं आई। वे बोले- “जब मन ही अधर्मरत होकर विपत्तियों को आमन्त्रित करेगा तो बेचारा उपहार किस काम आयेगा? औषधियाँ तो व्याधियों की रोकथाम भर करती हैं। मन के पतन पर उनका नियन्त्रण है। कुमार्ग पर चल पड़ने वाले लोगों को आत्महत्या से रोकने में उपचारों से क्या काम बनेगा?

अग्निवेश का समाधान फिर भी न हुआ। उनने तीसरी बार पूछा- देव! मनुष्यों का अधर्माचरणों के लिए झुकाव किस कारण होता है और वे उसकी हानि को न समझते हुए क्यों उसे अपनाने लगते हैं?

ऋषि बोले- “तात! बुद्धि विपर्यय मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। बुद्धि के भ्रमित और पतित होने पर सब उलटा दीखता है। हानि में लाभ और लाभ में हानि देखने की विपन्नता उपज पड़ती है और जो करने योग्य है उसका परित्याग करके न करने योग्य को करने की प्रवृत्ति उभरती है। फलतः न केवल शारीरिक व्याधियाँ बढ़ती हैं वरन् हर दिशा से विपत्तियाँ बरसती हैं। जब विनाश काल आता है तो दुर्बुद्धि का प्रकोप ही तूफान की तरह उतरता है और जो कुछ श्रेष्ठ है उसे उजाड़ कर रख देता है। अगले दिनों मुझे ऐसी ही विपत्ति की सम्भावना आकाश में घुमड़ती दीखती है।”

शिष्य ने तथ्य को समझा और निराशाग्रस्त होकर भूमि पर लोट गया। बोला- हाँ हन्त! क्या हम लोगों को मनुष्य को सुखी देखने की आकाँक्षा दिवास्वप्न होकर ही रह जायेगी?

पुनर्वसु बहुत समय तक हतप्रभ न रहे। अपना होश सम्भाला और शिष्य को सहारा देकर उठाया। बोले! साँस रहने तक हमें निराश न होना चाहिए और न प्रयत्न छोड़ना चाहिए। सम्भावना को पराक्रम के सहारे बदला जा सकता है। सो हमें अब भवितव्यता को ध्यान में रखते हुए पराक्रम का नया निर्धारण करना चाहिए।

आशा जगी। अनुरूप निर्धारण की आकाँक्षा उठी दोनों परस्पर विचार विनिमय करते रहे। अन्ततः इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि उस महाग्रन्थ के जितने प्रकरण लिख गये, उतने से ही सन्तोष करना और विराम देना चाहिए। अब हमें अपना शोध प्रयोग उस प्रयोग हेतु नियोजित करना चाहिए जिससे शारीरिक व्याधियों के निवारण हेतु मानसिक आधियों का समाधान अधिक आवश्यक ओर प्राथमिकता देने योग्य है।


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