शाश्वत जीवन को सुसम्पन्न बनाना श्रेयस्कर है।

February 1983

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यह सच है कि हम रात्रि और दिन चक्र में से गुजरते रहने पर भी मरते नहीं, अपना अस्तित्व यथावत् बनाये रहते हैं। उसी प्रकार यह भी सच है कि बार-बार जन्मने मरने पर भी जीवन का अन्त नहीं है। वह अविच्छिन्न है। अनादि और अनंत तक उसकी सत्ता में कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं होता है।

सूर्य हर दिन पूर्व में उदय और पश्चिम में अस्त होता है। चन्द्रमा का दृश्य स्वरूप अमावस्या की की रात को अगोचर रहता है और पूर्णिमा को उसे पूर्णतया उजागर देखा जा सकता है। बीच की तिथियों में उसकी कलाएँ घटती बढ़ती रहती हैं। इतने पर भी उसके मूल स्वरूप में कोई अन्तर नहीं आता। जन्म और मरण का चक्र भी ऐसा ही है, जिसे जागृति और सुषुप्ति के बीच चलने वाली आँख मिचौनी कहा जा सकता है। बचपन, यौवन, ढलान और मरण का चक्र तो अपने क्रम से यथावत घूमता है। फिर भी उसकी सत्ता अविचल धुरी की तरह अडिग ही बनी रहती है।

मरण से डरना क्या, वह तो पुराने वस्त्र बदलने और नये पहनने की तरह एक सुखद परिवर्तन है। नियति के इस गति चक्र को रोक सकना किसी के बस की बात नहीं। जो आया है वह जायेगा अवश्य। इसके लिए न शोक की आवश्यकता है, न सन्ताप की। बुद्धिमत्ता इसी बात में है कि जीवन की अविच्छिन्न शृंखला को शाश्वत समझें और उसकी प्रत्येक कड़ी को अधिक सुव्यवस्थित बनाने के लिए प्रयत्नशील रहें। आज के प्रयास कल को अधिक सुखी, समृद्ध और समुन्नत बनाने के लिए होते हैं। प्रस्तुत जीवन का ऐसा निर्धारण होना चाहिए जिससे उसका भावी स्वरूप क्रमशः अधिकाधिक श्रेष्ठ, प्रखर और उज्ज्वल बनता चले और वह पूर्णता के निर्धारित लक्ष्य तक बिना भटकाव के यथा समय जा पहुँचे और अपनाई रीति-नीति पर गर्व कर सके।


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