दृश्य प्रकृति की अविज्ञात विलक्षणताएं

February 1983

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प्रकृति की विलक्षणताएँ भी किन्हीं नियमों के आधार पर ही प्रकट एवं घटित होती हैं। उन्हें जाना जा सके तो उपलब्ध विचित्रताओं को सहज स्वाभाविक बनाया जा सकता है। साथ ही इतना महत्वपूर्ण लाभ उठाया जा सकता है जो अब तक मनुष्य के हाथ नहीं लग सका है।

आज तक जितनी भी विलक्षणताएँ अंकित की गयी हैं, उन सब में सर्व साधारण है अप्राकृतिक वर्षा। 19वीं शताब्दी में किसी समय बिल्ली और कुत्ते को वर्षा के रूप में गिरते देखकर घनघोर वर्षा के लिए अंग्रेजी में एक मुहावरा बन गया “इट्स रेनींग कैट्स एण्ड डॉग्स।” वैसे भी समय-समय पर अगणित प्राणियों का वर्षा के रूप में गिरना देखा गया है। 28 मई 1881 के दिन इंग्लैंड के वरसेस्टर शहर के परिसर में गरजते तूफान के राथ केंकड़ों और घोघों को टनों के हिसाब से वर्षा के रूप में गिरते देखा गया। यह समाचार जब वारसेस्टर वासियों को मिला तब वे उन्हें थैलों-गाड़ियों में लादकर शहर की मण्डी में बेचने के लिए ले गये।

मछली, मेंढक, सीपी, गिरगिट तथा अन्य प्राणियों के समाचार कम ही मिलते हैं। किन्तु उपरोक्त घटना से 20 वर्ष पूर्व ऐसी ही एक विचित्र घटना का विवरण सिंगापुर में स्थित टाइम पत्रिका के एक फ्रेंच संवाददाता ने “ला साइन्स फॉर टॉस” के लिए भेजा था। यह घटना 16 फरवरी 1861 के दिन घटी। उस दिन वर्षा एकदम तेज होने के कारण 10 फीट दूर तक देखना असम्भव सा प्रतीत हो उठा था। वर्षा के साथ समुद्र में तूफान आ जाने के कारण समुद्र अपनी मर्यादा लाँघकर शहर की गलियों तक अपना विस्तार फैला चुका था। बाद में जब वर्षा कम हुई और रास्ते से पानी उतर गया अब देखने को मिला कि रास्ते में ढेर सारी मछलियों बिखरी पड़ी हैं। इसके साथ उन फ्रेंच प्रतिवेदक को यह भी देखने को मिला कि उसके घर के पिछले आँगन में भी मछलियाँ बिखरी पड़ी है। जबकि उसका घर पूरी तरह से दीवारों से घिरा हुआ था। इसलिए उसने यह सुनिश्चित अनुमान लगाया कि मछलियाँ समुद्र के पानी के साथ आयी हों या न आयी हों, किन्तु उनकी वर्षा निश्चित रूप से हुई है।

ऐसी सब मछलियों की वर्षा के जितने भी विवरण मिले हैं उन सबमें प्रायः यह देखा गया है कि जमीन पर गिरने के साथ भी यदि उन्हें पकड़ लिया जाता है तब भी वे जीवित नहीं मिलती जिससे यह अनुमान लगाना असम्भव हो जाता है कि वे कितनी देर तक हवा में रहीं। किन्तु एक असाधारण वर्षा की घटना जीवित मछलियों की भी पढ़ने को मिलती है। 11 फरवरी 1859 को वेल्स की एक पहाड़ी की ढाल में काम करने वाले एक किसान “जॉन लेविस” ने निकटवर्ती शहर अक्षर अवेरडार के पादरी के साथ मुलाकात में बताया कि उस दिन दोपहर खेत में काम करते समय अचानक उसकी पीठ पर कुछ टकराने लगा। अगल, बगल झाँकने से उसे जो दृश्य देखने मिला उसे देखकर उसकी आँखें चौंधिया गई। सारा खेत छोटी-छोटी मछलियों से भर गया था फिर भी ऊपर से उनकी वर्षा चालू ही थी। उसने अपनी टोपी उतार कर हवा में फैला दी तो कुछ ही क्षणों में वह टोपी भी भर गई तब अचम्भे के साथ उसे देखने को मिला कि वे सारी मछलियाँ प्रायः जीवित थीं और उछल-कूद मचा रही थीं। उन सबको बचाने के लिए उसने उन्हें समुद्री मछली समझ कर नमकीन पानी में डाला। किंतु जैसे ही उसने कुछ मछलियाँ पहली बार डालीं वे तत्काल मर गईं। इसलिए बाकी को खारे पानी में न डालकर उसने साफ पानी में डालीं। फलस्वरूप वे सारी बच गईं। अन्ततः जब वे बड़ी हुईं तब पादरी द्वारा उन्हें ‘स्टीकल बेकस’ प्रकार की मछलियों के रूप में पहचाना गया। इस घटना का विवरण उन दिनों विस्तार से लन्दन के ‘टाइम्स’ दैनिक में छपा था। ‘मिस्ट्रीस अनरिवील्ड’ नामक पुस्तक में ऐसी अनेकों घटनाएँ वर्णित हैं।

जीवित वस्तु की वर्षा, अपेक्षाकृत कम क्षेत्र पर ही होती है, किन्तु अन्य पदार्थों की अप्राकृतिक वर्षा कभी-कभी पूरे राष्ट्र और महाद्वीप के एक भू-भाग तक को आच्छादित कर देती है। सन् 1903 की फरवरी में पश्चिमी योरोप का विस्तृत भू-भाग सहारा रेगिस्तान काली रेत से भर गया था। जगह-जगह पर उसके रंगों में विभिन्नता देखने को मिली थी। कहीं-कहीं तो उसे लाल-पीले अथवा धुंधले रंग से पहचाना गया अथवा कत्थई रंग से उसका वर्णन किया गया था। अनुमान यह लगाया गया था कि लगभग 1 करोड़ टन की वर्षा तो केवल इंग्लैंड भर में ही हुई थी। उसी तरह की वर्षा का विवरण 30 जून 1968 को इंग्लैंड और वेल्स में दुबारा घटने के रूप में भी मिलता है, और वहाँ भी उसकी उत्पत्ति सहारा मरुभूमि ही बताई जाती है।

इन प्राणियों तथा पदार्थों की अनैसर्गिक वर्षा की जानकारी के बाद फफूँदों की वर्षा का विलक्षण वर्णन भी पढ़ने में आता है तब माथा टनकते ही बन पड़ता है। ऐसी घटना सन् 1819 में 13 अगस्त की रात को अमरीका के मेरोच्युसेट शहर में घटी। दिन भर की सख्त गरमी के बाद लगभग पूरी रात वर्षा की हल्की बौछार रही। वातावरण में हल्की ठंडक आ जाने से लोग अपनी सुस्ती उड़ाने जब बाहर निकले तब बाहर का वातावरण देखते ही वे आश्चर्यचकित रह गये। जगह-जगह पर उन्हें लगभग आठ इंच व्यास तथा एक इंच मोटाई के चमकीले गोल पदार्थ देखने मिले, जिनका सिरा रोएँदार था। पहले तो उनकी समझ में कुछ आया ही नहीं कि वह कौन सा पदार्थ या प्राणी है किन्तु कुछ समय बाद के अन्वेषण ने इस बात की जानकारी प्रदान की कि वह एक प्रकार की फफूँद है जो हवा में तैरती रहती है और उचित अवसर मिलने पर जमीन पर आ गिरती है। विश्व के आदि पुरातन ग्रन्थों में इसकी जानकारी ‘नोस्टॉक’ के नाम से मिलती है। इस फफूँद में विशेषता यह रहती है कि वह सूखे दिनों में कागज की तरह पतली हो जाती है किन्तु आर्द्रता अथवा जल का समागम प्राप्त करते ही देखते-देखते द्राक्षाकार की हो जाती है। इनके अचानक प्रकटन से ऐसा प्रतीत होता है मानो उनकी वर्षा हुई हो।

केवल पदार्थ-प्राणी ही नहीं, आग की वर्षा भी होती देखी गयी है। 13 नवम्बर 1833 को उत्तरी अमेरिका में आग बरसने का विवरण मिलता है। उस इतिहास प्रसिद्ध घटना का कारण था अन्तरिक्ष से छोटी-छोटी उल्काओं का एक साथ बरस पड़ना। अनुमानतः 2 लाख छोटे-बड़े जलते अंगारे आकाश से जमीन की ओर तेजी के साथ दौड़ते हुए देखे गये। गनीमत इतनी ही रही कि वे सभी जमीन तक पहुँचने से पहले ही बुझ गये। एक भी उल्का धरती को छू नहीं सकी और आकाश में धूल बनकर बिखर गई।

विचित्र वर्षा की तरह ही विचित्र ध्वनियों के सुनाई देने की घटनाएँ भी ऐसी हैं जिनसे प्रतीत होता है कि कान मात्र टेलीफोन, रेडियो जैसे उपकरण ही अन्तरिक्ष में भ्रमण करने वाले ध्वनि प्रवाहों को पकड़ने के कारण नहीं हैं वरन् अन्य माध्यमों से भी वे सुनने में आ सकती हैं।

इनमें से कुछ ध्वनियाँ इन्हीं दिनों की हो सकती हैं किन्तु कुछ के बारे में यही कहा जा सकता है कि वे पूर्व संचित हैं, कहीं जगह पकड़ कर बैठ गई हैं तथा किसी प्रकृति नियम के अनुसार अपनी पुनरावृत्ति करती रहती हैं।

एक बार चेकोस्लोवाकिया की एक नदी में कुछ लोग स्नान कर रहे थे, तभी सामने से कुछ मधुर संगीत सुनाई देने लगा। लोगों ने छान मारा पर पता न चला कि कौन और कहाँ से गा रहा है जबकि आवाज उनके पास ही हो रही थी। उस स्थान पर कुछ समय पूर्व कुछ सिपाही मारे गये थे, इसलिए यह मानकर उस बात को टाल दिया गया कि उन सिपाहियों की मृतात्माएँ ही गा रही होंगी।

दो दशक पूर्व की बात है। ‘लाइफ’ पत्रिका में प्रकाशित एक विवरण के अनुसार न्यूयार्क में एक बार बहुत से लोग रेडियो प्रोग्राम सुन रहे थे। एकाएक संगीत ध्वनि तो बन्द हो गई और दो महिलाओं की ऊँची-ऊँची आवाजों में बातें आने लगीं। रेडियो स्टेशन से पूछा गया तो पता चला कि वहाँ से केवल नियमबद्ध संगीत ही प्रसारित हुआ है। बीच की आवाज कहां से आई यह किसी को पता नहीं है।

सेण्ट लुईस में एक बार रात्रि-भोज का आयोजन किया गया। जैसे ही संगीतकारों ने वाद्य-यन्त्र उठाये कि उनसे ताजा खबरें प्रसारित होने लगीं। इससे आयोजन के सारे कार्यक्रम ही फेल हो गये। एलबर्टा के एक किसान का कहना है कि जब वह अपने कुएँ के ऊपर पड़ी हुई लोहे की चादर को हटाता है, तो कुएँ के तल से संगीत सुनाई देने लगता है। पुलिस को सन्देह हुआ कि किसान ने कहीं रेडियो छुपाया होगा। इसलिए इंच-इंच जमीन की जाँच कर ली। पड़ोसियों के रेडियो भी बरामद कर लिए पर जैसे ही उस लोहे की चादर को हटाया गया, आवाज बार-बार सुनाई दी और अन्ततः उस समस्या का कोई हल निकाला नहीं जा सका।

‘वण्डर बुक ऑफ दि स्ट्रेंज फैक्ट्स’ नामक प्रसिद्ध पुस्तक के लेखक ने नील नदी के किनारे स्थित कारनक के खण्डहरों में दो घूरती हुई प्रतिमाओं का उल्लेख किया है। ये दोनों प्रतिमाएँ डेढ़ कि. मी. के फासले पर जमी हुई हैं तथा उनके पास जाने पर ऐसा लगता है जैसे कोई विशालकाय दैत्य घूर रहा हो। इनमें एक प्रतिमा पत्थर की सामान्य मूर्तियों की तरह चुप खड़ी रहती है पर दूसरी से अक्सर कुछ बोलने की आवाज आती रहती है। पत्थर की मूर्ति क्यों और कैसे बोलती है इसका पता लगाने की हर सम्भव कोशिश की गई किन्तु अभी तक कुछ कारण खोजा नहीं जा सका।

मध्य एशिया के आठ लाख वर्ग कि. मी. क्षेत्र में फैले हुए गोवी मरुस्थल के तकला मारान के पश्चिमी छोर पर स्थित अन्दास पादशा नामक स्थान में करुण संगीत सुनायी देता है। यह संगीत कभी-कभी ही सुनाई देता है और अधिक से अधिक पन्द्रह मिनट तक चलता है। अमेरिका की एक रेडियो कम्पनी ने इस करुण संगीत को टेपकर सुनाया तो कुछ ही दिनों में आकाशवाणी केन्द्र को हजारों श्रोताओं ने पत्र लिखे और बताया कि इस संगीत को सुनकर उनका हृदय व्यथा-वेदना से भर आया। एक टी. वी. कम्पनी ने इस स्थान की रिकार्डिंग की और अपने दर्शकों को बिना किसी कमेण्ट्री के सुनायी तो असंख्यों दर्शक रोने लगे।

कवाई टापू पश्चिमी आइलैण्ड के हवाइयाँ ग्रुप में आता है। होनोलूलू से करीब 12 कि. मी. दूर के इस टापू पर स्थित एक 20 मीटर ऊँची पहाड़ी तरह-तरह की आवाज करती है। इस पहाड़ी के पत्थर कोरल, शेल्स तथा लावा के कणों से निर्मित पाये गये हैं जो स्वयं अपने आप में आश्चर्य हैं। उससे भी बड़ा आश्चर्य यह कि पहाड़ी से प्रायः कुत्तों के भौंकने की ध्वनि आती है। रात के अन्धकार और आँधी-वर्षा के समय यह ध्वनि बहुधा होती है। बच्चों के लिए यह क्षेत्र निषिद्ध घोषित है क्योंकि बच्चे इस आवाज को सुनने पर भयभीत हो जाते हैं। ऐसा भी नहीं है कि पास के किसी गाँव में कुत्ते ही भौंकते हों और उनकी प्रति-ध्वनि आती हो। इस पहाड़ी के आस-पास मीलों दूर तक कोई गाँव नहीं है। आज तक कोई भी वैज्ञानिक उस कारण की खोज नहीं कर पाया कि इस टीले से भौंकने की आवाज क्यों आती है? सदियों से यह रहस्य ज्यों का त्यों बना हुआ है तथा अपने विश्लेषण की लम्बे समय से प्रतीक्षा कर रहा है।

प्रकृति के ऐसे अनेकों रहस्य हैं जो मनुष्य को अभी तक अविज्ञात है। पदार्थ के सूक्ष्मतम कणों की भौतिकी विदों ने परिकल्पना तो गणितीय आधार पर कर ली पर उन्हें देखा किसने? जो नहीं दृश्यमान है पर जिसकी हलचलें दिखाई पड़ती हैं, उसे ‘मिस्ट्री’, ‘अनएक्सप्लेन्ड’, ‘ऑकल्ट’ नाम देकर इतिहास के गर्त्त में धकेलने की अपेक्षा उसे जानने का प्रयास करना ही उचित है। प्रकृति विलक्षण है, अचिन्त्य-अगोचर परब्रह्म की एक ऐसी माया है जिसे अध्यात्म विज्ञान अदृश्य जगत की सत्ता से संचालित मानता चला आया है। प्रति विश्व की दुनिया अत्यन्त ही निराली है। अविज्ञात कारणों की खोज करनी हो तो हमें पहले अध्यात्म की मान्यताओं को भी विज्ञान की एक सशक्त धारा के रूप में स्वीकार करना होगा। पूर्वाग्रह, दुराग्रह हटें तो अवरोध हटें भी। अदृश्य जगत का अनुसन्धान सभी विज्ञानविदों के लिए एक ऐसा ही चुनौती भरा क्षेत्र है।


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