प्रसन्नता संपन्नता पर निर्भर नहीं

February 1983

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सम्पन्नता के साथ प्रसन्नता रहने की बात एक सीमा तक ही सच है। प्रसन्नता का अर्थ सामयिक शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो तो उसके साथ कुछ क्षण के लिए प्रसन्नता मिलने की बात समझ में भी आती है, पर यदि उसे आन्तरिक सन्तोष एवं उल्लास आनंद के साथ जोड़ा जायेगा तो उत्तर ‘नहीं’ में ही देना पड़ेगा। शरीर की आवश्यकताएँ कृत्रिम भी हो सकती हैं और वास्तविक भी। कृत्रिम वे हैं- जिनमें पेट भरा होने पर भी स्वादिष्ट वस्तुओं की ललक उठती रहती है। वास्तविक वे जिनमें भूख लगने पर खाली पेट को भरने की आवश्यकता पड़ती है। कृत्रिम की पूर्ति चखते ही हो जाती है क्योंकि पेट भरा होने पर गले से नीचे कुछ उतरता ही नहीं। वास्तविक की पूर्ति में कुछ मिनट लगते हैं। जैसे-जैसे पेट भरता जाता है वैसे-वैसे आहार से तृप्ति नहीं, अरुचि भी उत्पन्न होने लगती है और फिर बहुत आग्रह होने पर भी स्पष्ट इनकार करना पड़ता है। यही बात अन्य इंद्रियों के सम्बन्ध में भी है। उनमें से प्रत्येक की तृप्ति में तनिक सा समय लगता है और वस्तु प्राप्त होने पर उस प्रसन्नता का भी अन्त हो जाता है जो कुछ समय पहले उद्विग्न कर रही थी। फिर यह प्रसन्नता वस्तुओं के स्तर से भी सम्बन्धित है। घटिया मिलने पर कम और बढ़िया मिलने पर कुछ अधिक होती है। पर है दोनों ही सामयिक क्षणिक। कुछ ही समय में थकान, ऊब आने लगती है फिर हट जाने या हटा देने को जी करता है।

यह इन्द्रियजन्य वासना का विषय हुआ। मन भी ग्यारहवीं इन्द्री है उसका स्तर कुछ ऊँचा है। उसे अहंता की पूर्ति में रस आता है। वस्तुओं का संग्रह, व्यक्तियों पर आधिपत्य, अन्यान्यों की तुलना में वरिष्ठता जैसे प्रसंग मन को बहुत सुहाते हैं। ठाट-बाट, प्रदर्शन, प्रशंसा, आदि के द्वारा दूसरों पर धाक जमाने की ललक मन में छिपी रहती है। ऐसे अवसर जब भी आते हैं तब प्रसन्नता होती है। किन्तु है वह भी क्षणिक ही। जब तक इच्छित वस्तु नहीं मिली तभी तक उत्कंठा रहती है। मिलने पर सुरक्षा ईर्ष्या जैसी कितनी ही नई समस्याएँ उत्पन्न होती है और दुरुपयोग चल पड़ने पर तो उनकी बड़ी भयावह प्रतिक्रिया होती है। दुर्व्यसनों से प्रायः समय और धन फालतू होने पर ही मनुष्य घिरता है। दुर्व्यसनी किस प्रकार स्वयं डूबते और साथियों को डुबाते हैं, यह आये दिन की घटनाएं हर किसी के सामने घटती रहती हैं। यह तथाकथित सम्पन्नता- अहंता- का ही प्रतिफल है जो मन में तृष्णा बनकर निरन्तर कोलाहल मचाये रहती है।

तृष्णा को न बुझने वाली आग कहा गया है। एक की पूर्ति होते-होते ही उसने भी बड़ी- नयी आवश्यकता बनकर सामने आ खड़ी होती है। जो मिला, उसकी सुखानुभूति में कुछ ही क्षण व्यतीत होते हैं कि वह नगण्य लगने लगता है और दूसरे सुसम्पन्नों की तुलना में अपना भी वैभव बढ़ाने की उत्कंठा उभरती है। स्थिति ज्यों की त्यों। जो मिला था वह एक प्रकार से बेकार चला गया। न मिलने से पूर्व जो अभिलाषा थी उसी ने नये रूप में फिर उसी स्थान पर आकर अड्डा जमा लिया।

वासना तृष्णा का कुचक्र ही आमतौर से आँख-मिचौनी खेलता रहता है। सम्पन्नता कितनी ही क्यों न बढ़ती रहे, अतृप्ति से छुटकारा मिलने वाला नहीं। जब जो मिला वह या तो कम पड़ा या फिर अरुचिकर ही हो गया। इसके अतिरिक्त एक और बात भी है कि अभावग्रस्त स्थिति में मनुष्य जो नितान्त आवश्यक है उसी के उपार्जन में व्यस्त रहता है और समय, श्रम, खाली न रहने पर उन बुराइयों से बच जाता है जो खाली दिमाग को “शैतान की दुकान” सिद्ध करती है और ठलुआ लोगों को आवारागर्दी के- कुसंग के- दुर्व्यसनों के गर्त में गिराकर वर्तमान को बदनाम ओर भविष्य को अन्धकारमय बनाती है। इस दृष्टि से अभावग्रस्तों को सुसंपन्नों की तुलना अधिक भाग्यवान कहा जा सकता है। जबकि दूसरों की आंखें चौंधियाने की दृष्टि से धन वालों का ही पलड़ा भारी रहता है।

बात प्रसन्नता की चल रही थी। गम्भीर पर्यवेक्षण करने पर वह एक विशेष प्रकार की मनःस्थिति ही समझी जा सकती है ऐसी मनःस्थिति, जिसे शालीन, सभ्य सुसंस्कृत एवं उदात्त भी कहा जा सके। वह जिसे जितनी मात्रा में उपलब्ध है वह अपने दृष्टिकोण को परिष्कृत करता है और वस्तुओं तथा व्यक्तियों के साथ तालमेल बिठाने का प्रयत्न करता है। अमुक वस्तु मिलने की उपयोगिता हो सकती है। अमुक व्यक्ति का अनुग्रह सहयोग लाभदायक माना जा सकता है, पर ऐसा कुछ नहीं कि यदि वे उपलब्ध न हों तो काम चले ही नहीं, या प्रसन्नता से सर्वथा वंचित रहना पड़े। यदि ऐसा होता तो निर्धनों में ये अधिकांश दुःखी पाये जाते और धनवानों को प्रसन्नता से भरी-पूरी स्थिति में रहते देखा जाता। पर वैसा होता नहीं। सच तो यह है कि वस्तुस्थिति ठीक इसके विपरीत पाई जाती है। अनुपात की दृष्टि से सम्पन्नों को चिन्ताग्रस्त, असन्तुष्ट, रुग्ण एवं विपन्न पाया जाता है। दबाव और तनाव के बीच घिसते हुए वे बेमौत मरते हैं जबकि अभावों में दिन गुजारने वाले सन्तोष की साँस लेते और गहरी नींद सोते देखे गये हैं। जितनी गहराई में उतरा जाय, उतना ही यह तथ्य स्पष्ट होता जाता है कि सम्पन्नता और प्रसन्नता में घनिष्ठता दीखती भर है। वस्तुतः वे हैं एक दूसरे से सर्वथा भिन्न। प्रसन्न रहने के लिए सम्पन्नता अनिवार्य नहीं। इसी प्रकार यह भी नहीं माना जा सकता कि जिसके पास सम्पन्नता होगी, वह प्रसन्न रहेगा ही। इतने पर भी सुविधा साधनों की उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता। वे जहाँ होंगे अपनी अहिंसा का परिचय देंगे ही।

मनोविज्ञानी जेम्स ऐरिक प्रसन्नता की व्याख्या करते हुए लिखा है- “खुशी में खुशहाली एक सीमा तक ही सहायता कर सकती है। दोनों को एक दूसरे के साथ जोड़ा नहीं जा सकता। खुशी एक मनोदशा है जो तथ्यानुयायी चिन्तन एवं परिपक्व व्यक्तित्व के आधार पर स्वयं उपार्जित करनी पड़ती है। इसका जीने की कला के साथ अविच्छिन्न सम्बन्ध है। जो यह जानता है कि जीना किसे कहते हैं और उसके लिए किस स्तर का दृष्टिकोण तथा व्यवहार अपनाया जाना चाहिए, वही अपने भीतर प्रसन्नता उगा सकता है और उसके सुगन्ध भरे सौंदर्य से समीपवर्ती वातावरण में अनुकूलता तथा सहानुभूति भरा आकर्षण उत्पन्न कर सकता है।

श्रीमती नोरा जानसन ने अपने ग्रन्थ “प्रसन्नता का मनोविज्ञान” में लिखा है- दूसरे लोग एक सीमा तक ही हमें सुख या दुःख दे सकते हैं। इसी प्रकार सुविधा साधनों का बाहुल्य या अभाव भी इस संबंध में तनिक सा ही सहयोग देने या व्यवधान उत्पन्न कर सकने में समर्थ हो सकते हैं। मानसिक दृष्टि से पराधीन व्यक्ति ही यह सोचते हैं कि अनुकूलता होने पर प्रसन्न रहा जा सकेगा। जबकि आत्म निर्भरों की मान्यता यह होती है कि हर स्थिति के साथ तालमेल बिठाकर सन्तोष एवं उल्लास का मार्ग खोज निकाला जा सकता है।

हर्बर्ट स्पेन्सर कहते थे “मनुष्य अपनी गरिमा समझे और उभारे तो उसे इस बात का अनुभव होने लगेगा कि परिस्थिति नहीं, मनःस्थिति ही किसी की प्रसन्नता-अप्रसन्नता का आधारभूत कारण होती है। जो अपने को महत्वपूर्ण मानता है, अपने क्रिया-कलाप में रस लेता है और दूसरों से सीमित आशा अपेक्षा रखता है उसे किसी भी परिस्थिति में उत्साह बनाये रहने का अवसर मिलता रहेगा। जो उपलब्ध है उसमें मोद मनाने और भविष्य के लिए आशान्वित रहने की आदत डाली जा सके तो फिर अपनी प्रसन्नता मुट्ठी में रहेगी और उसे कोई अन्य छीन नहीं सकेगा।”

अरस्तू अपने शिष्यों से कहा करते थे- प्रसन्नता एक आदत है, जिस सुरुचि सम्पन्न दैनिक अभ्यास में प्रयुक्त करते रहने पर निरन्तर आगे बढ़ाते रह सकते हैं। अपने भीतर और बाहर इतना कुछ भरा पड़ा है कि उसकी शोभा निरखते और अनुकूलता का अनुमान लगाया जाय तो हर व्यक्ति अपने वर्तमान को सुख-सुविधाओं से भरा-पूरा अनुभव कर सकता है। कठिनाइयां होती तो हैं, पर उन्हें जागरुकता और तत्परता उभारने वाली चुनौती भी तो समझा जा सकता है। चुनौतियां स्वीकार करने और वहाने प्रबल पुरुषार्थ करने से मनुष्य घाटे में नहीं रहता। इस प्रकार कठिनाइयों को दुःख में नहीं, सुयोग में गिना जा सकता है।”

दार्शनिक नीत्से कहते थे- “व्यक्तित्व की प्रखरता ही किसी में उत्साह भरे रह सकती है। मनोबल गिरा रहे तो मनुष्य आशंका और असफलता की कल्पना करता रहेगा। जिस-तिस पर दोषारोपण करके अपने को असहाय या निर्दोष सिद्ध करने की प्रवंचना से कोई मन हलका भले ही करले पर उससे कुछ बनता नहीं। जिन्दगी खिलाड़ी की तरह जीनी चाहिए। हर प्रतिकूलता से दूने उत्साह के साथ जूझना चाहिए और विश्वास करके चलना चाहिए कि मन से हार न मानने वाला अंततः जीत कर ही रहता है। असफलताएँ तो अधिक तत्परता अपनाने का उद्बोधन मात्र है उनमें ऐसा कुछ नहीं जिससे निराश होना या अप्रसन्न रहना पड़े”।

फ्रायड ने लिखा है- “दैनिक जीवन में कितनी ही छोटी-छोटी सफलताएँ आती रहती हैं। उपलब्धियां हस्तगत होती रहती हैं। प्रसन्नतादायक घड़ियां आती रहती हैं। यदि इन सब पर गौर किया जाय तो प्रतीत होगा कि अपने सौभाग्य में कोई कमी नहीं। बड़ी सफलताओं की योजना बनाने में हर्ज नहीं, पर आरम्भ से ही यह मानकर चलना चाहिए कि अपने हाथ में मात्र पुरुषार्थ है। जो चाहा गया है उसका मिलना बहुत कुछ उन परिस्थितियों पर निर्भर है जिन पर अपना काबू नहीं। इसलिए हर महत्वाकांक्षी को जहाँ आशावादी होना चाहिए वहाँ प्रतिकूलता ओर असफलता की सम्भावना को भी स्वीकारना चाहिए। इन उतार-चढ़ावों में जो अपना मनोबल बनाये रहते हैं उनकी प्रसन्नता कभी हाथ से जाती नहीं है।”

अभावों से किसी को छुटकारा नहीं। अपने से अधिक सम्पन्नों के साथ तुलना करने पर हर कोई अपने को अभावग्रस्त समझेगा। इसके विपरीत यदि अधिक कठिनाइयों से घिरे हुए लोगों के साथ तुलना की जाय तो प्रतीत होगा कि जो मिला हुआ है वह भी कम नहीं उसके लिए भी असंख्यों तरसते हैं। ऐसी दशा में क्यों अपने को अभावग्रस्त माना जाय? क्यों न अपने सौभाग्य को सराहा जाय?

हर उत्तरदायित्व को महत्व दिया जाय और उसे यथा सम्भव पूरी समझदारी एवं ईमानदारी के साथ निभाया जाय। किन्तु साथ ही यह भी ध्यान रखा जाय कि परिस्थितियों के उतार चढ़ाव तो धूप छांव की तरह हैं। उनका कौतूहल भर देखा जाय पर यह मानकर न चला जाय कि उन्हीं पर अपनी प्रसन्नता- अप्रसन्नता निर्भर है। अधिक साधन सुविधाओं के उपार्जन सदुपयोग का प्रयत्न तो किया जाय, पर साथ ही यह भी गिरह बांध कर रखा जाय कि सीमित या स्वल्प साधनों में भी सन्तुलन बिठाया और हँसता-हँसाता जीवन क्रम चलाया जा सकता है।


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