अपनों से अपनी बात - शान्ति कुँज में सपरिवार ठहरने की व्यवस्था

February 1983

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अब तक शान्ति कुँज में मात्र साधकों के प्रशिक्षण के लायक ही स्थान था। इसलिए पर्यटकों को अन्यत्र ठहरने के लिए कहा ता रहा है। बाल बच्चों समते आने पर भी प्रतिबन्ध था। इस रोकथाम के दो कारण थे एक तो स्थान की कमी। दूसरे अनगढ़ लोगों द्वारा आश्रम की छावनी एवं अस्पताल जैसी अनुशासित सुव्यवस्था को अस्त व्यस्त करके रख देना। धर्मशाला पर बरात जैसी स्वेच्छाचारिता यहाँ भी बरती जाय तो समझना चाहिए इन ठहरने वाले भक्तजनों ने यहाँ का स्वरूप ही विकृत करके रख दिया और इतने प्रयत्नपूर्वक बनी हुई सुव्यवस्था का अन्त ही हो गया।

उपरोक्त दोनों ही कारण अपने-अपने स्थान पर महत्वपूर्ण थे। इसलिए आगन्तुकों इच्छुकों की भावना को ठेस लगाने की बात समझते हुए भी नाराजी का जोखिम उठाते हुए भी यह रीति नीति अपनाई जाती रही है कि पर्यटकों को अन्यत्र ठहरने के लिए कहा जाय। उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए भी अपनी विवशता को भी सामने रखा जाय और शान्ति कुँज मात्रा साधना शिक्षा के निमित आने वालों के लिए ही सुरक्षित रखा जाय।

इस वर्ष सें इस अनुबन्ध की कठोरता में शिथिलता की जा रही है और 20 लाख प्रज्ञा परिजनों की श्रद्धा भावना का ध्यान रखते हुए यह सोचा गया है कि जिन्हें मात्र पर्यटन का मनोरंजन ही अभीष्ट नहीं है, जो वस्तुतः शान्ति कुँज के प्रति आत्मीयता रखने हैं और हरिद्वार आने पर वहीं ठहरने में लाभ आनन्द अनुभव करते हैं। थोड़े समय की निकटता में भी हित साधन देखते हैं और इस वातावरण के साथ जुड़ने की बात को भी महत्व देते हैं ऐसे लोगों के ठहरने की भी व्यवस्था बनाई जाय और बाल बच्चों समेत आने की छुट दी जाय। इस नये निर्धारण के अंतर्गत उन परिजनों को परिवार समेत आने ठहरने की सुविधा दी जाया करेगी जो यहाँ के कार्यक्रम और वातावरण के संपर्क में आने तथा लाभान्वित होने के लिए इच्छुक होंगे। उन लोगों पर तो अभी भी प्रतिबन्ध लागू है और भविष्य में भी लागू रहेगा जो बसों में अनगढ़ यात्री भर कर लाते हैं। जिन्हें अपनी सुविधा ही सब कुछ है जिसे दूसरे के अनुशासन और स्तर में कोई सम्बन्ध नहीं। ऐसों को ठहराने के लिए वे ही तैयार हो सकते हैं जिनकी न अपनी कोई व्यवस्था है और न गरिमा। तीर्थों में आमतौर से इसी स्तर की अनगढ़ भीड़ जहाँ तहाँ मारी7मारी फिरती देखी जाती है। वैसा माहौल तो शान्ति कुँज में कभी भी किसी भी कारण बनने नहीं दिया जाना है।

फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि आगन्तुकों में सभी बेसिलसिले के हाते हैं और पैसा बटोरने, धक्के खाने और गन्दगी फैलाने के अतिरिक्त और कुछ करते ही नहीं। तीर्थ सेवन की पुरातन धर्म परम्परा का पुनः जीवन किया गया है। तो इसका स्वाभाविक परिणात यह भी होना चाहिए कि शान्तिकुँज में तीर्थ सेवन विधि के साथ-साथ लोग समीपवर्ती तीर्थों के दर्शन भ्रमण का भी कार्यक्रम बनाकर चलें। इन दिनों सर्वत्र भयानक भीड़े है और तथाकथित तीर्थों में न धार्मिक वातावरण रहा है न शान्तिदायक सुविधाजनक परिस्थितियाँ। मात्र उत्तराखण्ड ही इसका अपवाद है जहाँ पुरातन तीर्थ प्रेरणा की कुछ झलक मिल सकती है। ऐसा दशा में यदि सामान्य जनों की इच्छा शान्ति कुँज में तीर्थ सेवन के साथ-साथ पर्यटन की इच्छा शान्ति कुँज में तीर्थ सेवन के साथ-साथ पर्यटन दर्शन की भी हो तो उसे अनुचित नहीं कहा जा सकता। अपना परिवार 20 लाख सदस्यों का है। उनमें से हर साल हजारों ऐसे होते हैं जो शान्ति कुँज के अतिधनिष्ठ हैं साथ ही किराये से घर परिवार की दर्शन झाँकी कराने के उद्देश्य से निकलते हैं मात्र यही वर्ग ऐसा है जिसे शान्ति कुँज में ठहरने और तीर्थ सेवन के साथ-साथ दर्शन झाँकी का सुयोग बिठाने की भी व्यवस्था बनाई जा रही है।

ऐसे लोगों मात्र अपने परिवार को ही लेकर चलेंगे। बसों में आमतौर से अनगढ़ भीड़ होती है। उनमें 80 प्रतिशत ऐसे लोग होते हैं जो मिशन के स्वरूप तथा अनुशासन से तनिक भी परिचित नहीं होते। ऐसे लोगों के लिए नहीं। मात्र ऐसे लोगों के लिए प्रबन्ध किया जा रहा है जो न केवल स्वयं मिशन के घनिष्ठ हैं वरन् उनका परिवार भी उससे भली भाँति परिचित है। अब वे परिवार समेत आ सकेंगे और उपयुक्त समय तक ठहर भी सकेंगे। ऐसे लोगा मध्याह्न काल तक जप, हवन, प्रवचन और भोजन से निपट लिया करेंगे और मध्याह्न से सायंकाल तक परिभ्रमण के लिए निकल जाया करेंगे। इस प्रकार प्राय दिन दिन रुकने से शान्तिपूर्वक तीर्थ यात्रा भी सम्पन्न हो जाया करेगी और इस अवधि में थोड़ा बहुत साधना उपासना का संपर्क श्रवण का सुयोग भी व्यवस्थापूर्वक वन जाया करेगा। घोड़े पर सवार भगदड़ मचाने वालों के लिए तो ऐसा कुछ बन पड़ना सम्भव नहीं है। बसों में आये यात्री मात्र 12 से 3 की निर्धारित अवधि में ही भेंट कर सकेंगे चाहे जब नहीं।

प्रज्ञा परिजनों के लिए अब धीरे-धीरे शान्तिकुँज निजी अध्ययन लोक की तरह गुरुद्वारो की तरह बनता जा रहा है। अब हजारों परिजन अपना जन्म दिन विवाह दिन मनाने शान्ति कुँज आते हैं। बच्चों के नामकरण अन्नप्राशन, मुण्डन, विद्यारम्भ, यज्ञोपवीत दीक्षा भी यहीं कराने में रुचि रहती हैं लोग सोचते हैं जब यह संस्कार कराने ही है तो लकीर क्यों पीटी जाय। संस्कारवान वातावरण में संस्कारवान हाथों से ही शास्त्रों की विधि से उन्हें सम्पन्न क्यों न कराया जायं यह सुविधा शान्ति कुँज में प्रत्यक्ष है। इसलिए इन प्रयोजनों को लेकर तथा साथ ही दर्शन झाँकी करने कराने का भी लाभ लेने के उद्देश्य से आने वालों की भीड़ बढ़ती ही जाती है। ऐसे उद्देश्यपूर्ण लोगों के दो तीन दिन ठहरने की व्यवथा बनाना अब आवश्यक हो गया था उन्हें धर्मशाला से भाग देने सभी गधे घोड़ों को एक लाठी से हाँकना बहुत दिनों से अखर रहा था। अब इस वर्ग के लिए विधिवत् सुविधा बना दी गई। विशेषतया इसलिए कि इसमें अपनी तीर्थ सेवन कार्य पद्धति का विस्तार होता है और तीर्थ परम्परा के पुनर्जीवन वाला उद्देश्य आँशिक रूप से पूरा होता है।

दिवंगत पूर्वजों के श्राद्ध तर्पण कराने लोग प्रायः हरिद्वार जैन तीर्थों में आते हैं। अस्थि विसर्जन के लिए भी। ऐसे लोगों के लिए श्राद्ध तर्पण की व्यवस्था भी यहाँ बना दी गई है। इससे मृतक भोज और कुपात्रों के हाथों श्रद्धा साधनों के जाने का विपर्यय भी नहीं होता विधिवत् सब कार्य भी सम्पन्न हो जाते हैं। यह व्यवस्था भी शान्ति कुँज में बना दी गई है।

अगले दिनों प्रज्ञा परिवार को बिना दहेज और बिना धूमधाम की अपने बच्चों की शादियाँ शान्ति कुँज में ही करनी पड़ेगी। इतना खर्च उठाना और उतना अपव्यय करना कम से कम शान्ति कुँज के विज्ञजनों के लिए तो किसी प्रकार शोभनीय न रहेगा। सोचा गया है कि कार्तिक पूर्णिमा से लेकर फागुन की पूर्णिमा के बीच सर्दी के दिनों शान्ति कुँज में गायत्री परिवार के बालक बालिकाओं के विवाह शान्ति कुँज में ही हुआ करे। दोनों पक्षों के दस दस से अधिक व्यक्ति न आयें। सब कार्य ऐसे वातावरण और विधान के साथ सम्पन्न हो जाया करें जिससे विवाह का उद्देश्य एवं भविष्य भी स्वर्णिम बने और अपव्यय से पिण्ड छूटना भी सम्भव हो सके। एक उपयोगी प्रचलन भी बढ़े चले।

उपरोक्त प्रयोजनों के लिए असंख्यों लोग बहुत समय से व्याकुल थे। पर वैसी व्यवस्था बन नहीं पाती थी। अब कुछ स्थान इन्हीं प्रयोजनों के लिए विशेष रूप से बनाया गया है और उनमें आने बालों के लिए विशेष रूप से बनाया गया है और उनमें आने वालों के लिए तीन दिन के तीर्थ सत्र का भी प्रबन्ध किया गया है। जो आवेंगे वे इस स्वल्प अवधि में भी यह अनुभव करेंगे कि उनकी हरिद्वार यात्रा उद्देश्यपूर्ण भी रही और सफल सार्थक भी हुई।

इन आगन्तुकों के लिए ठहरने के अतिरिक्त भोजनालय का भी स्वतंत्र प्रबन्ध कर दिया गया है जिनमें बाजार भाव की तुलना मेंकही सस्ता और अच्छा भोजन उकनी माँग के अनुसार बनाकर दे दिया लाया करेगा।

बद्रीनाथ, गंगोत्री यात्रा के लिए कई जत्थे जाते रहते हैं। वे भी यदि चाहे तो एक रात आते जाते यहाँ ठहर सकते हैं। कारण कि इन दिनों धर्मशालाएँ ठसाठस भरी रहती है। उनमें भी होटलों जैसा किराया देना पड़ता है। फिर भी जगह नहीं मिलती। बाजार का भोजन महंगा भी है और अस्वास्थ्यकर भी। इन असुविधाओं से प्रज्ञ परिवारके परिजनों को बचाने के लिए उपरोक्त व्यवस्था की गई है। जिन्हें अब तक सदर निराश होना पड़ा है। वे अब शान्ति कुँज के स्वर्णिम वातावरण में कुछ समय ठहरकर तीर्थ पुरातन स्वरूप की झाँकी करते हुए सन्तोष लाभ ले सकेंगे। जिन्हें आना हो पूर्व स्वीकृति तो उन्हें भी लेनी पड़ेगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118