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February 1983

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लक्ष्ये ब्रह्मणि मानसं दृढ़तरं संस्थाप्य बाह्येन्द्रियं, स्वस्थाने विनिवेश्य निश्चलनुश्चोपेक्ष्य देहस्थितिम्। ब्रह्मात्मैक्यमपेत्य तन्मयतया चाखण्डवृतयानिशं, ब्रह्मानन्दरंस पिवात्मनिं मुदाशून्यैः किमन्यैर्भ्रमैः॥ -विवेक. - 979

अर्थात्- शंकराचार्य जी ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ विवेक चूड़ामणि में ध्यान की विधि बताते हुए लिखते हैं कि- सर्वप्रथम अपने चित्त (मन) को ब्रह्म परमात्मा में दृढता पूर्वक स्थिर करके, बाह्य इंद्रियों को उनके विषयों से हटाकर, उनके केंद्रों में स्थिर करो। शरीर को निश्चल रखते हुए उसके प्रति निश्चिन्त हो जाओ। इस प्रकार आत्मा और परमात्मा की ऐक्यानुभूति के साथ अहिर्निश मन ही मन ब्रह्मानंद रस का पान करो, अन्यान्य व्यर्थ की बातों से क्या लाभ?


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