काया पर समग्र नियंत्रण की दिव्य क्षमता

February 1983

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अपनी काया पर मनुष्य का सीमित नियन्त्रण है। इच्छानुसार हाथ पैर भर चलाने के लिए वह स्वतन्त्र है। मोटेतौर पर खाने कमाने जैसे कार्यों में ही कोई व्यक्ति अपने शरीर पर नियन्त्रण कर पाता है। आहार, व्यायाम, खेल-कूद दौड़ आदि के सहारे वह पहलवान जैसा भी कुछ बन सकता है। इससे आगे की अवयवों की भीतरी क्रिया-पद्धति पर उसका प्रत्यक्ष नियन्त्रण कुछ नहीं। रक्त संचार, आकुँचन-प्रकुँचन, निमेष-उन्मेष, श्वास प्रश्वास जैसी क्रियाएँ अचेतन मन के द्वारा संचालित होती हैं। इस पर इच्छा शक्ति का नगण्य जितना ही नियन्त्रण रहता है। इन्हें स्वसंचालित संस्थान द्वारा अपने सहज क्रम में नियमित रूप से संचालित किया जाता रहता है, चाहे व्यक्ति चाहे अथवा न चाहे। यह ढर्रा अभ्यस्त चेतना संस्थान द्वारा अविज्ञात रूप से गतिशील बना रहता है। सामान्य स्थिति में इसे रोकना या घटाना-बढ़ाना किसी के अपने हाथ में नहीं होता।

यदि इस क्षेत्र का नियमन-संचालन जागृत मस्तिष्क में काम करने वाली इच्छा शक्ति के हाथों हो सके तो ऐसे व्यक्ति को शरीर का पूर्ण स्वामी कहा जा सकता है। तब वह भीतर क्रियाओं को घटाने-बढ़ाने में ही नहीं, उनकी दिशाधारा बदलने में भी समर्थ हो सकता है। ऐसा व्यक्ति रुग्णता की व्यथा को अपने मनोबल से हटा सकता है। जराजीर्ण अवयवों का काया कल्प कर सकता है। मृत्यु की घड़ी टाल सकता है। प्रसुप्त शक्ति भण्डारों को जगा सकता है। अतीन्द्रिय क्षमताओं का धनी हो सकता है और शरीर क्षेत्र में ऐसे पराक्रम कर सकता है जिसे कई सामान्य लोगों के लिए असम्भव ही कहे जायेंगे।

शरीर पर नियन्त्रण करने वाली इस क्षमता को कई बार अविश्वासियों को विश्वास दिलाने के लिए- प्रमाण परीक्षण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसका उद्देश्य यह सिद्ध करना है कि मानवी संकल्प बल के लिए यह सम्भव है कि कोई अपने शरीर की भीतरी, अविज्ञात एवं प्रसुप्त क्षमताओं को प्रखर बनाकर दूसरों की तुलना में अधिक समर्थ सिद्ध हो सके।

शरीर में अगणित सामर्थ्य भरी पड़ी हैं। वे प्रसुप्त स्थिति में रहती हैं। उन तक सामान्य इच्छा शक्ति की पहुँच नहीं होती। पर यदि प्रयत्नपूर्वक वैसी सामर्थ्य उत्पन्न की जा सके तो व्यक्ति अपने में असाधारण क्षमता की अभिवृद्धि अनुभव करेगा और जितना कुछ सामान्य व्यक्ति कर पाते हैं, उसकी तुलना में असंख्यों गुना अधिक कर सकेगा।

यही बड़ी सफलता है। इसे कौतूहल प्रदर्शन की बाजीगरी न समझी जाय। प्रदर्शन तो मात्र तथ्यों से अवगत होने एवं विश्वस्त मानने मनवाने के लिए किये जाते हैं। उपयोगिता यह है कि जिस काया की स्वल्प क्षमता का ही उपयोग होता रहता है, यदि उस पर अधिकाधिक अधिकार पाया जा सके तो व्यक्ति की विशिष्टता सिद्ध पुरुषों जैसी हो सकती है। अणिमा, महिमा आदि सिद्धियों के अधिष्ठाता ऐसे ही लोग होते हैं और वे असाधारण स्तर के पुरुषार्थ करके न केवल स्वयं लाभान्वित होते हैं वरन् उस उपलब्धि का एक छोटा अंश दूसरों की सहायता के लिए देकर पुण्य परमार्थ के भागी बन सकते हैं। काया पर असाधारण नियन्त्रण कर सकने के कितने ही प्रमाण समय-समय पर मिलते रहते हैं।

सन् 1837-38 की बात है। डा. मैक ग्रेगर नामक एक अंग्रेज भारतीय योग विद्या का चमत्कार देखना चाहता था। अतः उसने इसका जिक्र महाराजा रणजीत सिंह से किया। सन्त हरदास महाराजा रणजीत सिंह के गुरु थे। उन्होंने उनसे योग विद्या का कोई चमत्कार दिखाने का निवेदन किया। सन्त हरिदास इसके लिए तैयार हो गये और 40 दिनों तक उन्होंने निराहार भूमिगत रहने का निश्चय किया। इसके लिए जमीन में एक बड़ा गड्ढा खोदा गया। सन्त हरिदास ने मुख को छोड़कर सारे इन्द्रिय द्वार मोम से बन्द कर लिये। अन्त में जीभ को तालू-कण्ठ से लगाकर मुख से जाने वाली श्वास का मार्ग भी बन्द कर दिया। फिर एक काष्ट सन्दूक में बन्द हो गये। सन्दूक में ताला लगाकर उसे सील बन्द कर दिया गया। तत्पश्चात् उसे गड्ढे में डालकर ऊपर से मिट्टी ढक दी गयी और सीमेंट से प्लास्टर कर दिया गया। 40 दिन बाद जब सन्दूक को खोला गया तो सन्त हरिदास शान्त प्रसन्न मुद्रा में बैठे मिले। उनकी शरीर परीक्षा की गई। नाड़ी हृदय में किसी प्रकार का स्पन्दन नहीं था। समस्त शरीर अत्यन्त ठण्डा था। गर्मी थी तो सिर्फ सिर पर चोटी वाले स्थान में। परीक्षण के बाद कान-नाक से मोम निकाल ली गई और गुनगुना पानी सम्पूर्ण शरीर पर छिड़का जाने लगा। धीरे-धीरे चेतना लौटने लगी। हृदय धड़कने लगा और नाड़ियाँ चलने लगीं। थोड़ी देर में सन्त हरिदास उठकर खड़े हो गये। अभी भी उनके चेहरे पर पूर्ववत् चमक विद्यमान थी। वहाँ उपस्थित सभी सज्जन यह देख आश्चर्यचकित रह गये।

‘हिस्ट्री ऑफ दि सिख्स’ पुस्तक में इस घटना का उल्लेख करते हुए डा. मैक ग्रेगर ने लिखा है- “श्वास-प्रश्वास को बन्द कर जीवित रहना एक विलक्षण बात है। दीर्घ कालीन उपवास का उन साधु महाराज पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। उनके चेहरे पर चमक और प्रसन्नता में कोई अन्तर नहीं आया था।”

इसी प्रकार सन्त हरिदास ने दूसरी समाधि सन् 1838 में पटियाला नरेश के समक्ष ली थी। समाधि की प्रक्रिया तो पहली ही जैसी थी, किन्तु भूमिगत रहने की अवधि इस बार दस महीने की थी। समाधि के बाद सम्पूर्ण खेत में जौ की बोआई कर दी गई, ताकि यदि हरिदास जमीन से बाहर निकलें तो पता चल जाय। नियत अवधि के बाद गड्ढा खोदा गया और सन्दूक को बाहर निकाला गया। सन्दूक खोलने पर इस बार भी उनकी वही स्थिति पायी गयी जैसी आरम्भिक समाधि में थी। इस बार भी वे थोड़ी ही देर में सामान्य स्थिति में आ गये। फिर तोपें दागकर उनका सम्मान किया गया और बहुमूल्य उपहार भेंट किये गये। कैप्टन ओस बर्न ने इस घटना का उल्लेख अपनी पुस्तक “रणजीतसिंह” में बड़े भावपूर्ण शब्दों में करते हुए लिखा- “भारतीयों के पास ऐसा अलभ्य ज्ञान और विलक्षण क्षमताएँ हैं जो अलौकिकता और भौतिकता से बढ़कर हैं। अन्यथा इसे प्राप्त करने के लिए वे इतने कठोर तप और योगाभ्यास न करते।”

“हारवर्ड इन्स्टीट्यूट फार साइकिक एण्ड कलचर रिसर्च” की ओर से डा. थेरेस ब्रोसे अपने दल के साथ भारत में योग विलक्षणता की शोध करने आई थीं। उन्होंने समाधिस्थ योगियों के शरीरों की उसी स्थिति में पूरी-पूरी जाँच की और पाया कि वे लगभग मृत स्थिति में पहुँचने पर भी सामान्य स्थिति में जीवित रह रहे हैं और उनके शरीर में कोई अवाँछनीय स्थिति उत्पन्न नहीं हो रही है। इस सम्बन्ध में आगे के अनुसन्धान करने के लिए श्रीमती ब्रोसे एक फ्राँसीसी शरीर विज्ञानी डा. माइलोवेनोविच के साथ भारत आई थीं, उन्होंने इस सम्बन्ध में अपने शेष सन्देहों को भी दूर कर लिया। कुछ समय के लिए दिल की धड़कन बिल्कुल बन्द कर लेने का दावा भी उनने सही पाया। ऐसे योगी तो बहुत से हैं जो सामान्यतया प्रति मिनट 72 बार की धड़कन को घटाकर 60 की संख्या तक शिथिल कर लेते हैं। तीन दिन से लेकर 28 दिन तक बिना साँस लिए, बिना अन्न जल ग्रहण किये, बिना मल-मूत्र विसर्जन किये- समाधिस्थ रहने वाले योगियों में से भी अधिकाँश के दावे सही पाये गये। उनके संज्ञा शून्य होने की बात उनका हाथ बर्फ में दबाये रहने और आग का स्पर्श करने पर भी खरी उतरी। एक योगी संकल्प बल से जिस भी अंग से कहा जाय उसी से पसीना निकाल देते थे। लन्दन में एक भारतीय योगी ने सन् 1928 में एक सार्वजनिक प्रदर्शन किया था। उसने नाड़ी की गति को न्यूनतम 20 और अधिकतम 120 करके डाक्टरों को आश्चर्यचकित कर दिया था। वह अपनी माँस-पेशियों और त्वचा को इतनी कड़ी कर लेता था कि सामान्य हथियार के प्रभाव का भी उन पर कुछ प्रभाव न पड़े।

पचास के दशक की बात है। मिशिगन विश्व विद्यालय के चिकित्सा संस्थान ने समाधि की स्थिति में शरीर और मन की स्थिति का विवेचन करने के लिए एक भारतीय योगी शान्तानन्द को चुना था। प्रयोगशाला में उनकी समाधि स्थिति का अनेक यन्त्रों से परीक्षण किया गया था उससे निष्कर्ष निकला कि उस अवस्था में शरीर की आन्तरिक हलचलें अत्यन्त न्यून हो जाती हैं- मस्तिष्क मूर्च्छा स्थिति में चला जाता है। फिर भी शरीर में सड़न अथवा विघटन की कोई बुरी प्रक्रिया आरम्भ नहीं होती। यहाँ तक कि विभिन्न छिद्रों से निसृत होते रहने वाले मलों में प्रक्रिया रुक जाने से भी कोई विषाक्त प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता। भूमि समाधि की घटनाओं में से एक परीक्षण उदयपुर आयुर्विज्ञान महाविज्ञान के प्राँगण में ली गई एक समाधि का हुआ था। डाक्टरों ने समाधि से पूर्व विविध परीक्षाएँ लीं। योगी के शरीर के साथ ‘इलेक्ट्रो कार्डियोग्राफ’ ‘पॉली ग्राफ’ आदि कई यन्त्र फिट किये गये और उनका लेखा-जोखा बाहर निरन्तर अंकित होता रहे ऐसी व्यवस्था की। आठ दिनों बाद समाधि खोली गई योगी मूर्च्छित था। उसका तापमान 87.6 था जबकि सामान्यतया 98.4 होता है। निर्धारित निर्देशों के अनुसार गरम पानी से स्नान कराया गया और मालिश की गई तो चेतना फिर लौट आई।

‘हवा में उड़ने वाले साधु’ के रूप में विख्यात ‘जोसेप’ का जन्म 1603 में इटली के कापरटिनों नामक स्थान पर हुआ था। पिता बढ़ई का काम करते थे। उनके काम में कोई रुचि न रख यह अनूठा बालक बचपन से ही अन्तर्मुखी अध्यात्म प्रधान अभिरुचि का था। पूजा वेदी के समक्ष वह घण्टों बैठा रहता था। एक दिन वह चर्च में प्रार्थना कर रहा था कि उसने एक तीव्र गर्जना की और हवा में ऊपर उठ गया। उठकर वह हवा में तैरने लगा। थोड़ी देर की उड़ान के बाद वह पूजा की वेदी पर उतरा जो कि जलती मोमबत्तियों व पुष्पों से सुसज्जित थी। पुनः गर्जना के साथ वह वहाँ से उड़ा तथा पहले वाले स्थान पर घुटने टेककर उतर आया और पुनः प्रार्थना आरम्भ कर दी। उसके इन चमत्कारों की चर्चा बड़ी तेजी से फैली। बेरिकन में पोप के दर्शन को जब वह गया तो वहाँ अंकित चित्रों को देखते ही वह हवा में उड़ने लगा तथा समीप जा-जाकर माइकेल एन्जेलों की कलाकृतियों को देख हर्षित हो चीत्कार करने लगा। पोप के नीचे उतरने के आदेश पर वह नीचे उतर आया व घुटने टेककर प्रार्थना में मग्न हो गया। अकेले ही नहीं उसने कभी अपने पिता के साथ, कभी भाइयों को लेकर भी उड़ानें भरीं। चिकित्सा के रूप में बाद में ख्याति प्राप्त जोसेप चमत्कारी चिकित्सा कर कई मनोरोगियों को स्वास्थ्य लाभ दे सकने में सफल हुआ। इसके पीछे क्या रहस्य था कोई जान नहीं पाया।

एक बार वाराणसी के 300 वर्षीय दिगम्बर योगी श्री तैलंग स्वामी को पकड़ने के लिए पुलिस को निर्देश मिले क्योंकि वे नंगे घूमते थे। पुलिस के जवान उन्हें ढूँढ़ते हुए मणिकर्णिका घाट पर पहुँचे। जब पुलिस दो गज थी, तभी तैलंग स्वामी उठे और दौड़कर गंगाजी में कूद पड़े। तभी पुलिस बाहर प्रतीक्षा करती रही- किन्तु स्वामी जी बाहर न निकले। अगले दिन वे घूमते पाये गये। स्वामी को किसी ने कुछ खाते नहीं देखा था फिर भी उनका वजन प्रति वर्ष 1 पौण्ड बढ़ जाता था। 300 वर्ष की अवस्था में उनका वजन 300 पौण्ड हो गया था। दूसरे दिन पुनः पुलिस ने उन्हें वहीं देखा। पुलिस को देखकर वे पुनः गंगाजी की ओर भागे लेकिन इस बार उन्होंने डुबकी नहीं लगाई अपितु जल के ऊपर से ही दौड़ते हुए उस पार निकल गये।

उपरोक्त उदाहरण रहस्य रोमाँच के आख्यान मात्र नहीं हैं वरन् मानवी संकल्प शक्ति की वरीयता, अद्भुतता के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। यह सामर्थ्य पिण्ड के एक-एक घटक में कूट-कूट कर भरी गयी, इन सिद्धियों का प्रयोग मानव की असामान्यता बताने व असीम सम्भावनाओं की ओर इशारा करने मात्र के लिए ही होता रहा है। मानवी संकल्प बल कितना महान है, कितना कुछ कर सकता है, इसे साधारण जन भी समझ सकें तो अपने सामान्य जीवन क्रम में ही बहुत कुछ ऐसा किया जा सकता है जिसे अद्भुत कहा जा सके।


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