“यज्ञ” भारतीय दर्शन का इष्ट आराध्य

February 1983

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अध्यात्म विज्ञान के तत्व दर्शन एवं क्रिया प्रयोजन के दोनों ही पक्ष यज्ञ विधा से सम्बन्धित हैं। कठोपनिषद् में यम नचिकेता संवाद में जिन पंच प्राणाग्नियों का विवेचन हुआ है वे अग्निहोत्र से सर्वथा भिन्न प्राण परिष्कार की चिंतनपरक दिशा धाराएँ हैं। मीमाँसा, सूत्र-ग्रन्थ, ब्राह्मण एवं आरण्यकों में ‘यज्ञ’ शब्द यजन कृत्य के साथ सम्बद्ध है। जीवन यज्ञ का तात्पर्य है। चिन्तन और चरित्र को पवित्र एवं प्रखर बनाना। अग्निहोत्रों का तात्पर्य ऐसी ऊर्जा उत्पन्न करना है जो न केवल शरीर को ओजस्, मन को तेजस् आत्मा को वर्चस् दे सके वरन् इस प्रकृति ब्रह्माण्ड में भी अनुकूलताओं का अनुपात बढ़ा सके।

यज्ञ में अग्नि का प्रयोग होता है इस परम्परा में शास्त्रकारों ने यह भी स्पष्ट किया है कि इस ब्रह्माण्ड में अग्नि के अनेक स्वरूप हैं। वे सभी अपने-अपने प्रयोजन के लिए समर्थ शक्तिमान हैं। किन्तु ‘यज्ञाग्नि’ उनमें विशिष्ट है। वह जलनशील होते हुए भी आध्यात्मिक विशेषताओं से सम्पन्न होती है और देव संज्ञा में गिनी जाती है। यजन पूजन उसी का होता है और वही याजक की पवित्रता प्रखरता का संवर्धन करती हुई अभीष्ट सत्परिणाम प्रदान करती है।

अग्नि देव का भारतीय देव मण्डल के प्राचीनतम सदस्य के रूप में वैदिक संहिताओं और ब्रह्माण्ड ग्रन्थों में महत्वपूर्ण स्थान है। अग्नि के तीन स्थान और तीन मुख्य रूप जाने जाते हैं- (1) व्योम में सूर्य, (2) अन्तरिक्ष (मध्याकाश) में विद्युत और (3) पृथ्वी पर साधारण अग्नि रूप।

ऋग्वेद में सबसे अधिक सूक्त अग्नि की स्तुति में ही अर्पित किए गए हैं। अग्नि के आदिम रूप संसार के प्रायः सभी धर्मों में पाए जाते हैं। वह ‘गृहपति’ है और परिवार के सभी सदस्यों से उसका स्नेहपूर्ण घनिष्ठ सम्बन्ध है। (ऋ. 2. 1. 9; 7. 15. 12; 1. 1. 9; 4. 1. 9)। वह अन्धकार, निशाचर, जादू-टोना, राक्षस और रोगों को दूर करने वाला है (ऋ. 3. 5. 1; 1. 64. 5; 8. 43. 32; 10. 88. 2)।

अग्नि का यज्ञीय स्वरूप मानव सभ्यता के विकास का लम्बा चरण है। परिपाक और शक्ति-निर्माण की कल्पना इसमें निहित है। यज्ञीय अग्नि वेदिका में निवास करती है (ऋ. 1.140.1)। वह समिधा, सोम और धृत से शक्तिमान् होता है। (ऋ. 3. 5. 10; 1. 64. 14); वह मानवों और देवों के बीच मध्यस्थ और सन्देश वाहक है (ऋ. वे. 1, 26. 9; 1. 94. 3; 1. 59. 3; 1. 59. 1; 7. 2. 1; 1., 58. 1; 7. 2. 5; 1. 27. 4; 3. 1. 17; 10. 2. 1; 1. 12. 4 आदि)। अग्नि की दिव्य उत्पत्ति का वर्णन भी वेदों में विस्तार से पाया जाता है। (ऋ. 3. 9. 5; 6. 8. 4)। अग्नि दिव्य पुरोहित है (ऋ. 2. 1. 2; 1. 1. 1; 1. 94. 6)। वह देवताओं का पौरोहित्य करता है। वह यज्ञों का राजा है (राजा त्वमध्वराणाम्; ऋ. वे. 3. 1. 18; 7. 11. 4; 2. 8. 3; 8. 43. 24 आदि।

नैतिक तत्वों से भी अग्नि का अभिन्न सम्बन्ध है। अग्नि सर्वदर्शी है। उनकी 100 अथवा 1000 आंखें हैं जिनसे वह मनुष्य के सभी कर्मों को देखता है (ऋ. 10. 79. 5)। उसके गुप्तचर हैं। वह मनुष्य के गुप्त जीवन को भी जानता है। वह ऋत का संरक्षक है। (ऋ. 10. 8. 5)। अग्नि पापों को देखता और पापियों को दण्ड देता है। (ऋ. 4. 3. 5-8; 5. 4-5)। वह पाप को भी क्षमा करता है। (ऋ. 7. 03. 7)।

अग्नि की तुलना बृहस्पति और ब्रह्मणस्पति से भी की गई है। वह मन्त्र, घी (बुद्धि) और ब्रह्म का उत्पादक है। इस प्रकार का अभेद सूक्ष्मतम तत्व से दर्शाया गया है। वैदिक साहित्य में अग्नि के जिस रूप का वर्णन है उससे विश्व व्यवस्था के वैज्ञानिक और दार्शनिक पक्ष पर काफी प्रकाश पड़ता है।

वेदों को भारतीय तत्वज्ञान का उद्गम स्रोत माना गया है। उनमें श्रद्धा, निष्ठा और प्रज्ञा के तीनों दिव्य तत्वों की गरिमा तथा उपलब्ध करने की प्रक्रिया समझाई गई है। वेद त्रयी ही- त्रिपदा गायत्री है। इन्हीं के प्रतिपादन सत्-चित आनन्द, सत्य, शिव, सुन्दर एवं ज्ञान भक्ति कर्म कहलाते हैं। यह वेद ज्ञान त्रिविधि होते हुए भी त्रिवेदी संगम की तरह एक ही केन्द्र पर केन्द्रित होता है और वह है- यज्ञ। संक्षेप में वेदों का विस्तृत विवेचन विस्तार ‘यज्ञ विद्या’ को समझने समझाने के लिए हुआ है। ऋग्वेद प्रथम वेद है उसके प्रथम मन्त्र में यज्ञाग्नि को पुरोहित की संज्ञा दी है और उसके ऋत्वजों को देव कहते हुए रत्न राशि में परिपूर्ण होने वाले सौभाग्यशाली बताया है। स्पष्ट है कि यज्ञ ही वेद ज्ञान का इष्ट आराध्य है।

‘विद् ज्ञाने’ धातु निष्पन्न ‘वेद’ शब्द का तात्पर्य ‘ज्ञान’ के भाण्डागार से होता है। वेदों में जिस ‘ज्ञान’ का प्रतिपादन है, उसका प्रमुख माध्यम ‘यज्ञ’ है। ‘यज्ञ’ के प्रयोजन से ही वैदिक ज्ञान आविर्भूत हुआ है, दूसरे शब्दों में हम यों कह सकते हैं कि वेद का ज्ञान पक्ष यज्ञों में ओत-प्रोत है।

वैदिक ज्ञान का जो प्रतिनिधित्व ‘यज्ञ’ करता है, उसका सार संक्षेप इस शब्द में ही समाविष्ट है। ‘यज्’ धातु से निष्पन्न ‘यज्ञ’ शब्द के तीन अर्थ होते हैं -

1.देव-पूजा, 2. संगतिकरण और 3. दान।

अपने से बड़ों के प्रति सम्मान की भावना रखना- ‘देवपूजन’ कहलाता है क्योंकि अपने से बड़े व्यक्ति देव तुल्य होते हैं। अपने से बराबर के व्यक्ति मित्र तुल्य होते हैं उनसे संगति करना- उनसे मित्रवत् व्यवहार करना भी ‘यज्ञ’ कहा जायेगा। साथ ही अपने से छोटों को कुछ देना भी ‘यज्ञ’ है। छोटे कुछ न कुछ पाने के अधिकारी होते हैं, उनके प्रति दान देते रहने की भावना यज्ञ कही जायेगी। अन्य कर्मों की तुलना में यज्ञ कर्म की श्रेष्ठता इस आधार पर प्रतिपादित हुई है। शतपथ, ब्राह्मण में कहा गया है-

‘यज्ञो वे श्रेष्ठतमं कर्म।’ (शतपथ. 1। 7।45)

अर्थात्- ‘यज्ञ श्रेष्ठतम कर्म है।’ दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि जितने भी श्रेष्ठतम कर्म हैं, वे सब ‘यज्ञ’ ही हैं।

वेदों में जो कुछ कहा गया है उसे संक्षेप में ‘श्रेष्ठ’ का प्रतिपादन कह सकते हैं। यही यज्ञ का तत्वज्ञान भी है। जीवन यज्ञ एवं दिव्य ऊर्जा उत्पादन के दोनों ही प्रकरण इसी परिधि में आते हैं।

शास्त्रों में वर्णन आता है-

वेद्यर्थ पृथिवी सृष्टा सम्भारार्थ तथैव च। इहं मार्थमथ यूपार्थ बह्मा चक्रे वनस्पतिम्॥ -महा. अश्व अ. 92

अर्थात्- यज्ञ की वेदी निर्माणार्थ तथा सभी सामग्री धारण करने के लिए पृथ्वी की रचना की गयी है तथा समिधा और यूप के लिए वनस्पतियों को पैदा किया गया है।

इदं तु सकलं द्रव्यं दिवि वा भुवि वा प्रिये। यज्ञार्थ विद्धि तत् सष्टं लोकानां हित काम्यया॥ -महा. अनु. पर्व अध्याय 145

अर्थात्- यह जो सम्पूर्ण द्रव्य स्वर्ग लोक या पृथ्वी में दिखाई पड़ रहा है, उसको लोगों की भलाई के लिए यज्ञ निमित्त रचा गया समझो।

संक्षेप में ज्ञान सम्पदा और कौशल एवं पदार्थ सम्पदा का श्रेष्ठतम उपयोग यज्ञ प्रयोजनों की पूर्ति के लिए ही भगवान ने किया ऐसा समझा जाना चाहिए। भारतीय तत्वज्ञान आचार शास्त्र एवं क्रिया कलाप का केन्द्र बिन्दु ‘यज्ञ’ को ही माना गया है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118