आइये! अपनी विस्मृत धरोहर का स्मरण करें

February 1983

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पिण्ड और ब्रह्माण्ड का, चेतना और जड़ का, पृथ्वी और अन्तरिक्ष का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध दर्शाने वाले अनेकों मन्त्र, सूत्र धर्म ग्रन्थों में मिलते हैं। वेद में वर्णन है-

“सूर्यो मे चक्षुर्वातः प्राणोऽन्तरिक्षमात्या पृथ्वी शरीरम्। अस्तृतोनामाहमयस्मि स आत्मानं निदधैद्यावपथिव्यां गोपीथाय॥” -अथर्व 5।8।7

अर्थात्- सूर्य मेरा नेत्र है, वायु मेरा प्राण है, अन्तरिक्ष मेरी आत्मा (हृदय) और धरती मेरा शरीर है। मैं अपने आपको अपराजित समझकर द्यु लोक और धरती के मध्य सुरक्षित रखता हूँ।

इसी प्रकार यजुर्वेद में भी कहा गया है-

“शीर्ष्णोद्यौः समवर्ततः यस्य वातः प्राणाप्राणौः नाभ्याऽसीदन्तरिक्षं दिशः श्रोत्रं पदभ्या भूमिः।”

अर्थात्- द्यौ मेरा सिर, वायु, प्राण, अन्तरिक्ष नाभि, दिशा कान और भूमि मेरे पैर हैं।

इन ऋचाओं में जहाँ पिण्ड की असीम ब्रह्माण्डीय शक्ति का परिचय मिलता है वहीं शरीर, अन्तरिक्ष की विभिन्न शक्तियों के आपसी तारतम्य पर प्रकाश डाला गया है। मन्त्रों के उद्गाता ऋषि इस तथ्य से भलीभाँति परिचित थे कि मनुष्य का एकाकी पुरुषार्थ ही सब कुछ नहीं है। न ही पृथ्वी पर उपलब्ध सम्पदाएँ उसकी स्वयं की हैं। अपनी धुरी पर घूमती अपनी कक्षा में दौड़ लगाती आत्म निर्भर दीखती भर है, पर वास्तविकता वैसी है नहीं। सौर परिवार के सदस्यों की आकर्षण शक्ति उसे एक व्यवस्था क्रम में जकड़े रहती है। उनमें असन्तुलन उत्पन्न होते ही किसी भी ग्रह-नक्षत्र के एक-दूसरे से टकरा जाने से स्वयं मरने और दूसरे को मारने का खतरा उत्पन्न हो जायेगा। यों तो सौर परिवार के प्रत्येक सदस्य परस्पर एक-दूसरे से न्यूनाधिक अनुदान प्राप्त करते हैं। इस दृष्टि से पराश्रित तो सभी ही हैं, पर पृथ्वी की जो स्थिति है उसमें उसके स्वयं का उपार्जन कम और अंतर्ग्रही अनुदान अधिक है।

भू वेत्ताओं का मत है कि अन्तरिक्ष से अनुदान उत्तरी ध्रुव से होकर आता है। उत्तरी ध्रुव का विचित्र चुम्बकत्व अपने उपयोग की आवश्यक वस्तुएँ अनन्त अन्तरिक्ष से खींचता रहता है। यदि यह अनुदान का क्रम रुक जाय तो पृथ्वी अपनी निज की सम्पदा द्वारा प्राणियों एवं वनस्पतियों की रक्षा कर पाने में भी अक्षम सिद्ध होगी। पृथ्वी पर जीवन, ऊर्जा, ताप, प्रकाश, प्राण जैसी विशेषताएँ सूर्य से प्राप्त होती हैं। ऋतुओं का आना उनमें परिवर्तन सौर गतिविधियों द्वारा संचालित है। सूर्य अपने अनुदान समेट ले तो भू-तल पर बिखरा वैभव देखते-देखते तिरोहित हो जायेगा और श्मशान की निस्तब्धता छा जायेगी।

उपरोक्त विश्लेषण से यह रहस्योद्घाटन होता है कि व्यक्ति और समाज की भाँति ग्रह-नक्षत्र भी एक-दूसरे पर आश्रित हैं और पारस्परिक आदान-प्रदान द्वारा अपना काम चलाते हैं। सौर-मण्डल ही नहीं समूचा ब्रह्माण्ड ही इस नियम व्यवस्था में जकड़ा गतिशील है और अपना अस्तित्व बनाये हुए है।

वेद की ऋचाओं से यह पता चलता है कि प्राचीन काल में ऋषि न केवल पिण्ड और ब्रह्माण्ड की एकता से सुपरिचित थे वरन् उन्हें यह भी मालूम था कि ग्रह-नक्षत्रों का गतिविधियाँ और उनमें समय-समय पर होने वाले हेर-फेर पृथ्वी के वातावरण और प्राणी जगत को प्रभावित करते हैं। ज्योतिर्विज्ञान ज्ञान की एक विज्ञान सम्मत शाखा थी जिसका उपयोग अंतर्ग्रही गतिविधियों और प्रभावों की खोजबीन करने के लिए किया जाता था। फलतः अन्तर्ग्रही अनुदानों से लाभ उठा सकना और आने वाले विक्षोभों से पूर्व सुरक्षा व्यवस्था बना लेना ज्योतिर्विज्ञान की गणनाओं द्वारा सुलभ था।

अब वह सारगर्भित और अति महत्वपूर्ण विद्या के ध्वंसावशेष ही दृष्टिगोचर होते हैं। पर जिन तथ्यों पर प्राचीनकाल के ज्योतिषाचार्य पहुँचे थे उस ओर अब विज्ञान का भी ध्यान आकर्षित हुआ है। अब यह स्वीकार किया जाने लगा है कि ग्रह नक्षत्रों का प्रभाव पृथ्वी के वातावरण और जीवधारियों पर पड़ता है। विशेषतया सूर्य में तनिक-सा भी अन्तर पड़ने पर उसकी प्रतिक्रिया तुरन्त धरातल पर दिखाई पड़ती है। तापमान घटने और बढ़ने का प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभावों से सभी परिचित हैं। अन्तरिक्ष में संव्याप्त सूक्ष्म तरंगों की स्थिति में हुए परिवर्तन पृथ्वी के अनेकों क्षेत्रों को प्रभावित करते हैं। उसका प्रकृति सम्पदा तथा प्राणियों के शारीरिक मानसिक स्थिति पर असाधारण प्रभाव पड़ता है। सूर्य और चन्द्रग्रहण के समय थोड़ा हेर-फेर होते ही उसका दूरगामी परिणाम दृष्टिगोचर होता है। चन्द्रमा की कलाएँ घटने-बढ़ने से समुद्र में आने वाले ज्वार-भाटों से सभी परिचित हैं। प्रकृति विक्षोभों, मानसून, तूफान साइक्लोन आदि की घटनाओं में धरती की परिस्थितियाँ इतना बड़ा कारण नहीं होती जितना कि सौर-मण्डल के साथ पृथ्वी के साथ चल रहे तालमेल में व्यतिक्रम।

वाराहमिहिर की गणना भारतीय मूर्धन्य ज्योतिर्विदों में होती है। उनका मत था कि चन्द्रमा की गति एवं स्थिति का मनुष्य मन के साथ घना सम्बन्ध है। चन्द्र कलाओं के उतार-चढ़ाव में मनःस्थिति प्रभावित होती है। मार्च 1980 के रीडर्स डाइजेस्ट पत्रिका में एक लेख “डज मून कन्ट्रोल योर मूड” नामक शीर्षक से प्रकाशित हुआ। लेखक ये “मियामी’ के प्रसिद्ध मनोचिकित्सक डा. लीवर। उन्होंने अपनी खोजों द्वारा जो निष्कर्ष प्रस्तुत किया वह भारतीय ज्योतिषाचार्यों के मत की ही पुष्टि करता है। डा. लीवर के अनुसार मानवीय मन की उग्रता का चन्द्र की कलाओं से घना सम्बन्ध है। यह जानना अत्यन्त महत्वपूर्ण होगा कि पृथ्वी की तरह मानव शरीर में भी 80 प्रतिशत पानी और 20 प्रतिशत ठोस पदार्थ है। पृथ्वी के 80 प्रतिशत पानी से आच्छादित समुद्र में जिस तरह चन्द्रमा के प्रभाव से ज्वार-भाटे आते हैं ठीक उसी प्रकार मनुष्य के मन-मस्तिष्क में भी उथल-पुथल होती है। सामान्यतया विशाल महासागरों में ज्वार-भाटे का प्रभाव कुछ फुट तक ही होता है जबकि खाड़ियों में उसका प्रभाव अत्यधिक देखा जाता है। इसी प्रकार सामान्य सन्तुलन मनःस्थिति वालों पर प्रभाव तो कम पड़ता है पर असन्तुलित और अपराधी विक्षुब्ध मनःस्थिति वालों पर प्रभाव अधिक पड़ता है।” इस तरह के निष्कर्ष की पुष्टि अनेकों मनः चिकित्सकों ने की है कि अपराध की घटनाएँ पूर्णिमा और अमावस्या के दिन सर्वाधिक घटती है पागलों की उग्रता इन्हीं दिनों बढ़ जाती है।

न केवल चन्द्रमा बल्कि सौर-मण्डल के अन्यान्य ग्रह भी विभिन्न प्रकार के प्रभाव पृथ्वी के वातावरण पर डालते हैं, जिनकी भली-बुरी प्रतिक्रियाएँ आये दिन दृष्टिगोचर होती हैं। जब सौर मण्डल ही नहीं ब्रह्माण्ड के प्रत्येक घटक परस्पर प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से जुड़े हुए हैं तो उनके प्रभावों का एक दूसरे पर पड़ना भी स्वाभाविक है। इस संदर्भ में काफी पूर्व अन्तरिक्ष वैज्ञानिक पैरा सेल्सस कह चुके हैं कि ग्रह-नक्षत्र हमारे इर्द-गिर्द पृथ्वी से आबद्ध हैं। उनकी गतिविधियाँ एवं प्रभावों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। उपेक्षा का अर्थ होगा मानवी भविष्य का निर्धारण करने वाली एक महत्वपूर्ण कड़ी को छोड़ देना।” ‘पास्कल’ जैसे विद्वान का मत है कि मैं ब्रह्माण्डीय एकता तथा ‘डाइसिमेट्रिक प्रभाव’ पर विश्वास करता हूँ जो प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से हर घटक को प्रभावित करते हैं।

विज्ञान के बढ़ते हुए चरण ने अन्तरिक्ष को भी अपने शोध का लक्ष्य बनाया है। ज्योतिर्विज्ञान का अधिष्ठाता भारत रहा है। इस विद्या की खोई कड़ियों को एकत्र करे और अध्ययन पर्यवेक्षण का क्रम चल पड़े तो समस्त मानव जाति के विकास के लिए एक महत्वपूर्ण सूत्र हाथ लग सकता है।


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