कुंडलिनी का निवास, स्वरूप और प्रतिफल

February 1983

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बहुमूल्य सम्पदाएँ पृथ्वी की गहराई में दबी पड़ी हैं। खनिज, कोयला, लोहा, सोना को प्राप्त करने के लिए भूमि को गहरा खोदना पड़ता है। इतने श्रम के उपरान्त ये वस्तुएँ प्राप्त हो पाती हैं। मोती सामान्य नदी-नालों नहीं समुद्र की गहराई में पाया जाता है। दुस्साहसी उन्हें करतलगत करने के लिए जीवन की बाजी लगा देते हैं। उथले पानी का पर्यवेक्षण करने वाले मछुआरे तो मछलियाँ ही प्राप्त कर पाते हैं। समुद्र के किनारे खड़े रहने वालों के हाथ पत्थर और बालू ही आता है। कीमती वस्तुओं की उपलब्धि के लिए अभीष्ट मात्रा में पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ती है और उसी अनुपात में साहस एवं मनोयोग की भी।

प्रकृति की व्यवस्था भी कुछ ऐसी है कि बड़ी सम्पदाएँ पुरुषार्थी को ही मिलें। यही कारण है कि उसने भौतिक सम्पदाओं को पृथ्वी के- समुद्र के धरातल में छिपाकर रखा है। ताकि पुरुषार्थ से हीन, आलसी और अकर्मण्य व्यक्ति उन्हीं न प्राप्त कर सके। मनुष्य शरीर को परमात्मा की सर्वोत्तम कृति माना गया है। सर्वोत्तम इन अर्थों में कि इसके विकास की असीम सम्भावनाएँ हैं। काया के अन्तरंग में शक्ति के स्रोत छिपे पड़े हैं। उन्हें जगाया एवं उपयोग में लाया जा सके तो मनुष्य असाधारण सामर्थ्य का स्वामी बन सकता है। अन्तःशक्ति स्रोतों को जगाने के लिए भी असामान्य साहस जुटाना पड़ता है। कठोर साधना पुरुषार्थ का परिचय देना होता है।

सामान्यतया शरीर उतनी ही आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाता है जितनी कि जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक है। खाने-पीने, सोने, श्रम करने सम्पत्ति उत्पादन जैसे प्रयोजन ही पूरे होते हैं। शरीर सामर्थ्य की इतने में ही इतिश्री समझा ली जाती है। शरीर के अन्तराल में शक्ति के प्रचण्ड स्रोत भी हो सकते हैं इसका अनुमान भी नहीं हो पाता। जिन्हें होता भी है वे साधना के लिए इतना पुरुषार्थ साहस एवं धैर्य नहीं जुटा पाते। फलतः असीम शक्ति के लाभों से वंचित बने रहते हैं। पेट और प्रजनन तक में ही उनका जीवन समाप्त हो जाता है। जबकि साधना के लिए साहस जुटाने वाले व्यक्ति अपने अन्तराल में प्रविष्ट करते हैं। इनका काम वैसा ही होता है जैसा कि एक वैज्ञानिक का धूल जैसे परमाणु कणों से परमाणविक ऊर्जा प्राप्त करना। फलतः शरीर के सूक्ष्म परतों में दबी शक्ति को करतलगत करके असीम शक्ति से सम्पन्न बन जाते हैं। साधक योगी इसी स्तर के होते हैं।

शरीर में अनेकों मर्म स्थान ऐसे हैं जिनका महत्व वैज्ञानिक दृष्टि से भी असाधारण है और आध्यात्मिक दृष्टि से भी। विज्ञान को अभी इन केन्द्रों के सम्बन्ध में विशेष जानकारी तो नहीं मिल पायी है, पर उनका विश्वास है कि शरीर संस्थान के संचालन में उनकी विशेष भूमिका होनी चाहिए। अध्यात्म विज्ञानवेत्ता इन मर्मस्थलों की शक्ति से परिचित रहे हैं। उनके जागरण का उपाय विभिन्न योग ग्रन्थों में दिया गया है।

ऐसे मर्मस्थलों में मेरुदण्ड शरीर का प्रमुख स्थान है। यह शरीर की आधारशिला है। मेरुदण्ड छोटे-छोटे तैंतीस अस्थि खण्डों से मिलकर बना है। योगियों को प्रत्येक खण्डों में ऐसी विशेष शक्तियाँ परिलक्षित होती हैं जिनका सम्बन्ध दैवी शक्तियों से है। देवताओं में जिन शक्तियों का केन्द्र होता है वे शक्तियाँ भिन्न-भिन्न रूप में इन अस्थि खण्डों में पाई जाती हैं। इसलिए यह निष्कर्ष निकाला गया कि मेरुदण्ड तैंतीस देवताओं का प्रतिनिधित्व करता है। आठ वसु, बारह आदित्य, ग्यारह रुद्र, इन्द्र और प्रजापति इन तैतीसों की शक्तियाँ उसमें बीज रूप में उपस्थित रहती हैं। पुराणों में देवताओं का निवास स्थान सुमेरु पर्वत बताया गया है वह वस्तुतः मेरुदण्ड ही है। उसके तैंतीस गुटके, तैंतीस देवता हैं।

इस पोले मेरुदण्ड में शरीर विज्ञान के अनुसार अनेकों नाड़ियाँ हैं और वे विविध कार्यों में नियोजित रहती हैं आध्यात्मिक विज्ञान के अनुसार उनमें प्रमुख तीन नाड़ियाँ हैं। इड़ा पिंगला और सुषुम्ना। इन तीनों को मेरुदण्ड को चीरने पर प्रत्यक्ष आँखों से तो नहीं देखा जा सकता क्योंकि उनका अस्तित्व सूक्ष्म है और सूक्ष्म जगत से सम्बन्धित है। यह एक प्रकार का विद्युत प्रवाह है। जिस प्रकार बिजली से चलने वाले यन्त्रों में ऋण और धन, निगेटिव और पॉजिटिव धाराएँ दौड़ती हैं और इन दोनों का जहाँ मिलन होता है, वहीं शक्ति पैदा हो जाती है इसी प्रकार इड़ा को निगेटिव और पिंगला को पॉजिटिव कह सकते हैं। इड़ा को चन्द्र नाड़ी और पिंगला को सूर्य नाड़ी भी कहते हैं। दोनों के मिलने से जो तीसरी शक्ति पैदा होती है उसे सुषुम्ना कहते हैं। प्रयाग में गंगा और यमुना मिलती है। इस मिलन से एक तीसरी सूक्ष्म शक्तिधारा सरस्वती की विनिर्मित होती है। इन प्रकार दो नदियों के सम्मिलन से त्रिवेणी बन जाती है। मेरुदण्ड के अंतर्गत भी ऐसी अध्यात्मिक त्रिवेणी है। इड़ा पिंगला की दो धाराएँ मिलकर सुषुम्ना की सृष्टि करती हैं। इस प्रकार त्रिवर्ग बन जाता है।

यह त्रिवेणी ऊपर मस्तिष्क के मध्य केन्द्र से ब्रह्मरंध्र से सहस्रार कमल से सम्बन्धित और नीचे मेरुदंड का जहाँ नुकीला अन्त है वहाँ लिंग मूल और गुदा के बीच ‘सीवन’ स्थान के सीध में पहुँचकर रुक जाती है। यही त्रिवेणी का अन्त है। सुषुम्ना नाड़ी के भीतर एक और त्रिवर्ग है। इसके अंतर्गत भी तीन अत्यन्त सूक्ष्म धाराएँ प्रवाहित हैं। जिन्हें वज्रा, चित्रणी और ब्रह्म नाड़ी कहते हैं। ब्रह्म नाड़ी सब नाड़ियों का मर्मस्थल केन्द्र एवं शक्ति स्रोत है।

ब्रह्म नाड़ी ही मस्तिष्क के केन्द्र में ब्रह्मरन्ध्र में पहुँचकर हजारों भागों में चारों ओर फैल जाती है। इसी कारण उस स्थान को सहस्र दल कमल कहते हैं। भगवान विष्णु की शय्या सहस्र फनों पर होने का अलंकार भी उस सहस्र दल कमल से ही लिया गया है। सहस्र दल सूक्ष्म लोकों- विश्व व्यापी शक्तियों से सम्बन्धित है। यह मस्तिष्क का एरियल है जिसके द्वारा परमात्मा की अनन्त शक्तियों को सूक्ष्म लोक से पकड़ा जाता है।

मेरुदण्ड के नीचे अन्तिम भाग में सुषुम्ना के भीतर रहने वाली ब्रह्म नाड़ी एक काले वर्ण के षट्कोण वाले परमाणु से लिपटकर बंध जाती है। षट्कोण परमाणु को यौगिक ग्रन्थों में अलंकारिक भाषा में कूर्म कहा गया है। उसकी आकृति कछुए जैसी होती है। पृथ्वी कूर्म भगवान पर टिकी है। शेषनाग के फन पर अवलम्बित है। इस उक्ति का आधार ब्रह्मनाड़ी की वह आकृति है जिसमें वह इस कूर्म में लिपटकर बैठी हुई है और जीवन को धारण किए हुए है। यदि वह अपना आधार त्याग दे तो जीवन भूमि के चूर-चूर हो जाने में थोड़ी भी देरी न लगे।

कूर्म से ब्रह्म नाड़ी के गुन्थन स्थल को आध्यात्मिक भाषा में कुण्डलिनी कहते हैं। कुण्डलाकार होने के कारण ही उसका नाम कुण्डलिनी पड़ा। यह साढ़े तीन फेरे उस कूर्म में लगाये हुए है और मुँह नीचे की ओर है। कुण्डलिनी की महिमा, शक्ति एवं उपयोगिता इतनी अधिक है जितनी कि बुद्धि कल्पना भी नहीं कर सकती। भौतिक विज्ञान के अन्वेषकों के लिए परमाणु एक चमत्कार बना हुआ है। उसके तोड़ने की विधि प्राप्त हो जाने पर प्रचण्ड ऊर्जा का स्रोत वैज्ञानिकों के हाथ लग गया है। अभी तो उसकी ऊर्जा के एक अंश का विध्वंसात्मक स्वरूप देखा गया है। रचनात्मक एवं शक्ति का एक बड़ा पक्ष अछूता है। यह तो जड़ जगत के एक नगण्य से परमाणु की शक्ति की बात हुई जिसे देखकर आश्चर्यचकित हो जाना पड़ता है। फिर चैतन्य जगत का एक स्फुल्लिंग जो जड़ परमाणु की तुलना में अनन्त गुना शक्तिशाली है, कितना अद्भुत होगा यह कल्पना भी नहीं की जा सकती।

विज्ञान की शक्ति एवं उपलब्धियों से सभी परिचित हैं। योग की उपलब्धियाँ हैं ऋद्धियाँ और सिद्धियाँ। जिस प्रकार परमाणु की शोध में अनेकों वैज्ञानिक जुटे हैं उसी प्रकार पूर्वकाल के आध्यात्मिक विज्ञान वेत्ताओं, तत्वदर्शी ऋषियों ने मानव शरीर के अंतर्गत एक बीज परमाणु की अत्यधिक शोध की थी ओर उसकी असीम शक्ति से लाभ उठाया।

दो परमाणुओं को तोड़ने, मिलाने या स्थानान्तरित करने का सर्वोत्तम स्थान कुण्डलिनी केन्द्र में होता है क्योंकि अन्य सभी स्थानों के चैतन्य परमाणु गोल और चिकने होते हैं पर कुण्डलिनी में यह मिथुन के रूप में लिपटा हुआ है। जिस प्रकार युरेनियम एवं प्लूटोनियम धातु के परमाणुओं का गुन्थन ऐसे टेढ़े-तिरछे ढंग से हुआ है कि उनका तोड़ा जाना अन्य पदार्थों के परमाणुओं की अपेक्षा अधिक सरल है उसी प्रकार कुण्डलिनी स्थिति स्फुल्लिंग परमाणुओं की गतिविधि का इच्छानुकूल संचालन अधिक सुगम है। अतएव पूर्वकाल के ऋषियों ने बड़ी तत्परता से कुण्डलिनी जागरण पर शोध की। शोध के परीक्षण एवं प्रयोग के उपरांत उन्होंने इतनी सामर्थ्य प्राप्त कर ली जिसे चमत्कार समझा जाता है।

कुण्डलिनी को गुप्त शक्तियों का भण्डार-तिजोरी कहा गया है। बहुमूल्य रत्नों को तिजोरी में रखकर किसी गुप्त स्थान में रख दिया जाता है। उसमें मजबूत ताले लगा दिये जाते हैं जिससे कोई अनाधिकारी बाहरी व्यक्ति न प्राप्त कर सके। परमात्मा ने भी मनुष्य की अनन्त शक्तियों के भण्डार दिए हैं पर उन पर छह ताले लगा दिए हैं। इन्हें ही षट्चक्र कहते हैं। चक्रों के रूप में यह ताले इसलिए लगाये गये हैं कि कोई उन्हें कुपात्र न प्राप्त करले। कुण्डलिनी शक्ति पर लगे छह तालों- छह चक्रों को बेधना- खोलना पड़ता है। सामान्यतया कुण्डलिनी अस्त-व्यस्त स्थिति में मूलाधार में नीचे की ओर मुँह किए बैठी रहती है। उसे जगाने के लिए सविता की प्राण शक्ति का आश्रय लेना होता है।

गायत्री की उच्चस्तरीय साधना द्वारा मूर्छित पड़ी कुण्डलिनी महाशक्ति का जागरण किया जाता है। सविता की प्राण साधना इसी लक्ष्य की आपूर्ति करती है। कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया के साथ साधक को आत्मपरिष्कार आत्मसुधार का अवलम्बन लेना पड़ता है। दोहरे मोर्चे पर किया गया साधना पुरुषार्थ साधक के अन्तरंग को शक्ति सामर्थ्य से परिपूर्ण बनाता है। इस साधना पक्ष में लगभग उसी स्तर का मनोबल जुटाना एवं पुरुषार्थ करना होता है। जितना कि समुद्र से मोती निकाल लाने वाले गोताखोर। अंतर्निहित शक्ति स्रोतों को जागृत किया जा सके तो मनुष्य इतनी सामर्थ्य प्राप्त कर सकता है। जिसे सामान्यतया सिद्ध और चमत्कार के नाम से जाना जाता है।


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