पुरातन ज्ञान सम्पदा से भविष्य की सुसम्पन्नता

February 1983

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भौतिकी के प्रारम्भिक छात्र भी जानते हैं कि संसार में जितना भी पदार्थ विश्व संरचना के आदि में था, वह सदा सर्वदा यथावत् ही बना रहता है। न घटता है न बढ़ता। मात्र उसका रूपांतरण होता रहता है। ठोस, द्रव, भाप के रूप में उसका परिवर्तन क्रम सतत् चलता है और नया बनने, पुराना बिगड़ने की सृष्टि प्रक्रिया अपने चित्र-विचित्र रूप दिखाती, विश्व वसुधा की शोभा बढ़ाती रहती है।

ठीक इसी प्रकार विचार सम्पदा के सम्बन्ध में भी यही बात है। मनुष्य के सम्मुख कुछ मूलभूत प्रश्न हैं। कुछ सीमित इच्छाएँ, आवश्यकताएँ हैं। सोचने, खोजने समाधान निकालने के भी कुछ गिने-चुने तरीके हैं। दैत्य और देव दो विचार पद्धतियाँ उनमें से प्रमुख हैं। एक अन्य-मनस्कों, स्वल्प सन्तोषियों का भी है जिन्हें आलसी, प्रमादी, पिछड़े कहा जाता है। वे दबाव पड़ने पर ही कुछ सोचते और करते हैं। इसी छोटी-सी परिधि में मानवी चिन्तन और प्रयत्न का गतिचक्र अपनी धुरी पर परिभ्रमण करता रहा है। समयानुसार नये तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण, कारण दबाव बढ़ते-घटते रहते हैं।

पृथ्वी समेत सभी ग्रह पिण्ड गोलाकार हैं। उनकी परिभ्रमण कक्षाएँ भी न्यूनाधिक अन्तर के साथ गोलाकार ही बनी हुई हैं। जीवनक्रम भी प्रायः ऐसा ही है। बालक, किशोर, तरुण, वृद्ध, मरण यही प्राणियों का उदय-अस्त। शरीर की कोशाएँ वृद्ध होकर मरती और साथ-साथ नित नूतन जन्मती रहती हैं। मस्तिष्क का भी यही हाल है उसमें नित नये विचार उठते और पुराने विस्मृत होते रहते हैं। स्मृति विस्मृति का चक्र ही मनःक्षेत्र में पुरानी फसल कटने, नई उगने की तरह अपनी उर्वरता का परिचय देता रहता है।

मनःक्षेत्र को जीवन का उद्गम, उद्भव समझा जाना चाहिए। मनुष्य जैसा भी कुछ है जैसा भी कुछ होने वाला है, वह सब कुछ उसकी विचार सम्पदा का प्रतिफल है। इसलिए चिन्तन को यदि जीवनचर्या में सर्वोपरि स्थान मिले तो उसे न तो अनुचित कहा जाना चाहिए और न अत्युक्ति। पेट भरने के बाद मनुष्य की इच्छा आवश्यकता मनःक्षेत्र में ही उगती है। वहीं से उपलब्धियों का उपाय खोजा और प्रयत्न किया जाता है। फलतः जो भली-बुरी अनुभूतियाँ होती हैं वह भी प्रकारांतर से मस्तिष्क के हिस्से में ही आती हैं। वासना, तृष्णा, अहंता का बाह्य रूप “रसास्वादन” ठाट-बाट के रूप में भी दृष्टिगोचर हो सकता है, पर तथ्य यही है कि वह गोरख धन्धा है, मनःक्षेत्र में चलती रहने वाली उथल पुथलों का ही।

मस्तिष्क की उर्वरता में नया उपार्जन करने के लिए जरूरी है कि पुराना कूड़ा-कचरा बुहारा जाता रहे। मलत्याग न करें तो नये आहार पेट में कैसे चले? स्मृति का महत्व सभी समझते हैं। जिनकी स्मरण शक्ति तीव्र होती है उन्हें प्रशंसा पाने और विभूतियाँ हथियाने का अवसर अधिक आसानी से मिलता है। अस्तु उसकी इच्छा सभी करते हैं। पर साथ ही यह भी नहीं भुला देना चाहिए कि विस्मृति भी उतनी ही आवश्यक है। विस्मरण न हो तो मस्तिष्क पटल थोड़े ही दिनों में इतना भर चले कि उसमें नया सोचने की कहीं गुंजाइश ही न बचे। हर्ष शोक के भावावेश तो कई बार इतने उन्मादी होते हैं कि यदि वे उमंगने की स्थिति में यथावत् बने रहें, झीने न पड़ें, विस्मृत न हों तो जीवित रहना ही सम्भव न हो। उस आवेश की उद्विग्नता ही विश्रान्ति छीन ले और प्राण संकट खड़ा कर दे। क्रोध, प्रतिशोध, स्नेह, भय जैसे आवेशों के सम्बन्ध में भी यही बात है। अच्छा हुआ कि प्रकृति ने इन्हें अस्थायी बनाया अन्यथा वे जिसके पीछे लगते उन्हें अशान्त, उद्विग्न रखकर असमय ही काल का ग्रास बना देते।

स्मृति-विस्मृति की सामान्य प्रक्रिया के मध्य कई बार ऐसी आवश्यकता पड़ती है कि किन्हीं बहुमूल्य विचार सम्पदाओं को विस्मृति के गर्त से उबारकर फिर से हरा किया जाय और उस पुरातन का भी सामयिक लाभ उठाया जाय। किन्तु कठिनाई तब आती है जब विस्मृति के गर्त में उपयोगी स्मृतियों को खोज निकालना और हरी करना प्रयत्न करने पर भी सम्भव नहीं होता।

सामान्य जीवन में भी लेन-देने में भूल पड़ने से भारी कठिनाई उत्पन्न होती रहती है। उपयोगी व्यक्तियों का अता-पता भूल जाने से आवश्यकता पड़ने पर उस सूत्र के सहारे जो महत्वपूर्ण काम कर सकना सम्भव था उसकी सम्भावना समाप्त हो जाती है। कृतज्ञता भरी घटनाएँ भूल जाने से आत्मीय तक बिराने लगते हैं। संचित अनुभव याद न रहे तो मनुष्य अविकसित बालबुद्धि के छोटे क्षेत्र में ही परिभ्रमण करता रहेगा, व्यवहार कुशलता की दृष्टि से उसे गई-गुजरी स्थिति में रहना पड़ेगा।

असामान्य जीवन इससे आगे का है। मानवी अचेतन में प्रसुप्त विस्मृतियों का इतना भण्डार भरा पड़ा है कि उसे एक छोटा-मोटा ब्रह्माण्ड भी कहा जा सकता है। जिस प्रकार कोई पदार्थ नष्ट नहीं होता उसी प्रकार मानसिक उपार्जन भी किसी न किसी रूप में विद्यमान बना रहता है। इस अर्जित सम्पदा में से आवश्यकतानुसार कुछ उपयोगी खोजा और बनाया जा सके तो व्यक्ति निश्चय ही सामान्य न रहकर असामान्य स्तर का बन सकेगा।

वंशानुक्रम की परम्परा में मनुष्य को पूर्वजों की अनेकानेक पीड़ियों का संचित उत्तराधिकार उपलब्ध होता है। जन्म-जन्मान्तरों में जो सीखा गया था वह भी पूर्णतया समाप्त नहीं हो जाता। घटनाएँ इस जन्म की हों या पुराने किसी जन्म की, मनःसंस्थान में सुरक्षित रहती हैं। जगह न घिरे इसलिए प्रकृति उन्हें प्रसुप्त बना कर स्थान खाली करा देती है। मुर्दे को जमीन में गाढ़ देने पर वह दीखता भी नहीं और जगह भी नहीं घेरता फिर भी उसका पार्थिव अस्तित्व किसी न किसी रूप में चिरकाल तक बना रहता है। ठीक इसी प्रकार सार्थक और निरर्थक स्मृतियों का विपुल भण्डार मनुष्य के सीमित किन्तु वस्तुतः असीमित मनःसंस्थान में जमा रहता है।

प्रश्न यह है कि इन विस्मृतियों, अवधारणाओं में से जो उपयोगी है उन्हें किसी प्रकार हटा दिया जाय और काम में लाया जाय? यदि ऐसा हो सके तो पीड़ियों के उत्तराधिकार से और जन्म-जन्मान्तरों के स्वउपार्जन से जो समय-समय पर अर्जित होता रहा है, इतना अधिक लाभ उठाया जा सकता है कि मनुष्य सामान्य न रहे, देव मानवों की पंक्ति में जा बैठे। सिद्ध पुरुष कहा जाने लगे।

विस्मृतियों को स्मृति के रूप में बदला जा सकना सम्भव है। गर्मी में दूब सूख जाती है पर वर्षा होते ही उसे हरी होने में देर नहीं लगती। ठीक इसी प्रकार गुम गई स्मृति सम्पदा को फिर से जीवित जागृत बनाया और उसका समन्वित लाभ उठाया जा सकता है। इस तथ्य को अब वैज्ञानिक समर्थन प्राप्त होने लगा है। उससे पूर्व पुनर्जन्म की घटनाओं में बताये जाने वाले विवरण दैवी चमत्कार मानकर उपेक्षित कर दिये जाते थे। अब नये सिरे से यह सोचा जाने लगा है कि नया ज्ञान प्राप्त करने को ही पर्याप्त क्यों माना जाय और क्यों न विस्मृत बहुमूल्य को पुनर्जागृत करके विलक्षण बनाया जाय। इस आकाँक्षा को उत्तेजित करने में विज्ञान की नवीनतम शोधें बहुत सहायक सिद्ध हो रही हैं।

स्मृति एक जटिल प्रक्रिया तन्त्र है जिसे जानने के लिए न्यूरोएनाटॉमिस्ट, साइकोलॉजिस्ट, मालिक्यूलर, बायोलाजीस्ट एवं वायोकेमीस्ट वर्ग ने अनेकों प्रयास किए हैं। इन विभिन्न तथ्यों में से निष्कर्ष यह निकाला गया है कि स्मृति दो प्रकार की होती है (1) क्षणिक स्मृति जो कुछ ही क्षणों तक याद रहती है जैसे टेलीफोन डायरेक्टरी में नम्बर देखने के बाद डायल घुमाने तक याद रहना। फिर आदमी सामान्यता उसे भूल जाता है, बशर्ते वह नम्बर नियमित अभ्यास में न हो। (2) दीर्घकालीन स्मृति जो संचित बनी रहती है व समय आने पर कुरेद-बीन करने पर उभर आती है। मस्तिष्कीय ज्ञान-तन्तुओं में विद्यमान आर.एन.ए. (राइबो न्यूकलिक अम्ल) स्मृति के स्वरूप के आधार पर विभिन्न प्रकार के ‘ब्रेन स्पेसिफिक प्रोटीन्स’ बनाने का आदेश देता है। इस रासायनिक परिवर्तन के कारण मस्तिष्क में घटनाएँ टाइप की तरह स्थायी रूप से लिख जाती हैं। वही प्रसंग पुनः आने पर वे घटनाएँ याद आ जाती हैं।

विस्मृति को स्मृति में बदलने के लिए सम्मोहन प्रक्रिया द्वारा मदद ली जा सकती है। रेडक्लीफ नामक एक मनोवैज्ञानिक ने एक घटना का अपने संस्मरणों में वर्णन किया है। किसी साहूकार ने एक मिस्त्री से घर की दीवार में खजाना गाड़ने के लिए एक गुप्त स्थान बनवाया। सम्पत्ति वहाँ रखकर दीवार चुन दी गयी। कालान्तर में साहूकार की मृत्यु हो गयी। धन की आवश्यकता पड़ने पर पुत्र ने मिस्त्री को बुलवाया तथा वह स्थान बताने को कहा। संयोगवश मिस्त्री लाख कोशिश करने पर भी विस्मृति के कारण वह स्थान न बता पाया। अत्यन्त एक जानकार परिचित के माध्यम से उसे सम्मोहित किया गया। वर्षों पूर्व की वह घटना उसे याद हो आई एवं उसी स्थिति में अनायास ही वह उस स्थान पर पहुँच कर इशारा करने लगा। खोदने पर वहाँ खजाना मिल गया।

डा. विल्डर पेनफील्ड ने ब्रेनसर्जरी में अपने समय में काफी ख्याति प्राप्त की थी। शल्य क्रिया द्वारा मस्तिष्क के विशेष भाग में उन्होंने एक महिला पर लो वोल्टेज की विद्युत सुई चुभोकर उत्तेजित करने का प्रयोग किया। विद्युत प्रवाहित होते ही उसे अपने जीवन की 50 वर्ष पूर्व की एक महत्वपूर्ण घटना याद हो आई।

प्रयोगों द्वारा पाया गया है कि 35 वर्ष की आयु के बाद मस्तिष्क के ज्ञान-तन्तुओं का पुनर्निर्माण नहीं होता। आयु बढ़ने के साथ मस्तिष्क की रक्त पहुँचाने वाली नलिकाएँ भी कड़ी होती चली जाती हैं अतः स्नायुकोश रक्त कम ही पाते हैं। उसी कारण वृद्धों को पुरानी संचित बातें तो ज्यों की त्यों याद रहती हैं लेकिन वे तुरन्त की बात को उसी समय भूल जाते हैं। आक्सीजन उपचार के माध्यम से कइयों की तुरन्त की स्मृति को ठीक करने में सहायता मिली। लेकिन प्राणवायु का प्रभाव समाप्त होते ही स्थिति पूर्ववत् हो गयी।

आधुनिक मनोविज्ञान ने सम्मोहन विद्या, इलेक्ट्रोडों द्वारा विद्युत प्रवाह, आक्सीजन उपचार के तीन उपाय सुझाये हैं और कहा है कि यदि इस दिशा में आवश्यक अनुसंधान और प्रयत्न किया जाय तो मनुष्य जाति का अपार हित साधन हो सकता है और वह भूमि में गढ़ा खजाना मिलने पर मालदार बन जाने वालों की तरह ज्ञान क्षेत्र में देखते-देखते आश्चर्यजनक प्रगति कर सकता है। विगत जन्म में जितनी विद्या बढ़ी थी वह इस जन्म में बिना अधिक परिश्रम किये देखते-देखते उपलब्ध हो सकती है और मन्द-बुद्धि समझे जाने वालों के लिए भी कालीदास जैसा विद्वान बन सकना सम्भव हो सकता है।

पुरातन मनोविज्ञान में समाधि, साधना, योग निद्रा का उच्चस्तरीय प्रयोग होता रहा है उसका छोटा-सा रूप आधुनिक सम्मोहन विज्ञान है। इलेक्ट्रोडो द्वारा सुप्त को जगाने के लिए जो झटके दिये जाते हैं वह प्रयोजन ध्यान धारणा के सहारे प्रसुप्त संस्थानों को पुनर्जीवित करने के द्वारा भली प्रकार पूरा हो सकता है। प्राणायाम से आक्सीजन उपचार के सुविस्तृत विज्ञान का समावेश है। इन उपचारों के सहारे सामान्य मनुष्य का अनेक दृष्टियों से असामान्य बन सकना सम्भव है। विस्मृति के गर्त से निकलकर स्मृति का वरदान पाया जा सकता है। इस प्रकार भूतकाल की संचित सम्पदा के सहारे से बिना नया उपार्जन किये भविष्य को समुन्नत और सुसंपन्न बनाया जा सकता है।


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