खिचरी यस्त सिद्धातु स शुद्धोनाऽत्र संशयः’

July 1982

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ध्यानयोग की समस्त साधनाएँ व्यक्ति को अंतर्मुखी बनाती हैं तथा साधक को आनन्द उल्लास का स्रोत अपने ही अन्दर खोजने, उसे उभारने व तद्जन्य सामर्थ्य से उसे अति मानवी क्षमताएँ धारण करने योग्य बनाती हैं। इन सभी साधना उपचारों में ब्रह्मरन्ध्र की साधना को महत्वपूर्ण माना जाता है जिसमें खेचरी मुद्रा के भाव प्रधान प्रयोगों का प्रावधान है। हठयोग के साधक तो इस साधना को मात्र जीभ लम्बी करके उसे उलटकर तालूमूर्धा तक लगाने, जिह्वा पर विभिन्न वस्तुओं का लेपन कर इसे थन की तरह दुहने का प्रयत्न करने तक सीमित मानते हैं। अतिवादी तो जीभ के नीचे की त्वचा को काटकर उसे और अधिक पीछे मोड़ने योग्य बनाते हैं। परन्तु ध्यानयोग में इसके भाव पक्ष का ही प्राधन्य है, वही उस प्रक्रिया का प्राण भी है। इसमें ब्रह्मरन्ध्र को मस्तिष्क मध्य अवस्थित माना जाता है और वहाँ से सोमरस स्रवित होते रहने की कल्पना की जाती है। जीभ रूपी तन्मात्रा से इसी सोमरस का पान किया जाता है।

सोमरस, अमृत कलश, जिह्वा के सम्वेदनशील तन्तु, ब्रह्मरन्ध्र, तालु मूर्धा—इन सब शब्दों व इस प्रक्रिया को समझने के पूर्व कुछ दार्शनिक तथा वैज्ञानिक तथ्यों पर विचार करना होगा। परब्रह्म के अनुदान यों तो सारे जीवधारियों पर सृष्टि के अन्तराल से निरन्तर बरसते रहे हैं। परन्तु मनुष्य की बात अलग है। मानवी काया में कुछ ऐसे सूक्ष्म शक्ति केन्द्र होते हैं जिनके माध्यम में इन अनुदानों को सहज ही अपने अन्दर ग्रहण अवशोषित किया जा सकता है। साधारण स्थिति में तो थे और प्राणधारियों की तरह प्रसुप्त ही पड़े रहते हैं परन्तु साधना पुरुषार्थ से इन सूक्ष्म शक्ति संस्थानों, चक्र−उपत्यिकाओं तथा ग्रन्थियों को विकसित समर्थ बनाया जा सकता है।

ब्रह्मरन्ध्र मानवी मस्तिष्क में अवस्थित एक ऐसा स्थान है जिसे योग शास्त्र में रहस्यों से भरा, महिमायुक्त एवं ब्राह्मी चेतना का ही एक अंग माना गया है। तालु गह्वर से ऊपर स्थित, दोनों सेरिबल हेमीस्फियर्स (मस्तिष्क पटलों) के मध्य विद्यमान यह सूक्ष्म संरचना अदृश्य जगत से आने वाले प्रवाहों को रेडियो क्रिस्टल की तरह ग्रहण करती व आवश्यकतानुसार काया के विभिन्न अवयवों को भेजकर शेष अन्तरिक्ष में छोड़ देती है। यदि कोई यह उत्सुकता बताये कि ब्रह्मरंध्र स्थूल मस्तिष्क में कहाँ है, उसे इन चर्म चक्षुओं से क्या देखा जा सकना सम्भव है? तो उसे निराश ही होना पड़ेगा। शरीर की सूक्ष्म संरचना कुछ इस प्रकार की है कि स्थूल अवयवों को उसके आँशिक प्रतीत के रूप में माना तो जा सकता है, पर पूर्णरूपेण उनका पर्यायवाची उन्हें नहीं कहा जा सकता। इस साधना से होने वाली फलश्रुतियों से सूक्ष्म अवयवों की सामर्थ्य का अनुदान तो लगाया जा सकता है, पर उन्हें आँखों से देखा नहीं जा सकता।

आध्यात्मिक शरीर विज्ञान के अनुसार ब्रह्मरन्ध्र को मस्तिष्क मध्य में उसकी अधों सतह पर स्थित कुछ महत्वपूर्ण अंगों के समीपस्थ माना जाता है। पिट्यूटरी ग्रंथि की महत्ता से अब परिचित हैं। यहाँ से उत्सर्जित हारमोन्स सीध रक्त में मिलकर पूरे शरीर की अचेतन चेतन क्रियाओं, उसके शारीरिक विकास व मानसिक क्षमताओं के जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। पुरुषोचित दृढ़ता और स्त्रियोचित कोमलता, न केवल अंगों में अपितु स्वभाव−रुझान में भी इन्हीं रस स्रावों के कारण ही देखी जाती है। व्यक्तित्व का सुसन्तुलित गठन संचालन ये सूक्ष्म स्राव ही करते है। इसी पिट्यूटरी ग्रन्थि व भाव संस्थान के नियन्ता हाइपोथेलेमस के मध्य जो विद्युत प्रवाहों से चारों ओर से ऐसे घिरा है—मानों एक फव्वारे के केन्द्र में कोई वस्तु रखी हो तथा लिम्बिक सिस्टम नामक एक महत्वपूर्ण केन्द्र से जुड़ा हुआ है। यहाँ पर पिट्यूटरी ग्रन्थि के न्यूरोसरकु लेटरी हारमोन्स तथा हाइपोथेलेमस को सिनेप्सो का समन्वय संयोग होता है। यह स्थान सेरिव्रोस्पाइनल फ्ल्यूड की थर्डे वेन्ट्रीकल नामक थैली में भरे द्रव्य से ऐसे घिरा है, मानो शिवजी क मस्तक से गंगा की धारा निकल रही हो। यही पर ब्रह्मरन्ध्र के ब्राह्मी चेतना के जीव चेतना में स्थिति प्रतिनिधि के अवस्थित होने की कल्पना की जाती है।

जिह्वाग्र से इस स्थान का क्या सम्बन्ध? खेचरी मुद्रा में जिह्वा को पीछे घुमाकर धीरे−धीरे तालु के कोमल हिस्से मूर्धा को सहलाया जाता है, इसके पीछे क्या कारण है, इसकी भावनात्मक व्याख्या तथा इस क्रिया के साथ की जाने वाली ध्यान धारणा के विस्तार में जाने के पूर्व जिह्वा की संरचना प पिट्यूटरी ग्रन्थि की उत्पत्ति−विकास पर कुछ विवेचन करेंगे।

जिह्वा के सम्वेदनशील तन्तु पैपीली कहलाते हैं। अगले हिस्से पर वे सबसे सघन होते हैं। स्नायु तन्तु जहाँ समाप्त होते हैं व जिनके कारण जीभ स्वाद आदि का अनुभव होते हैं व जिनके कारण जीभ स्वाद का अनुभव करती है, ‘टेस्टबड’ नामक टर्मिनल बनाकर पैपीली में ही समाप्त होते हैं। प्रत्येक पैपीली एक स्वतंत्र माइक्रोफाइन्ड इलेक्ट्रोड का काम करता है। इसे तालु मूर्धा से लगाने से प्रयोजन है, हौले−हौले सहलाकर वहाँ के कोष्ठकों को उत्तेजित करना। आध्यात्मिक दृष्टि से जीभ को मुख गह्वर में रहने वाली रसेन्द्रिय, ऋण विद्युत प्रधान—रयि शक्ति सम्पन्न मुखर कुण्डलिनी माना जाता है। सर्पिणी की उपमा इस पर भी सही रूप में लागू होती है। जीभ से डंक मारने की उक्ति, रसना से अहंयम आदि वाणी तथा वाणी तथा स्वाद के अधोगामी प्रवाहों से सभी परिचित हैं। हेय सलाह, छलछद्म द्वारा व्यक्ति वाणी का है उपयोग कर कुमार्गगामी बनता है व दूसरों को बनाता है। यदि यह अनगढ़ प्रसुप्त मुख सर्पिणी जागृत सुसंस्कृत हो सके तो अनेकों अनुदान उपलब्ध कराती है। जिस प्रकार मूलाधार चक्र में स्फुरणा व सूर्यबेधन प्राणायाम तथा शक्तिचालिनी मुद्रादि का आश्रय लिया जाता है उसी प्रकार जिह्वा को ऊर्ध्वगामी बना, इस ऋण प्रवाह प्रधान शक्ति केन्द्र को धन विद्युत के केन्द्र मस्तिष्क की डडडड सतह से जोड़कर एक सर्किट पूरा किया जाता है। जिह्वा और तालु की हल्की रगड़ से विशिष्ट आध्यात्मिक स्पंदन आरम्भ होते है और इस उत्तेजना से उच्चकोटि के ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होती है। योगी इसे अमृत निर्झर का रसास्वादन कहते हैं।

ब्रह्मरंध्र की आध्यात्मिक विवेचना के पूर्व संरचना पर चिन्तन करते है तो ज्ञात होता है कि वह स्थान जहाँ जिह्वा को हल्के−हल्के स्पर्श किया जाता है सीधे पिट्यूटरी से जुड़ा है। विचित्र बात यह है कि यहाँ पर (नेजोफेरिक्स) पिट्यूटरी ग्रन्थि की संरचना का ही पदार्थ माँस पेशियों में—स्नायु तन्तु के जाल में उलझा बैठा होता है। इसका कारण यह है कि गर्भ काल में पिट्यूटरी का जन्म तालु मूर्धा में ही होता है—यही से ‘राथके पाऊच’ नामक स्थित होने पहुँच जाता है। दोनों स्थानों को जोड़ने वाली नलिका जन्म के बाद बन्द हो जाती है पर बहुसंख्य महिलाओं−पुरुषों में इसका अस्तित्व तालु मूर्धा में होता है। इसे इलेक्ट्रोडों से उत्तेजित कर हारमोन्स का उत्सर्जन उन व्यक्तियों में वैज्ञानिक करने में सफल हुए है जिनका मस्तिष्क स्थित पिट्यूटरी काम करना बन्द कर देता है। कहने का आशय यह कि इसी प्रसुप्त पिट्यूटरी के, हिस्से को जिह्वाग्र रूपी इलेक्ट्रोड से उत्तेजित करना केवल हारमोन्स का स्राव रक्त में पहुँच सकना शक्य है, अपितु स्नायु संस्थान व रक्त प्रवाह को भी प्रभावित किया जा सकना पूर्णरूपेण सम्भव है, इसकी पुष्टि चिकित्सक डॉ. मैग्राथ ने ग्रैज एनाटाँमी के 1980 के संस्करण में अपने एडिनोहाइपोफिसस सम्बन्धी अध्याय में की है। यह एक स्मरणीय तथ्य है कि तालु मूर्धा के ठीक ऊपर काफी सघन रक्त प्रवाह, स्नायु जल सेरिब्रोस्पायनल द्रव्य से भरी थैलियाँ होती है। यह द्रव्य (सी.एस.एफ.) ही स्नायु संस्थान को पोषण देता है।

खेचरी मुद्रा के माध्यम ले आत्मा−परमात्मा के मिलन संयोग की अनुभूति आनन्द और उल्लास के रूप में होती है। सामान्य स्थिति में तो इनका अनुभव मनुष्यों को नहीं होता, पर इस योगाभ्यास द्वारा भगवान की मनुष्य की दो प्रेरणाएँ—सन्तुष्टि, आनन्द तथा उत्कृष्टता की ओर कदम बढ़ाने के लिये अदम्य उत्साह−उल्लास सहज ही मिलती है। ये इस साधना की सूक्ष्म प्रतिक्रियाएँ है। हर व्यक्ति अन्दर भगवान इन्हीं दो प्रेरणाओं को निरन्तर पेण्डुलम गति से प्रदान करते रहते हैं। साधना में परिपक्वता के दो ही चिन्ह हैं—ध्यान करते समय यह अनुभव होने लगे कि मानव जीवन जैसा अनुपम उपहार हमें उपलब्ध हुआ है। हमें छोटे−मोटे अभावों पर ध्यान न देकर समस्वरता की स्थिति में सन्तुलित जीवन जीना चाहिए। यही सच्चा आनन्द है। आनन्द अकेला नहीं आता, उल्लास भी साथ लेकर आता है। उच्चस्तरीय प्रयासों के लिये प्रचण्ड कर्मठता अपनाने हेतु अदम्य उत्साह, स्फूर्ति एवं उमंग ही उल्लास है। अपनी प्रौढ़ावस्था में यह उल्लास ईश्वरीय अनुशासन के अनुरूप नीति निर्धारण हेतु मचलने पर साधक को विवश कर देता है। यही भगवान की भक्त से वार्तालाप की चैनेल है, यही आत्मा−परमात्मा का परस्पर संवाद है।

मनीषी जिह्वा को तालु से लगाने और सहलाने से सोमरस के निर्झरित होने की चर्चा करते हैं। वस्तुस्थिति यह है कि सोमरसपानजन्य मादकता ही आन्तरिक मस्ती है। उत्कृष्ट भावनाओं में रमण अपने में एक अलग ही प्रकार की अनिवर्चनीय आनन्ददायक अनुभूति देता है। यह मात्र अलंकारिक वर्णन उस मिठास के लिये है जो अमृत में होती है और जिसका रसास्वादन जिह्वा तालु स्पर्श से करती है। खेचरी मुद्रा में इस स्पर्श से मिठास प्रधान स्वाद की अनुभूति होती है और लगता है उसमें कुछ मादकता भी साथ है। यह समाधि स्थिति के पूर्व की आनन्द मग्न होने की स्थिति है। चित्त की चंचलता नष्ट होकर मन उत्कृष्ट विचारों में लगने लगता है।

गोरक्ष संहिता में शास्त्रकार ने कहा है—

चितं चलति नो यस्माज्जिह्वा चरति खेचरी। तेनेयं खेचरी सिद्धा सर्वा सिद्धं नमस्क्रत॥

अर्थात्—जिस योगी का चित्त चंचल नहीं होता और जिसकी जिह्वा खेचरी में रमण करती है, उसी की खेचरी मुद्रा सिद्ध है। अर्थात्—चित की तन्मयता खेचरी साधना का एक अनिवार्य अंग है।

यह चिर तन्मयता ही खेचरी साधना की परिणति प्रतिक्रिया है। वस्तुतः यह भाव पक्ष ही इस साधना अधिक। जिह्वा को सरलता से जितना पीछे तालु से सटाकर ले जा सके—ले जाते है व इसके उपरान्त ध्यान करते है मधु के छत्ते के समान तालु छिद्र से सोम अमृत का—सूक्ष्म रस स्राव हो रहा है यह रस जिह्वा के गहन किया जा रहा है। निवास करने वाली रस तन्मात्रा द्वारा ग्रहण किया जा रहा है। इससे अक्षय आनन्द की उत्पत्ति रोम−रोम में हो रही है। इस प्रक्रिया से होने वाली सफलताओं एवं साधक को प्राप्त अतीन्द्रिय क्षमताओं दिव्य सामर्थ्यों से शास्त्र भरे पड़े है। इसी कारण इसे हठयोग में नहीं, ध्यानयोग में ही गिना जाता है क्योंकि यह एक उच्चस्तरीय ध्यान प्रक्रिया ही है। शिव संहिता, घेरण्ड संहिता, योग कुंडल्योपनिषद्, योग रसायनम् आदि ग्रन्थों में इस प्रक्रिया के अनेकों लाभ बताये गये हैं। इनमें रोगों से मुक्ति, जीवनी शक्ति वृद्धि, दीर्घ आयुष्य, सतत् उत्साह आदि स्थूल तथा अणिमा, गरिमा आदि सिद्धियाँ प्राप्त होती है, ऐसा वर्णन ग्रन्थों में है।

शिव संहिता लिखती है—

ब्रह्मरन्ध्रे मनोदत्वा क्षणार्धं मदि तिष्ठति। सर्वपाप विनिमुक्तः सयाति परमाँगतिम्। अस्मिल्लीनं मनोयस्य स योगीमयिलीयते। अणिमादि गुणान् भुक्त वा स्वेच्छया पुरुषोत्तमः॥

अर्थात्— ब्रह्मरंध्र में मन लगाकर खेचरी मुद्रा की साधना करने वाला योगी आत्मनिष्ठ तथा पाप मुक्त होकर परम गति को प्राप्त होता है। इस साधना में मनोलय होने पर साधक ब्रह्मलीन हो जाता है और अणिमादि सिद्धियों का अधिकारी बनता हैं।

खेचरी अर्थात् आकाश में विचरण करना। इसीलिये साधक को हमेशा भाव श्रद्धा के निखिल आकाश में विचरण करने का ध्यान करने को कहा जाता है। दैहिक क्रिया जो साथ जुड़ी है वह तो संक्षिप्त है। मूल है उसका सूक्ष्म भाव पक्ष जो साधक के अन्तरंग को आमूल−चूल बदल देता है—बहिरंग में प्रसन्नता,स्फूर्ति, तेजस् व्यवहार में सुसंस्कारिता के समावेश के रूप में जिसकी परिणति होती है।


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