यज्ञोपचार और व्याधि निवारण

July 1982

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आज के चिकित्सक को यह भलीभाँति समझ में आ गया है कि आधुनिक युग में उपलब्ध औषधियों से समग्र चिकित्सा सम्भव नहीं है। बड़ी ही जल्दी शरीर इन औषधियों के प्रति इम्युनिटी विकसित कर लेता है, जिससे वे तकरीबन प्रभावहीन ही सिद्ध होती है। एक ‘टर्मीनल इलनेस’ नामक व्याधि समूह भी विकसित हो गया है, जिसमें चिकित्सक रोगी को रोग का स्वरूप समझ नहीं पाता, पर उसे गम्भीरता एवं शीघ्र ही मृत्यु के मुख में जाने का भविष्य दर्शन करा देता है। “आएट्रोजिसिटी” अर्थात् औषधियों के दुष्प्रभावों से होने वाली व्याधियों का एक अलग ही विषय विगत एक दशक में चिकित्सा विज्ञान के अंतर्गत आ चुका है।

एक और क्षेत्र ऐसा है जिसमें वैज्ञानिक स्वयं को अन्धकार में पाता है। वह है पर्यावरण में बढ़ता जा रहा असन्तुलन। विशेषकर काष्किक किरणों एवं अन्य माइक्रोवेग्स की धरती ग्रह पर बरस रही बाढ़ जिसने मानव जन्य प्रदूषण में और भी वृद्धि कर दी है।

“मेटोरियो बायोलॉजी” एवं ‘क्लीनिकल इकॉलाजी” जैसे विषयों पर शोध का क्षेत्र बढ़ता चला जा रहा है। जितनी व्याधियाँ हो रही हैं, उसमें प्रधान कारण वातावरण का बीमार होना है। जिस ग्रह पर मनुष्य रह रहा है, इसके “एनर्जी सायकल”(ऊर्जा चक्र) को यदि सुसंतुलित न किया गया, तो इसके दुष्परिणाम सभी को सामूहिकतः भुगतने होंगे।

“होलिस्टीक हेल्थ” का जो नया स्वरूप अब उभर कर आ रहा है इसमें प्रधानता रोग निवारण मात्र को नहीं दी जायेगी। वरन् स्वास्थ्य के उस पक्ष को दी जायेगी जिससे समस्त दबावों, प्रतिकूलताओं से मोर्चा लेने की मानवी क्षमता में वृद्धि हो। स्वास्थ्य का अर्थ मात्र बीमारी से मुक्ति नहीं है। यह अरौ भी ऊँचा विस्तृत शब्द है, जिसमें मानसिक उल्लास, स्फूर्ति, आत्मिक दृष्टि से उन्नत स्वास्थ एवं जीवन के प्रति विधेयात्मक दृष्टिकोण भी आ जाता है।

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान, रोग विकृति विज्ञान अधिक है एवं थेरेपी या उपचार विज्ञान कम। इससे निदान का स्वरूप तो उभर कर आया है, चिकित्सा की बात अधिक सशक्त ढंग से प्रस्तुत नहीं हो पायी है।

कुछ व्याधियों में निरन्तर बढ़ोत्तरी हुई है। कैंसर से ग्रस्त व्यक्तियों की संख्या बढ़ती जा रही है। अब तो यह बच्चों में भी होने लगा है। बढ़ती औद्योगिक समृद्धि ने साँस लेने वाली हवा में घटोत्तरी की है एवं एलर्जी तथा अशुद्ध हवा से होने वाली बढ़ोतरी की है। एसर पालुशन (वातावरण प्रदूषण) एवं कैंसर में अब सीधा सम्बन्ध माना जा रहा है।

किसी भी गैस पाइजनिंग का पहला दुष्प्रभाव होता है सांसों का उथलापन। गहरी साँस लेने में कष्ट होता है, इसलिये साँस ली जाती है। एवं यह धीरे−धीर साँस लेने में तकलीफ तक को जन्म देने लगती है। हल्की साँस एवं डिस्पनिया के भावी दुष्परिणाम होते है—दमे का हल्का व गम्भीर आक्रमण मस्तिष्कीय माइग्रेन, (सिरदर्द—आधाशाशी), थकावट, अवसाद, मंदाग्नि वजन में निरन्तर कमी, कोलाइरिस एवं नरवस डामरिया तथा अन्य स्नायविक कमजोरियाँ।

प्रदूषण का प्रभाव जन्म ले रहे बच्चों पर पड़ा रहा है। अधिक संख्या में विकलाँग अब जन्म ले रहे हैं। गर्भपात अब अधिक संख्या में हो रहे हैं।

ऐसे में यज्ञ चिकित्सा एक ऐसा माध्यम हो सकती है जो स्नायविक अनियमितताओं से लेकर कैंसर की अन्तिम स्थिति तक को ठीक कर सके किसी भी प्रकार के दुष्प्रभाव से रहित यह थेरेपह किस प्रकार काम कर सकती है, इस पर बृहत् अनुसंधान की आवश्यकता है।

गलत आदतों से होने वाली व्याधियों को किस प्रकार ठीक लिया जाये, उन सभी सूक्ष्म घटकों का सुनियोजित किस प्रकार किया जाये, जो स्वास्थ्य को किसी सीमा तक प्रभावित करते हैं, यही यज्ञोपचार का प्राण है। साइकोथेरेपी में वो साइकियाट्रिस्ट का स्वयं का व्यक्तित्व, उसका ज्ञान एवं रोग की तह में जाने की उसकी सामर्थ्य महत्वपूर्ण होती है, पर यह पहुँच अन्तःस्थल तक नहीं हो पाती। इसके लिए आध्यात्मिक एनोटॉमी एवं थेरेपी के ज्ञाता। ‘होलीस्टीक हीलर’ की आवश्यकता होती है जो गहराई तक न केवल प्रवेश करें बल्कि परामर्श भी दें। यज्ञ प्रक्रिया से जुड़ी सारी प्रवेश क्रियाएं इस पक्ष को भी साथ लेकर चलती हैं।

अब हमें वैज्ञानिकों को उस धरातल पर ले जाना होगा। जहाँ तक तथ्य एवं प्रमाण की भाषा में वे यह समझ सकें कि वनौषधियों को यज्ञशाला की ज्वाला में होमीकृत करने से कुछ नियम अनुशासन का पालन करने से, आहार−बिहार का संयम एवं कुछ चुने हुए मन्त्रों का श्रद्धापूर्वक उच्चारण करने से ब्राह्मी चेतना या “समष्टि प्राण” में कुछ ऐसे परिवर्तन होते है जो सभी के मस्तिष्कों पर स्वास्थ्यवर्धक, तनावनाशक, आनन्दवर्धक लाभ प्रभाव डालते हैं।

न्यूटोलॉजी, बैक्टीरियालॉजी एवं मूर्च्छा विज्ञान पर इस शोध का क्षेत्र खुला पड़ा है।

समष्टि में व्याप्त प्राण शक्ति एवं व्यष्टि की मनःशक्ति को ही एक ही सिक्के के 2 पहलू मान सकते हैं। वातावरण में होने वाला परिवर्तन निश्चिततः शरीर के स्वास्थ्य का निर्धारण करने वाली प्राणशक्ति को प्रभावित करेगा।

अग्नि की ऊर्जा के माध्यम से यज्ञ चिकित्सा में वातावरण को प्राण शक्ति से अभिपूरित किया जाता है तो शरीर की शक्ति को मानसिक सामर्थ्य को बायोटिथम को लौटा कर प्रभावित करती है। इससे जो मनःऊर्जा व्यक्ति के समग्र स्वरूप से उत्सर्जित होती है, वह पर्यावरण में तो सन्तुलन लाती ही है, उसे भी शक्तिवान बनाती है। यही है यज्ञोपचार का आधार एवं सिद्धान्त जिसके सहारे लोक स्वास्थ्य को सुधारने की सम्भावना दिन−दिन समुज्ज्वल होती चली जा रही है।


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